‘अगस्ता वैस्टलैंड मामला’ सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में बने विशेष जांच टीम

Edited By ,Updated: 11 May, 2016 12:28 AM

supreme court monitored special investigation team made

सभी रक्षा सौदों में कमीशन एक जरूरी हिस्से के रूप में रहता है जिसे उन लोगों को दियाजाता है जो हथियार खरीदते हैं।

सभी रक्षा सौदों में कमीशन एक जरूरी हिस्से के रूप में रहता है जिसे उन लोगों को दियाजाता है जो हथियार खरीदते हैं। आजादी के तुरंत बाद सत्ता में आई कांग्रेस पार्टी नेेे इस पैसेका इस्तेमाल चुनाव लडऩे के लिए किया था। तत्कालीन प्रतिरक्षा मंत्री बाबू जगजीवन राम इस पैसे का इंतजाम देखते थे और उन्होंने सौदों को कभी घोटाला नहीं बननेदिया।

अभी का हंगामा आमतौर पर मिलने वाले कमीशन के अलावा आने वाली रिश्वत को लेकर है। अब तो अगर दी गई रकम मोटी रहती है तो रक्षा शर्तों को भी बदल दिया जाता है। वी.वी.आई.पी. हैलीकॉप्टर की खरीद में यह हुआ है। इसकी उड़ान की ऊंचाई कमकरदी गई क्योंकि अगस्ता वैस्टलैंड ने घूस मेंं बड़ी रकमदी। मिलान की अदालत में सोनिया गांधी का नाम जान-बूझकर नहीं लिया गया है। जज को संदेह की सुई उनकी ओर जाती हुई दिखी। आरोप और प्रत्यारोप से काम नहीं होगा।

यह एक खुली सच्चाई है कि सोनिया गांधी उस समय भी महत्वपूर्ण व्यक्ति थीं और पक्के तौर पर तस्वीर में मौजूद थीं। कितनी भी देरी क्यों न हो गई हो, सबसे अच्छा रास्ता यही है कि सुप्रीम कोर्ट सच्चाई जानने के लिए नए सिरे से जांच करने वाली विशेष जांच टीम (एस.आई.टी.) गठित करे जो कोर्ट की देख-रेख मेंं काम करे। इसके साथ ही संसद एक कमेटी गठितकरे जो रक्षा उपकरणों की खरीद की प्रक्रिया तय करे।अभी की प्रकिया में डर पैदा करने वाला ज्यादा कुछ नहीं है।

यह फिर इस पर निर्भर करता है कि राजनीतिक पार्टियां कितनी उत्सुक और गंभीर हैं। वर्तमान में रक्षा सौदे सत्ताधारी पार्टी की चुनावी मशीन में तेल डालने के लिए मुख्य स्रोत हैं। आश्चर्य की बात है कि सी.बी.आई. को घूस का कुछ भी पता नहीं है कि कहां से आ रहा है और कहां जा रहा है। यह संभव है कि एजैंसी को सच की जानकारी हो गई हो लेकिन उसने बताया नहीं क्योंकि अगर एक राजनीतिक पार्टी की बात दोहराएं, ‘तोता पिंजरे में कैद है।’

यह इस कॉलम में व्यक्त किए गए तर्कों को ही मजबूती देता है कि सी.बी.आई. को सीधे संसद के प्रति जवाबदेह रहने वाली स्वतंत्र जांच एजैंसी बनाया जाए। यह वास्तविकता है कि कोई भी बड़ी राजनीतिक पार्टी इस लाइन पर नहीं सोच रही है। इससे यही संकेत मिलता है कि उनमें से सभी को सी.बी.आई. के सरकारी विभाग होने के लाभ का पता है। रिटायर्ड सी.बी.आई. निदेशकों ने लिखित रूप से कहा है कि सत्ताधारी पार्टी का हरदम दबाव रहता है और एजैंसी के पास ढीला पड़ जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। 

एक भ्रष्ट मुख्यमंत्री के खिलाफ लोगों का शोर बढ़ जाने पर भी वह लोगों के विरोध को नजरअंदाज कर अपनी पत्नी को अपनी जगह नियुक्त कर देता है। तीनों पड़ोसी देशों-भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश में भ्रष्टाचार एक जीवन शैली बन गया है। एक राजनेता का जीवन स्तर अब इतना ऊंचा है कि जो वेतन उसे मिलता है उससे खर्च पूरा नहीं हो पाता। अंत में पैसा ही हर चीज चलाता है।

