सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय की ‘अभिलाषा’

Edited By ,Updated: 05 Jan, 2020 02:39 AM

the desire for social economic and political justice

हम भारतीयों को अपना संविधान मिला है। संवैधानिक असैम्बली का गठन ‘एक व्यक्ति, एक वोट’ के आधार पर नहीं हुआ था बल्कि यह लोगों का प्रतिनिधित्व करने के आधार पर हुआ था। संवैधानिक असैम्बली ने देश के सभी लोगों के लिए आवाज उठाई थी। यह संविधान ही है जो आपातकाल...

हम भारतीयों को अपना संविधान मिला है। संवैधानिक असैम्बली का गठन ‘एक व्यक्ति, एक वोट’ के आधार पर नहीं हुआ था बल्कि यह लोगों का प्रतिनिधित्व करने के आधार पर हुआ था। संवैधानिक असैम्बली ने देश के सभी लोगों के लिए आवाज उठाई थी। यह संविधान ही है जो आपातकाल (1975-77) के तनाव भरे दिनों तथा 1979-80 में केन्द्र सरकार के समय पूर्व गिरने के दौरान लचीला नजर आया तथा कितने ही संशोधनों के बावजूद भी इसने अपना मूल ढांचा कायम रखा है। 

सबके लिए न्याय कहां?
यह भारत का संविधान ही है जिसने अपने सभी नागरिकों की सुरक्षा का संकल्प ले रखा है। सबके लिए सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय देना संविधान का संकल्प है। सामाजिक न्याय का मतलब बहुत गहरा है। संविधान ने लाखों दिलों में अभिलाषा की जोत को प्रज्वलित कर रखा है। 26 जनवरी 2020 को हम संविधान की 70वीं वर्षगांठ मनाएंगे। यह ऐसा समय है कि जब कुछ सख्त प्रश्र किए जाएंगे। किसने सामाजिक न्याय पाया तथा किसने खो दिया, आर्थिक न्याय क्या है तथा क्या सभी नागरिकों को आर्थिक न्याय मिला है, जबकि सभी नागरिकों के पास राजनीतिक वोट हैं तो क्या सभी को राजनीतिक न्याय मिला है? 

सदियों से पिरामिड के सबसे नीचे रहने वाले अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के लोग हैं। उसके साथ पिछड़ी श्रेणी तथा उनके बीच सबसे ज्यादा पिछड़ी श्रेणी भी शामिल है। अल्पसंख्यक ऐसे लोग हैं जो नुक्सान झेल रहे वर्ग में आते हैं। 100 वर्षों से भी ज्यादा समय पहले अमरीका में अश्वेत लोग भी दलितों, जनजातीय तथा मुसलमानों की तरह वैसे ही हालातों में रहते थे जैसा कि भारत में ये लोग रह रहे हैं। गुलामी को खत्म करने के लिए सिविल वार हुई तथा सबको बराबर के मौके देने के लिए स्वीकृति तथा सकारात्मक कार्रवाई की लम्बी प्रक्रिया को शुरू करने के लिए 1963 में सिविल राइट्स एक्ट बनाया गया। भारत में हमारे पास एक संविधान है जो अछूत को लेकर अपने तेवर दिखाता है। यह संविधान धर्म के आधार पर भेदभाव करने के खिलाफ विरोध जताता है। इसके साथ-साथ अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण का प्रावधान भी देता है। फिर भी सच्चाई यह है कि शिक्षा, स्वास्थ्य तथा सरकारी नौकरियों की नियुक्ति जैसे सामाजिक न्याय गरीब तथा नजरअंदाज किए गए लोगों की पहुंच से बाहर हैं। 

गरीबों से पक्षपात 
मैंने आवास, अपराध, मुकद्दमे झेल रहे लोगों, खेल टीमों इत्यादि में प्रतिनिधित्व के डाटा का उल्लेख नहीं किया। जो अंतिम तौर पर यह स्थापित करता है कि एस.सी./एस.टी. तथा मुसलमानों से सामाजिक तौर पर भेदभाव होता है तथा ये लोग नजरअंदाज, निरादर तथा हिंसा को झेलते हैं। आर्थिक न्याय सामाजिक न्याय का एक नतीजा है। नजरअंदाज तथा वंचित लोगों के पास कम शिक्षा, कम सम्पत्ति, सरकार में भागीदारी की कमी, गुणवत्ता भरी नौकरियां तथा कम आमदन/खर्च जैसी चीजें होती हैं। उदाहरण देकर हम इसकी व्याख्या कर सकते हैं। 

