कम्पनी राज के खिलाफ किसान आंदोलन की ‘सुगबुगाहट’

Edited By ,Updated: 25 Jul, 2020 03:33 AM

sugbuhgat  of kisan agitation against company raj

कोरोना काल की चुप्पी को किसान क्यों तोड़ रहे हैं? किसान की ऐसी क्या ङ्क्षचता है जो उसे महामारी और लॉकडाऊन के बीच सड़क पर आने को मजबूर कर रही है? पिछले एक सप्ताह में देश भर में एक नए किसान आंदोलन की सुगबुगाहट सुनाई दे रही है। पहली नजर में इन आंदोलनों...

कोरोना काल की चुप्पी को किसान क्यों तोड़ रहे हैं? किसान की ऐसी क्या ङ्क्षचता है जो उसे महामारी और लॉकडाऊन के बीच सड़क पर आने को मजबूर कर रही है? पिछले एक सप्ताह में देश भर में एक नए किसान आंदोलन की सुगबुगाहट सुनाई दे रही है। पहली नजर में इन आंदोलनों के मुद्दे अलग-अलग दिखाई देंगे।

20 जुलाई को हरियाणा और पंजाब के किसानों ने सड़कों पर ट्रैक्टरों की लाइनें लगाकर केंद्र सरकार के कृषि संबंधी तीनों नए अध्यादेशों का विरोध किया। उसी दिन से पश्चिम बंगाल के किसानों ने मक्का की फसल पर एम.एस.पी. न मिलने के विरुद्ध आंदोलन शुरू किया। अगले ही दिन महाराष्ट्र में दूध के दाम गिरने के विरुद्ध किसानों ने एक दिन दूध डेयरी को न बेचकर ‘दूध बंद आंदोलन’ किया। 

उधर कर्नाटक के किसान संगठनों ने राज्य में खेती की जमीन गैर किसानों को बेचने की छूट देने वाले कानून के खिलाफ संघर्ष छेड़ दिया है। इस 27 तारीख को पंजाब के सभी संगठन तीनों अध्यादेशों और प्रस्तावित बिजली बिल के खिलाफ राज्यव्यापी आंदोलन करने वाले हैं। अगले महीने 9 अगस्त को अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के बैनर तले अढ़ाई सौ किसान संगठनों ने किसानों की 9 मांगों को लेकर राष्ट्रव्यापी विरोध कार्यक्रम की घोषणा की है। 

जरा ध्यान देने पर इन सब संघर्ष के मूल में एक चिता दिखाई देती है। किसान को आशंका है कि सरकार कृषि व्यवस्था से अपने हाथ पीछे खींच रही है, उसे बिना किसी सहारे के बाजार भरोसे छोड़ रही है, खेती किसानी को कंपनी राज में धकेल रही है। बात तो किसान की आमदनी दो गुना करने की होती थी, लेकिन हकीकत में सरकारें जो उसे आज मिल रहा है वह भी छीनने पर आमादा हैं। इसलिए किसान के धीरज का बांध टूट रहा है। सरकार, उसके राजनीतिक सहयोगी और उसकी नीतियों के समर्थक विशेषज्ञ कहते हैं डरने की कोई बात नहीं है। किसान से कुछ छीना नहीं जाएगा। 

इस नई व्यवस्था की शुरूआत मोदी सरकार ने 2014 में सत्ता में आने के तुरंत बाद शुरू कर दी थी। अगस्त 2014 में श्री शांता कुमार की अध्यक्षता में एक समिति बनाई गई थी जिसने जनवरी 2015 तक यह प्रस्ताव पेश कर दिया था कि धीरे-धीरे एफ.सी.आई. को फसलों की खरीद और उनके स्टोरेज के काम से अपना हाथ खींच लेना चाहिए। इसके तुरंत बाद फरवरी 2015 में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर कहा था कि किसानों को लागत का डेढ़ गुना दाम देना संभव नहीं है, इससे बाजार को धक्का लग सकता है।

