Edited By ,Updated: 30 May, 2023 05:46 AM
नई संसद का उद्घाटन और बहिष्कार हो चुका है। नीति आयोग की बैठक से 11 राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने दूरी बनाई है। 12 जून को विपक्ष की एक बड़ी बैठक पटना में हो रही है। भाजपा ने 9 साल की उपलब्धियों का जश्न मनाना शुरू कर दिया है। कुल मिलाकर मोदी सरकार और...
नई संसद का उद्घाटन और बहिष्कार हो चुका है। नीति आयोग की बैठक से 11 राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने दूरी बनाई है। 12 जून को विपक्ष की एक बड़ी बैठक पटना में हो रही है। भाजपा ने 9 साल की उपलब्धियों का जश्न मनाना शुरू कर दिया है। कुल मिलाकर मोदी सरकार और विपक्ष के बीच सियासी तलवारें खिंच गई हैं और लोकसभा चुनाव के लिए आमने-सामने की लड़ाई का बिगुल दोनों पक्षों ने बजा दिया है।
पहली परीक्षा इस साल के अंत में 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों से होनी है- तेलंगाना, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और मिजोरम। उत्तर भारत के 3 राज्य भाजपा और कांग्रेस के लिए जहां ‘करो या मरो’ जैसे हैं, वहीं तेलंगाना में जोरदार प्रदर्शन भाजपा के लिए दक्षिण का दरवाजा अगर नहीं तो खिड़की जरूर खोल सकता है, जो कर्नाटक चुनाव के बाद बंद हुआ था।
कुल मिलाकर जितनी तल्खी सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच देखी जा रही है, इससे पहले शायद ही देखी गई हो, जो आने वाले समय में और ज्यादा बढऩे वाली है। भाजपा और मोदी सरकार को विपक्ष की कतई परवाह नहीं, यह बात साफ हो चुकी है। विपक्ष के दिल में भाजपा और मोदी सरकार के लिए कूट-कूट कर नफरत भरी है, यह बात भी साफ हो चुकी है। ऐसे में 3 मोर्चें पर एक साथ लड़ाई होना तय है। एक, सड़क पर। दो, सोशल मीडिया पर। तीन, न्यूज चैनलों पर। यहां न्यूज चैनलों पर लड़ाई में भाजपा पूरी तरह से हावी है। न्यूज चैनल कुछ हद तक माहौल जरूर बना सकते हैं लेकिन किसी को चुनाव जितवा या हरवा नहीं सकते। वैसे भी न्यूज चैनलों पर भाजपा की बढ़त को डिजिटल चैनलों के जरिए विपक्ष दल खत्म करने का माद्दा रखते हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अगर राष्ट्रीय चैनल मोदी की तरफ हैं तो क्षेत्रीय चैनल राज्य में सत्तारूढ़ दल की तरफ हैं। ऐसे राज्यों की संख्या भाजपा या राजग शासित राज्यों से ज्यादा है।
ऐसे में ले-देकर सड़क की लड़ाई बचती है। यानी जनता के बीच जाना ही होगा। जनता के मुद्दे उठाने ही होंगे और जनता से संवाद स्थापित करना ही होगा। इसी तरह महंगाई, बेरोजगारी के दौर में जनता को राहत देनी ही होगी। कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि लोकसभा चुनाव के मद्देनजर 2 बातों पर भाजपा और कांग्रेस को अमल करना होगा। सोशल इंजीनियरिंग, यानी ज्यादा से ज्यादा दलों को साथ में लेना। दो, जनता को राहत पहुंचाना, जिसे आसान भाषा में रेवड़ी बांटना भी कहा जा सकता है। प्रधानमंत्री मोदी ने इस तरफ ध्यान देना शुरू भी कर दिया है। भाजपा शासित राज्यों से कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री आवास योजना से लेकर फसल बीमा योजना तक की सभी योजनाओं पर 100 प्रतिशत काम लोकसभा चुनावों से पहले हो जाना चाहिए। इसके अलावा राज्यों के मुख्यमंत्रियों से कहा गया है कि अपनी योजनाओं को वे स्थानीय सांसदों को आगे कर के बनाएं। साफ है कि जो भी काम हो, उसका बड़ा श्रेय स्थानीय सांसद के खाते में डाला जाए।
