पर्यावरण और प्रकृति को बचाने से ज्यादा उससे डरने की जरूरत

Edited By ,Updated: 18 May, 2019 01:26 AM

the need to fear him more than protecting the environment and nature

कोई अपने को चाहे कितना भी बहादुर समझे और कहे कि उसे किसी चीज से डर नहीं लगता लेकिन यह एक भ्रम है। जहां तक पर्यावरण और प्रकृति की बात है तो मनुष्य को हिंसक पशुओं, जहरीले कीड़े-मकौड़ों, पहाड़ों और खाइयों की ऊंचाई और गहराई, बर्फ की सिल्लियों के...

कोई अपने को चाहे कितना भी बहादुर समझे और कहे कि उसे किसी चीज से डर नहीं लगता लेकिन यह एक भ्रम है। जहां तक पर्यावरण और प्रकृति की बात है तो मनुष्य को हिंसक पशुओं, जहरीले कीड़े-मकौड़ों, पहाड़ों और खाइयों की ऊंचाई और गहराई, बर्फ की सिल्लियों के लुढ़कने, वनों में लगने वाली आग, उफनती नदियों की भीषण रफ्तार और धरती पर ज्वालामुखी के फटने से लेकर हर उस चीज से डर लगता है जो हमारे अस्तित्व को चुनौती दे सकती है। 

यह तो हुई पर्यावरण या कुदरत की बात और उसके द्वारा की जा सकने वाली विनाशलीला जो इस हकीकत पर अधिक निर्भर है कि हम पहले तो उसमें दखलंदाजी कर उसके साथ छेडख़ानी और मनमाना व्यवहार करते हैं और जब उसके क्रोध दिखाने पर आतंकित होते हैं तो उसे बचाने की बात करने लगते हैं। पर्यावरण बचाओ आंदोलन के आवरण में हम प्रकृति को और अधिक उग्र होने के लिए मजबूर करते रहते हैं। 

उदाहरण के लिए हम पहले से अधिक जहरीले रसायन नदियों और नालों में बहाने लगते हैं, शहरों में सीवर सिस्टम को जाम कर देते हैं और देहाती इलाकों में नालों में बरसों तक गंदगी को जमा होने देते हैं। इसी तरह खेतों की छीजन और सूखे कूड़े-कचरे को आग के हवाले कर देते हैं। इस सबके बदले में जब बीमारियां फैलती हैं, लोग मरने लगते हैं तो हम पर्यावरण को बचाने का झूठा शोर मचाने लगते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि यह हालत इसलिए हुई है कि इंसान ने कुदरत को अपने हाथ का खिलौना बनाने की कोशिश की, वह उससे डरना छोड़कर उसे अपने अधीन करने की हिमाकत करने लगा और अपने विनाश को स्वयं न्यौता देने लगा जिसे हम ‘आ बैल मुझे मार’ कह सकते हैं। 

जल और वायु 
दो शब्दों के मेल से बना जलवायु शब्द पर्यावरण की व्याख्या करने के लिए काफी है। यह दोनों या इनमें से एक भी न हो तो धरती पर जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। पृथ्वी का ईकोसिस्टम इन्हीं दो तत्वों पर आधारित है और उसके लिए इंसान का कोई मोल नहीं है। वह एक झटके में हजारों-लाखों जिंदगियों को लील सकता है। इसलिए इनसे डरे बिना इंसान की कोई गति नहीं है। कदाचित इसी कारण से प्राचीन काल से हमारे यहां इनकी पूजा होती आई है। ‘भय बिन होए न प्रीत’ इसी को कहते हैं। इनसे डरना छोड़कर मनमानी करने का नतीजा केदारनाथ में जल प्रलय, नदियों में भीषण बाढ़, बर्फीली चट्टानों के खिसकने से लेकर बेमौसम बरसात और न जाने कितने रूपों में हमें भुगतना पड़ता है।

पर्यावरण और प्रकृति से डरकर रहने का अर्थ यही है कि हम उनके अनुरूप अपने को ढाल तो सकते हैं लेकिन उनका मुकाबला करने की जुर्रत नहीं कर सकते। जिन देशों और समाज ने इस वास्तविकता को समझा, उन्होंने पर्यावरण को लेकर कुछ ऐसे कानून बनाए कि वे अनोखे आर्थिक लाभों का कारण बने, जीवन जीने लायक हुआ और जितने भी प्राकृतिक संसाधन थे, उनका दोहन न होने के कारण वे निरंतर फलदायी बने रहे। आज जितने भी विकसित देश हैं, उनकी आर्थिक सफलता और सामाजिक समृद्धि का यही मूल तत्व है कि उन्होंने कुदरत का आशीर्वाद तो लिया लेकिन कभी भी उससे टकराने की हिम्मत नहीं की।

