चुनाव आयोग को फिर से लौटानी होगी अपनी गरिमा

Edited By ,Updated: 06 May, 2021 03:43 AM

the election commission will have to return its dignity

हाल के विधानसभा चुनावों के दौरान विशेष रूप से पश्चिम बंगाल में चुनाव आयोग का आचरण शर्मनाक और बेहद पक्षपातपूर्ण रहा। वर्षों से इसकी भूमिका जांच के दायरे में रही है। लेकिन यह इतनी कम नहीं, जैसा कि 2019 में लोकसभा चुनावों के बाद हुआ। इसने खुद ही चुनावी...

हाल के विधानसभा चुनावों के दौरान विशेष रूप से पश्चिम बंगाल में चुनाव आयोग का आचरण शर्मनाक और बेहद पक्षपातपूर्ण रहा। वर्षों से इसकी भूमिका जांच के दायरे में रही है। लेकिन यह इतनी कम नहीं, जैसा कि 2019 में लोकसभा चुनावों के बाद हुआ। इसने खुद ही चुनावी कार्यक्रम के तरीके से अपने आप को उजागर किया और पश्चिम बंगाल में डेढ़ महीने में 8 चरणों को फैला दिया। हालांकि भाजपा के हक में चुनाव आयोग का यह कार्य काम नहीं कर पाया। लेकिन इसने लाखों मतदाताओं को कोविड महामारी की अवधि के दौरान संक्रमित कर दिया। 

विपक्षी  पार्टियों द्वारा आयोजित विशाल रैलियों पर भी चुनाव आयोग ने अपनी आंखें मूंद लीं। चुनावी मुहिम के अंत में इसने बड़ी रैलियों पर प्रतिबंध लगाया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने खुद ही यह घोषणा की कि कोविड संक्रमण के बढऩे के कारण वह चुनाव प्रचार के लिए बाहर नहीं जाएंगे। यहां तक कि मीडिया के विशाल वर्ग ने खतरों की रिपोर्ट नहीं की और निरंतर बड़े पैमाने पर राजनीतिक रैलियों की आलोचना से बचता रहा। मद्रास हाईकोर्ट ने चुनाव आयोग को फटकार लगाई।

हाईकोर्ट ने कहा कि, ‘‘इसके अधिकारियों पर हत्या का आरोप लगाना चाहिए।’’ अदालत ने आगे कहा कि ‘‘आप पिछले कुछ महीनों से गैर-जि मेदार दिखाई दिए। राजनीतिक दलों को कोविड-19 प्रोटोकॉल के स त दुरुपयोग से नहीं रोक पाए। आप केवल संस्था हैं और आज हम जिस स्थिति में हैं उसके लिए आप जि मेदार हैं।’’ 

कलकत्ता उच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग को यह सुनिश्चित करने के लिए कहा कि दूसरी लहर के दौरान राजनीतिक दल पर्याप्त कोविड प्रोटोकॉल को यकीनी नहीं बना रहे। मु य न्यायाधीश संजीव बनर्जी और न्याय मूॢत संथिल कुमार रामामूॢत की पीठ ने कहा कि आपने रैलियां आयोजित करने वाले राजनीतिक दलों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। आपने अपने अधिकारों का इस्तेमाल करने में कमी दिखाई। यह निश्चित रूप से एक मजबूत अभियोग था। हालांकि यह केवल एक निगरानी थी। मगर इसने चुनाव आयोग के रवैये को उजागर किया। चुनाव आयोग को एक और झटका उस समय लगा जब अदालत ने कहा कि मीडिया को जनता की भलाई के लिए रिपोॄटग करने की अनुमति दी जानी चाहिए। 

किसी समय चुनाव आयोग ने विशेषकर टी.एन. शेषण के कार्यकाल के दौरान कानून की उल्लंघना करने वाले राजनीतिज्ञों को भय से भर दिया। अब सरकार द्वारा चुनाव आयुक्तों को नियुक्त करने के कारण इसका व्यवहार बदल गया है। संवैधानिक स्थिति के बावजूद ये मजबूती से खड़े होने में असफल रहे हैं। शायद यह उनकी सेवानिवृत्ति के बाद कार्यालय का लालच है। यही उन्हें सत्ताधारी राजनीतिक नेताओं की मांगों के प्रति संवेदनशील बनाता है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि ऐसी खबरें भी आ रही हैं कि मु य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा जो हाल ही में सेवानिवृत्त हुए थे, को गोवा के राज्यपाल पद के लिए चुना जा सकता है। न तो उन्होंने और न ही आयोग ने ऐसी रिपोर्टों को नकारा है। 

2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान अरोड़ा की भूमिका की कड़ी आलोचना हुई थी। उनके नेतृत्व में आयोग ने नेताओं द्वारा दिए गए सा प्रदायिक भाषणों की तरफ अपने कान बंद रखे। चुनावों के महत्वपूर्ण पहलुओं की जांच करने वाले सिटीजन्स कमिशन ऑन इलैक्शन्स (सी.सी.ई.) ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि दिशा-निर्देश और कोड के बावजूद चुनाव आयोग ने कई मीडिया उल्लंघनों, विशेष तौर पर सत्ता पार्टी द्वारा, पर ध्यान नहीं दिया।

सी.सी.ई. ने  बताया कि सबसे जबरदस्त उल्लंघनों में से एक था ‘नमो’ नामक टी.वी. चैनल को खोलना, जिसने निरंतर ही प्रधानमंत्री से जुड़ी घटनाओं तथा उनके भाषणों को प्रसारित किया। नमो टी.वी. के पास सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय से कोई अनुमति भी नहीं थी और न ही इसके पास एक नया टी.वी. चैनल चलाने के जरूरी नियामक थे। सबसे उच्च स मानित और निष्पक्ष संस्था कहलाने वाला चुनाव आयोग कमजोर आयुक्तों द्वारा कमजोर कर दिया गया है। इसका एक बड़ा कारण केंद्र सरकार द्वारा चुनाव आयुक्तों का चयन और उनकी नियुक्ति का तरीका भी है। शायद एक अदालत के अनिवार्य चयन से आयोग को अपनी गरिमा फिर से हासिल करने में मदद मिलेगी।-विपिव पब्बी
 

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