ऐसा करना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि बहुत से राज्यों में भाजपा लगातार 2 बार सौ फीसदी सीटें जीत चुकी है और ऐसे बहुत से सांसदों के खिलाफ कहीं एंटी-इन्कम्बैंसी का माहौल बन रहा है तो कहीं वोटर बदलाव की बात करने लगा है। गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा, दिल्ली, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, झारखंड ऐसे ही कुछ राज्य हैं, जहां भाजपा का स्ट्राइक रेट 100 फीसदी के आसपास है। अब या तो लगातार 2 बार जीते सांसदों में से आधों के टिकट काटे जाएं या फिर उनके काम गिनाए जाएं, दो ही तरीकों से सांसद विरोधी रुझान दूर किया जा सकता है। इस बीच कुछ राज्यों में भाजपा के हाथ से सत्ता चली गई है या हरियाणा व महाराष्ट्र की तरह गठबंधन के रूप में है। लिहाजा लोकसभा चुनावों के संदर्भ में नए सिरे से सांसदों के टिकटों का बंटवारा होना तय है।
उदाहरण के लिए, हरियाणा में भाजपा की खट्टर सरकार दुष्यंत चौटाला की जननायक जनता पार्टी के 10 विधायकों के भरोसे है। जाहिर है कि लोकसभा चुनावों में भी यही गठबंधन रहता है तो दुष्यंत वहां की 10 लोकसभा सीटों में से कुछ सीटें मांग सकते हैं। जबकि पिछली बार भाजपा सभी सीटों पर अकेले लड़ी थी और जीती थी। महाराष्ट्र में तो अभी से एकनाथ शिंदे की शिवसेना ने 22 सीटों पर दावा जता दिया है। यू.पी. में अगर अखिलेश, जयंत चौधरी, चंद्रशेखर रावण के साथ कांग्रेस भी मिलकर चुनाव लड़ती है तो भाजपा को कुछ सीटों पर अपने मौजूदा सांसदों का फेर-बदल करना होगा। पंजाब में अकाली फिर साथ आ सकते हैं। कैप्टन अमरेंद्र सिंह के भी उम्मीदवार हैं।
दो बार जीती भाजपा के लिए अगर सीटों का बंटवारा इतना आसान नहीं तो 2 बार से हार रहे विपक्ष के लिए तो और भी मुश्किल है। यह कहना आसान है कि भाजपा के खिलाफ एक ही उम्मीदवार उतारा जाए लेकिन उम्मीदवार किस दल का हो, क्या बाकी दलों के संभावित उम्मीदवार साथ देंगे, आदि कई सवाल हैं। विपक्षी दलों की खासियत है कि कौन कब किस बात पर रूठ जाए, कोई पता नहीं।
कुल मिलाकर विपक्ष को अभी भी भरोसा नहीं कि वे मिल सकते हैं, मिल कर चुनाव लड़ सकते हैं और मोदी को हरा सकते हैं। कर्नाटक में जीत के बाद कांग्रेस में भरोसा आया है कि वह चुनाव जीत भी सकती है। आगे जनता के बीच सत्तारूढ़ दलों को विकास का हिसाब-किताब देना होगा। जहां-जहां जो विपक्ष में है, वह विकास के नए-नए वादे करेगा। लेकिन इस बार क्या कुछ नया करने की जरूरत पड़ेगी। मोदी सरकार के 10 साल के काम की आलोचना करके ही विपक्ष सत्ता हासिल नहीं कर सकता। मोदी का जादू अभी भी सिर चढ़ कर बोल रहा है। विपक्ष को विकल्प बताने होंगे। मसलन, मोदी की आर्थिक नीति में यह-यह कमजोरी है, इससे आम जनता को इतना नुक्सान हुआ और अगर हम सत्ता में आए तो इस तरह की आर्थिक नीति बनाएंगे।
राजस्थान में अशोक गहलोत ने सामाजिक सुरक्षा कानून बनाने की मांग प्रधानमंत्री मोदी से की है। अपनी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को सामने रखा है। राजस्थान पहला राज्य है, जिसने राइट टू हैल्थ कानून बनाया है। अब गहलोत इसे मोदी के सामने चुनौती के रूप में रख रहे हैं। क्या के.सी.आर. की रायतु बंधु स्कीम भी ऐसा कुछ कर सकती है या नवीन पटनायक की कालिया स्कीम? दोनों ही योजनाएं मोदी की 6000 रुपए सालाना वाली किसान सम्मान निधि योजना से करीब-करीब 3 गुना ज्यादा पैसा देने वाली हैं। लेकिन विपक्ष ने इस स्कीम को अभी तक राष्ट्रीय स्तर पर चुनाव बाजार में बेचने की कोशिश नहीं की।
अब विपक्ष ये सब करता रहेगा और मोदी-अमित शाह की जोड़ी बैठी देखती रहेगी, ऐसा नहीं है। भ्रष्ट विपक्ष जेल जाने के डर से एक हो रहा है। यह मोदी का सूत्र वाक्य रहा है, आगे भी रहने वाला है। आने वाले समय में कुछ विपक्षी नेता जमानत पर रहने वाले हैं। विपक्ष सिर्फ मोदी को हटाना चाहता है, ताकि घपलों की जांच से मुक्ति पा जाए। यह मोदी का दूसरा सूत्र वाक्य है। इन दोनों का भले ही विधानसभा चुनावों में असर ज्यादा नहीं हो, लेकिन लोकसभा चुनावों में गहरा असर रहने वाला है। जनवरी 2024 में राम मंदिर भी पूरा हो चुका होगा। यह भी विपक्ष को भूलना नहीं चाहिए।-विजय विद्रोही