यूरोप, अमरीका, आस्ट्रेलिया और एशिया के जिन देशों में औद्योगिकीकरण की शुरूआत से ही इस बात का ध्यान रखा गया कि लोगों को पीने का साफ पानी मिलने और सांस लेने के लिए शुद्ध हवा मिलने में कोई रुकावट न आने पाए तो वहां इसका दूरगामी परिणाम यह निकला कि लोग स्वस्थ और तरोताजा रहने के कारण अधिक समय तक काम करने के काबिल बने, बीमारियां न होने से इलाज का खर्च बचा और आमदनी बढऩे से जिंदगी जीने का मजा आने लगा। यह सब इसलिए सम्भव हो पाया कि ये देश पर्यावरण का मिजाज बिगाडऩे वाले किसी भी काम से न केवल दूर रहे, बल्कि अगर किसी ने ऐसा करने की कोशिश की तो उस पर कानून का शिकंजा कुछ इस तरह से कसा कि वह किसी भी प्रकार से बच न सके। 

उत्पादन और खपत 
उद्योग और कृषि किसी भी अर्थव्यवस्था का मूल आधार हैं। हमारे देश में इन दोनों के विकास और फैलाव को लेकर जो भी नीतियां बनीं उनमें पर्यावरण को केवल कागजी सम्मान दिया गया और प्रकृति का न केवल अनादर किया गया, बल्कि उसे नष्ट करने की जुर्रत दिखाकर उसे विनाशक बनने के लिए भी मजबूर कर दिया। यदि ऐसा न होता तो कल-कारखानों से निकले जहरीले रसायन नदियों को दूषित न कर पाते और उस पानी से सींची गई फसलें सेहत के लिए हानिकारक न होतीं। यही नहीं, रासायनिक कीटनाशकों का अंधाधुंध इस्तेमाल पेड़-पौधों के लिए जरूरी मित्रकीटों और पशुधन को ही नहीं, इंसान को भी खतरे में नहीं डाल पाता। 

जहां तक औद्योगिक उत्पादन और उसकी खपत का संबंध है, उसके लिए बनाई नीतियों और सदियों पुरानी परम्पराओं में पर्यावरण को सुरक्षित बनाए रखने को महत्व देते हुए जरूरी बदलाव करने होंगे क्योंकि इनका सीधा असर ऊर्जा, भोजन, स्वास्थ्य, परिवहन और रहन-सहन पर पड़ता है। 

आज औद्योगिक टैक्नॉलोजी और वैज्ञानिक अनुसंधान तथा उसके प्रचार-प्रसार का दौर है। पलक झपकते ही पूरी दुनिया हमारे सामने खुली किताब बन जाती है। क्या हम इस बात की अनदेखी कर सकते हैं कि हमारे घरों में अब पंछी क्यों नहीं चक्कर लगाते, पीने के पानी में ज्यादा फ्लोराइड होने से पीढिय़ों तक के हाथ-पैर और बदन टेढ़े-मेढ़े क्यों हो रहे हैं, नदी, तालाब से लेकर घर में नल का पानी पीने तक से डर क्यों लगता है, यहां तक कि खुलकर सांस लेने से खांसी से लेकर अस्थमा तक के शिकार हो जाते हैं। 

कारण और उपाय 
इसका कारण एक ही है कि हम पर्यावरण और प्रकृति का सम्मान करने को कोई महत्व नहीं देते, यहां तक कि उसकी अनदेखी कर अंगूठा दिखाने का काम करते रहते हैं और इस तरह अपनी असामयिक मृत्यु का आह्वान करते रहते हैं। इसका केवल एक ही उपाय है कि उसके कुपित होने से उत्पन्न प्रकोप से यदि बचे रहना चाहते हैं तो उससे डरना सीखें क्योंकि डर ही एक ऐसा शक्तिशाली प्रेरक तत्व है जो हमसे हमारी नीतियों और कार्यप्रणाली में परिवर्तन करा सकता है। 

जरा सोचिए, हमारा आदिवासी समुदाय, वनों में रहने वाली आबादी और सुदूर क्षेत्रों में बसी जनजातियां आधुनिक विकास से दूर होने पर भी अपने आप को सुरक्षित और आत्मनिर्भर क्यों समझती हैं? ऐसा इसलिए है क्योंकि वे पर्यावरण और प्रकृति को अपना हितैषी मानते हैं जबकि महानगरों, शहरों और कस्बों में रहने वाले इनसे शत्रुतापूर्ण व्यवहार करते हैं।-पूरन चंद सरीन
    

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