अत्यंत बुरी दुर्घटना
राजनीतिक न्याय का तीसरा वायदा अत्यंत बुरी दुर्घटना है। हम संसद, राज्य विधानसभाओं तथा निर्वाचित बाडीज तथा आरक्षित चुनावी क्षेत्रों का धन्यवाद करेंगे कि उनमें एस.सी. तथा एस.टी. वर्ग को सीटों का न्यायपूर्ण अनुपात मिला है। मगर राजनीतिक न्याय पर यहां विराम लग गया है। कई राजनीतिक दल एस.सी. तथा एस.टी. का प्रतिनिधित्व करते हैं। हालांकि अनुसूचित जातियों के पास अपनी पार्टी है। मगर उनका समर्थन आधार एस.सी. वोटरों तक ही सीमित है। जब तक कि ये विस्तृत सामाजिक गठबंधन अथवा राजनीतिक गठबंधन नहीं बनाते तब तक ये दल वहीं पर जमे रहते हैं जहां पर ये हैं। 

अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों के मामले में यहां हालात और भी बदतर हैं। मुख्य धारा के राजनीतिक दलों में मायनोरिटी सैल्स बने हुए हैं। मगर पाॢटयों में बहुत ही कम  प्रमुख नेता सामने उभर कर आते हैं। भाजपा खुले तौर पर मुसलमानों से दूर रहना चाहती है तथा एन.आर.सी., सी.ए.ए. तथा एन.पी.आर. के नाम पर धमकाया जा रहा है। दूसरे स्थान पर मुस्लिम समर्थित आई.यू.एम.एल. तथा ए.आई.एम.आई.एम. जैसी पार्टियां गठबंधन सहयोगी तो हो सकती हैं याफिर यूं कहें कि किसी दूसरी पार्टी के रंग में भंग तो डाल सकती हैं मगर कभी भी एक विजेता नहीं हो सकतीं। 

घाटी के मुसलमानों के हितों की बात क्षीण हो गई 
मुसलमानों के हितों को बहुत कम समर्थन मिलता है। अब जम्मू-कश्मीर का ही मामला ले लीजिए, मुझे लगता है कि कश्मीर घाटी में रह रहे 7.5 मिलियन मुसलमानों के हितों की बात क्षीण हो गई है। 5 अगस्त से घाटी घेराबंदी में है। 2019 में आतंकी घटनाएं पिछले 10 वर्षों में अपनी चरम सीमा पर थीं। मारे जाने वाले तथा घायल होने वाले नागरिकों की गिनती भी कम नहीं। 609 लोग अभी भी हिरासत में हैं, जिनमें 3 पूर्व मुख्यमंत्री भी शामिल हैं, जिन्हें बिना किसी आरोप के हिरासत में रखा गया है। मीडिया रिपोर्ट्स घाटी में सामान्य स्थिति दिखाती हैं। ऐसे लगता है कि देश का बाकी हिस्सा कश्मीरी लोगों को भूल चुका है तथा उनका ध्यान दूसरे मुद्दों की तरफ होता जा रहा है। अगस्त 2019 में दायर याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित रखा है। 

टुकड़ों-टुकड़ों में मिला न्याय
प्रतिदिन लाखों लोगों को सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय से वंचित रखकर संविधान का उल्लंघन किया जा रहा है। जहां तक जम्मू-कश्मीर का संबंध है यह संविधान को अपवित्र कर रहा है। मगर हमें न्यायालय की व्यवस्था का इंतजार करना होगा। सभी नागरिकों को एक जैसा न्याय देने का वायदा किया गया था वह अभी तक नागरिकों की कम से कम आधी गिनती को उपलब्ध नहीं हो पाया है तथा जो आधे लोगों को उपलब्ध करवाया गया है वह टुकड़ों-टुकड़ों में दिया गया है।-पी. चिदम्बरम

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