वे दिन गए जब संसद के सदस्य सोचते थे कि उनका काम देश की सेवा का है। महात्मा गांधी ने वेतन की सीमा 500 रुपए तय की थी। इस राशि में से पार्टी को भी चंदा देना था। एक बार जब स्वतंत्रता आंदोलन की आग से निकले हुए लोग दृश्य से गायब हो गए, कितना वेतन हो, का मुद्दा सामने आ गया। वेतन दोगुना करने की सांसदों की अभी की मांग पर संसदीय मामलों की समिति में बहस हो चुकी है और सदस्यों ने बढ़ौतरी के लिए कहा है। 

यह समझ में आता है और यह सही भी होगा कि वेतन को जीवन चलानेे के खर्च से जोड़ दिया जाए लेकिन मीडिया, खास कर टैलीविजन चैनल इतना हल्ला-गुल्ला मचाता है कि कोई राजनीतिक पार्टी हिम्मत नहीं करती कि विधायकों का वेतन बढ़ाने की सलाह दे। इसलिए वे दूसरे रास्तों की ओर देखते हैं। यह एक खुला सच है कि कई लोग कार्पोरेट और व्यापारिक घरानों से नियमित फायदा पाते हैं, यहां तक कि सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों से भी।

पद पर रहने वाला हर आदमी इधर-उधर से अपनी आय में कुछ जोडऩे का प्रयास कर रहा है। कानून बनाने वाले लोभ पर काबू नहीं रख सकते। उदाहरण के लिए पूर्व वायुसेना प्रमुख एस.पी. त्यागी हैलीकॉप्टर सौदे में अपने परिवार को मदद करते पाए गए। स्थानीय घूस लेने वालों को इटली की अदालत की ओर से सजा मिल चुकी है और वे अपनी सजा काट रहे हैं लेकिन भारत में दोषियों को सजा देना बाकी है।

यह दिलचस्प है कि 20 की संख्या तक पत्रकार भी घूस लेने वालों में शामिल हैं। उनके नाम भी सरकार के पास हैं। सवाल उठता है कि सरकार ने उनका नाम सार्वजनिक क्यों नहीं किया। क्या राजनीति बीच में आ गई या व्यक्तिगत समीकरण हैं? जनता को पत्रकारों के नाम जानने का अधिकार है क्योंकि वे हरदम नैतिकता का उपदेश देते रहते हैं और जब अमल में लाने की बात आती है तो ऐसा नहीं कर पाते।

यह एडिटर्स गिल्ड का कत्र्तव्य है कि वह यह देखे कि बिना देरी के नामों को सार्वजनिक किया जाए। लेकिन फिर मुझे उस बैठक की बात याद आती है जब हम लोग नैतिकता की बात कर रहे थे कि संपादक अपनी सम्पत्ति की घोषणा करें तो इस पर सदस्यों की ओर से ज्यादा प्रतिक्रिया नहीं आई। यहां तक कि प्रैस कौंसिल भी यह नियम नहीं बना पाया कि ं संपादक  अपनी नियुक्ति के समय अपनी सम्पत्ति की घोषणा करें। सिं्टग आप्रेशन सच जानने का एक रास्ता हो सकता है, लेकिन वे उत्तेजना फैलाने वाले ज्यादा होते हैं, गंभीर कम। यह भी पैसा वसूलने का एक जरिया हो गया है।

रक्षा मंत्री मनोहर पाॢरकर के बयानों में कुछ घोटालों को सामने लाने का प्रयास हुआ है लेकिन काम की बात होने के बदले इनका उद्देश्य राजनीतिक ज्यादा है। रक्षा में कमीशन की समस्या अभी भी देश के सामने चुनौती है। इसका हल तभी हो सकता है जब राजनीति को पीछे धकेल दिया जाए और सही इरादा सामने आए।

अगर सभी राजनीतिक पार्टियां नैतिकता की संहिता अपनाती हैं तो वे इस पर अक्षरश: पालन नहीं कर पाएंगी। केन्द्रीय सतर्कता आयोग का ज्यादा उपयोग नहीं है क्योंकि यह सत्ता में रहने वाली सरकार से प्रभावित रहता है। अब एक ही रास्ता दिखाई देता है कि सर्वोच्च अदालत की निगरानी में स्थायी विशेष जांच दल (स्पैशल इंवैस्टीगेशन टीम-एस.आई.टी.) जैसा कोई संस्थान रहे। यहां तक कि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया  के गवर्नर रघुराम राजन, जिन्होंने लोगों की उम्मीदें बढ़ा दी थीं, भी इन्हें पूरा करने में असफल रहे।

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