इसी लीक पर चलते हुए मोदी सरकार ने उसी साल राज्य सरकारों पर यह बंदिश लगा दी कि वह किसान की फसल खरीदने में उसे कोई बोनस नहीं दे सकते। लेकिन 2017 में मंदसौर में किसानों पर गोली चलने के बाद देश भर में किसान आंदोलन के गति पकडऩे से बीजेपी को अपनी रणनीति में बदलाव करना पड़ा। पैंतरा बदलते हुए अब 2018 में बीजेपी ने अचानक किसानों को लागत का डेढ़ गुना दाम देने की घोषणा की। मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में चुनाव हारने के बाद किसी तरह किसान का वोट हासिल करने के लिए हर किसान परिवार को 500 प्रति माह के किसान सम्मान निधि की घोषणाभी करनी पड़ी। लेकिन कृषि के बारे में समझ नहीं बदली। 

2019 का चुनाव जीतने के बाद सरकार फिर से अपने अधूरे काम को पूरा करने पर चलती दिखाई दे रही है। किसान को पहला झटका तो तब लगा जब सरकार ने चीन और ऑस्ट्रेलिया सहित बहु-राष्ट्रीय मुक्त व्यापार समझौते आर.सी.ई.पी. में हस्ताक्षर करने का मन बना लिया था जिससे भारत के किसान और खास तौर पर दूध उत्पादक की कमर टूट जाती। इसलिए किसानों ने जमकर विरोध किया और ऐन मौके पर प्रधानमंत्री को हस्ताक्षर न करने के लिए मजबूर किया। मसूर की दाल की फसल खड़ी होने के बावजूद भी आयात की घोषणा की गई जिससे फसल का दाम और गिर गया। लॉकडाऊन के कारण देश में दूध की मांग गिर गई और भाव भी गिर गए। ऊपर से सरकार ने दूध पाऊडर का आयात शुल्क कम कर दिया जिससे दुग्ध उत्पादक संकट में आ गए हैं। 

इस संकट में देश के लिए राहत पैकेज की घोषणा हुई लेकिन इसमें किसान के लिए एक भी नई राहत नहीं थी। राहत के बदले सरकार ने कृषि सुधार के नाम पर अध्यादेश के चोर दरवाजे से 3 नए कानून लागू कर दिए हैं। आवश्यक वस्तु अधिनियम में बदलाव करके अब व्यापारियों पर कृषि उत्पाद के स्टॉक की सीमा हटा दी गई है। इससे यह आशंका है कि थोक का व्यापारी मनमाना स्टॉक इकट्ठा करके फसल के दाम अपनी मर्जी से उठा या  गिरा सकेगा। दूसरा बड़ा बदलाव कृषि उपज मंडी के कानून में ढील देने का है। अब कृषि पदार्थों की खरीद-फरोख्त मंडी के बाहर कहीं भी बिना मंडी ड्यूटी दिए की जा सकेगी। जाहिर है ऐसे में मंडी का ढांचा कमजोर होगा। अगर मंडी व्यवस्था कमजोर होती है तो देर-सवेर उसका नुक्सान किसान को ही होगा। 

तीसरा कानून कॉन्ट्रैक्ट फार्मिग के जरिए खेती में प्राइवेट कम्पनियों को घुसने की छूट देने का है। इसके जरिए कंपनियां सैंकड़ों-हजारों एकड़ जमीन पर एक साथ खेती कर सकेगी। उनके मुकाबले में साधारण किसान कहीं टिक नहीं पाएगा। कर्नाटक में अब गैर किसान भी कृषि की जमीन खरीद सकेंगे। इन सब बदलावों का कुल असर यह पड़ेगा कि खेती-किसानी में बड़ी कम्पनियों का दाखिला हो जाएगा। सरकार धीरे-धीरे किसान की भलाई के लिए जो आधी-अधूरी व्यवस्था है उससे भी पीछे हट जाएगी। एम.एस.पी. या न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद से सरकार हाथ खींच लेगी। किसान पूरी तरह बाजार और भगवान भरोसे हो जाएगा। 

किसान जानता है कि उसकी ताकत सिर्फ उसकी संख्या है। उसी का इस्तेमाल कर किसान ‘खेती-किसानी से कम्पनी राज भगाओ’ का नारा लेकर मैदान में उतर रहा है। आने वाले कुछ महीनों में किसान के दोस्त और दुश्मन की पहचान हो जाएगी।-योगेन्द्र यादव
 

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