चमकी बनाम लीची: यह सत्ता की जड़ता है या संवेदन-शून्यता

Edited By ,Updated: 19 Jun, 2019 03:34 AM

spoon fever vs leichi

चमकी बुखार से बिहार में हर तीन घंटे में एक बच्चा पिछले 18 दिन से मर रहा है, सरकार के स्वास्थ्य विभाग ने दोष सदियों से पैदा होने वाली ‘लीची’ पर डाल दिया और मंत्री मीटिंग में ही भारत-पाक क्रिकेट मैच का स्कोर पूछते दिखे? कौन न पूछे? पाकिस्तान हमारा...

चमकी बुखार से बिहार में हर तीन घंटे में एक बच्चा पिछले 18 दिन से मर रहा है, सरकार के स्वास्थ्य विभाग ने दोष सदियों से पैदा होने वाली ‘लीची’ पर डाल दिया और मंत्री मीटिंग में ही भारत-पाक क्रिकेट मैच का स्कोर पूछते दिखे? कौन न पूछे? पाकिस्तान हमारा दुश्मन रहा है और हमारे सैनिकों को मारता रहा है। उसका प्रभाव भी तो राष्ट्रवाद के रूप में उतनी ही बड़ी जरूरत है। इसमें आपराधिक असंवेदनशीलता देखना तो हमारी अल्प बौद्धिक क्षमता भी हो सकती है। पिछले 29 साल से हर 37 मिनट पर देश में एक किसान आत्महत्या कर लेता है पर सरकारें उसका कारण गृह-कलह या बीमारी बताती रही हैं। सत्ता में बैठने पर एक अलग किस्म का ‘ब्रह्मज्ञान’ पैदा होता है जो अपनी अक्षमता को ढक कर आरोप समाज, उसकी आदतों और कई बार बेजान वस्तुओं पर डाल देता है। 

खबर है कि पिछले दस सालों में 1000 बच्चे इस बीमारी से मां की गोद से हट कर मौत की गोद में समा चुके हैं। सत्ता भी वही, शासक भी वही, पर यह नया ‘ब्रह्मज्ञान’ आज तक नहीं आया था। अब की अगर आया भी तो ‘राष्ट्रवाद’ भारी पड़ गया। मासूम ‘लीची’ उसके वजन में दब गई। डॉक्टरों की कमी, नर्सों का टोटा, अस्पताल न होना, दवा का ‘चील के घोंसले से मांस’ की मानिद गायब होना एक तरफ लेकिन गलती तो लीची ने की है। 

लीची गुनहगार या बीमारी
चमकी बुखार (एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम) में करीब 133 से ज्यादा बच्चे मर गए। झगड़ा इस बात पर है कि बच्चे लीची खाने से मर रहे हैं, जैसा सूबे के एक मंत्री ने अपने विभाग के डाक्टरों के साथ मिलकर दावा किया है या यह एक बीमारी है जिसकी रोकथाम के प्रयास पहले से नहीं किए गए। चूंकि यह बीमारी शुरू में लीची पैदा करने वाले मुजफ्फरपुर में पहले फैली तो मंत्री जी का ब्रह्मज्ञान सीधे समाज की ‘गरीबी के कारण गलत आदत’ यानी खाली पेट लीची खाने पर जा टिका। मगर सातवें दिन जब यही बीमारी आस-पास के जिलों मसलन सीतामढ़ी, सीवान, छपरा और हाजीपुर में भी फैली तो मंत्री जी और भ्रष्टाचार व प्रशासनिक निष्क्रियता में आकंठ डूबे स्वास्थ्य विभाग के इस ‘ब्रह्मज्ञान’ पर कफन में भी बच्चे तरस खाने लगे। लीची बिहार में आज भी 50-60 रुपए किलो है। मासूम जो मर रहे हैं उनमें लगभग सभी महादलित वर्ग के हैं जिनकी प्रतिदिन आय इसकी एक चौथाई भी नहीं है। 

सत्य से इंकार
मनोवैज्ञानिक विश्व में भी सत्य से इंकार को व्यक्ति के रक्षा कवच के 10 चरणों में पहला चरण माना जाता है। लिहाजा वे डॉक्टर जो बिहार सरकार में हैं या वे मंत्री जिन्होंने सत्य-निष्ठा की शपथ ली है, सभी ने लीची को सबसे कमजोर और गरीबी-जनित गलत आदत को अपराधी पाया। किसानों की आत्महत्या को इस सत्ता वर्ग ने पिछले 29 सालों से घरेलू कलह या बीमारी बताया। किसान होगा तो गरीब होगा, गरीब होगा तो घर में कलह होगी या बीमारी होगी क्योंकि 43 डिग्री तापमान पर वह यूरोप की ठंडी वादियों में जाता नहीं, अल-सुबह लीची खाता है, बच्चों को खिलाता है और जब शरीर में शर्करा (शूगर) बेहद कम हो जाती है तो मासूम बच्चे मर जाते हैं। 

चालाक स्वास्थ्य विभाग अपने सुरक्षा कवच को मजबूत करने के लिए वैज्ञानिक तर्क भी दे रहा है। उसके अनुसार लीची में दो तत्व- हाइपोग्लायसीन ए और मेथीलीन साइक्लोप्रोपाइल ग्लायसीन- पाए जाते हैं, जो खाली पेट लीची खाने पर शूगर लैवल को अचानक घटा देते हैं। अगर लीची इतनी खतरनाक है तो क्या बिहार सरकार के स्वास्थ्य विभाग को यह ब्रह्मज्ञान नहीं आया कि लोगों को पहले से सतर्क करे। यह लीची सैंकड़ों साल से इस इलाके में पैदा होती है और उतने ही वर्षों से खाई भी जाती होगी। यही बच्चे पहले भी होंगे, यह गरीबी कोई नीतीश कुमार के शासन की देन नहीं है। लीची में ये दोनों तत्व भी आम चुनाव के बाद आज नहीं घुस गए हैं। 

इतने दिनों बाद पहुंचे नीतीश
यही कारण है कि सूबे के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इसीलिए राजधानी पटना से मात्र 80 किलोमीटर दूर इस संकटग्रस्त इलाके के दौरे पर इतने दिनों बाद आए मगर पहले हजार किलोमीटर दूर देश की राजधानी पहुंच कर केन्द्र को बुरा-भला कह दिया। यह राज्य परिवार नियोजन में लगातार असफल रहा और आज यहां आबादी घनत्व मुल्क के सभी सूबों से ज्यादा है और राष्ट्रीय औसत का तीन गुणा यानी 1105 व्यक्ति प्रति किलोमीटर। केन्द्र के एक सर्वे के अनुसार सरकार लोगों को कंडोम और गर्भ निरोधक गोलियां भी मुहैया नहीं करवा पा रही है। क्या इसमें भी किसी लीची के तत्व की भूमिका है?-एन.के. सिंह  
 

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