कुछ भूली-बिसरी यादें... (3) भारत के गरीबों को खरीदनी पड़ रही हैं महंगी दवाइयां

Edited By Updated: 15 Apr, 2021 04:20 AM

the poor of india have to buy expensive medicines

भारत की संसद में 1993 में ‘कमेटी पद्धति’ शुरू की गई। मैं कुछ समय स्थायी समितियों का सदस्य रहा परंतु अधिक समय मुझे उन समितियों में अध्यक्ष के रूप में काम करने का मौका मिला। जब कमेटी ‘जैनेरिक दवाइयों’ के उपयोग के संबंध में विचार कर रही थी, तो यह जान

भारत की संसद में 1993 में ‘कमेटी पद्धति’ शुरू की गई। मैं कुछ समय स्थायी समितियों का सदस्य रहा परंतु अधिक समय मुझे उन समितियों में अध्यक्ष के रूप में काम करने का मौका मिला। जब कमेटी ‘जैनेरिक दवाइयों’ के उपयोग के संबंध में विचार कर रही थी, तो यह जान कर मैं बड़ा हैरान हुआ कि जो कम्पनी सर्वप्रथम दवाई बनाती है, भारतीय पेटेंट कानून के अनुसार 20 वर्ष तक उस पर उसका एकाधिकार रहता है। उन दवाइयों को ‘ब्रांडेड दवाई’ कहते हैं। 20 वर्ष के बाद उस दवाई को कोई भी कम्पनी बना सकती है। इन्हें ‘जैनेरिक दवाई’ कहा जाता है। ये गुणवत्ता में वैसी ही होती हैं परंतु मूल्य बहुत कम होता है। ब्रांडेड और जैनेरिक दवाई के मूल्यों में अंतर के संबंध में यह तथ्य सामने आने पर कमेटी बहुत हैरान हुई। 

कैंसर की एक दवाई ‘सोरोफेविब’ पूरे उपचार के लिए दो लाख अस्सी हजार रुपए में ब्रांडेड मिलती थी। उस दवाई को जब हैदराबाद की एक भारतीय कम्पनी ‘नेटको’ जैनेरिक के रूप में बनाने लगी तो वही दवाई 8,000 रुपए में मिलने लगी। यह जान कर कमेटी को लगा कि विदेशी बहुराष्ट्रीय दवा कम्पनियां किस प्रकार भारत को लूट रही हैं। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष यह सामने आया कि ये दवाइयां विश्व भर को निर्यात होती हैं पर गरीब भारतीयों को ये सस्ती दवाइयां इसलिए नहीं मिलतीं क्योंकि भारत के अधिकांश डाक्टर कमीशन या अन्य लालच में  पर्ची पर केवल महंगी ‘ब्रांडेड’ दवाई लिखते हैं। 

उन्हीं दिनों मेरी धर्मपत्नी संतोष ने मुझे बताया कि दवाइयों बारे अभिनेता आमिर खान एक टैलीविजन सीरियल ‘सत्यमेव जयते’ बना रहे हैं। मैंने यह कार्यक्रम देखने के बाद कुछ सदस्यों से सलाह करके आमिर खान को अपने विशेषज्ञ डाक्टर के साथ कमेटी में चर्चा हेतु आने का निमंत्रण दिया और भारतीय संसद के इतिहास में पहली बार सिनेमा जगत का कोई कलाकार स्थायी समिति में विचार-विमर्श करने के लिए आया। आमिर खान अपने तीन विशेषज्ञ डाक्टरों के साथ कमेटी में आए और तीन घंटे तक लम्बा विचार-विमर्श हुआ। उससे पहले कमेटी इस निष्कर्ष पर पहुंची थी कि भारत में करोड़ों गरीबों तक सस्ती जैनेरिक दवा पहुंचाने का एक ही तरीका है कि कानून द्वारा देश के डाक्टरों को रोगी की पर्ची पर केवल जैनेरिक दवा लिखने को बाध्य किया जाए। हमें प्रसन्नता हुई कि आमिर खान और उनके सहयोगी भी इसी मत का समर्थन करने लगे। उनसे पता लगा कि विश्व के कुछ देशों में ऐसा कानून है और यदि कोई डाक्टर कानून का उल्लंघन करता है तो उसका लाइसैंस रद्द कर दिया जाता है। 

कमेटी ने सर्वसम्मति से रिपोर्ट दी। सारे तथ्य बताने के बाद यह लिखा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश में अच्छी सस्ती दवाई बनती है परंतु गरीबों को नहीं मिलती। जिस देश में करोड़ों गरीब दो वक्त की रोटी के लिए तरसते हों वहां उन्हें बीमारी के समय महंगी दवाई खरीदने को विवश करना बहुत अन्याय है। उन दिनों भारत के स्वास्थ्य मंत्री हिमाचल के श्री जगत प्रकाश नड्डा थे। उनसे मैंने सारी बात कही तो उन्होंने इस दिशा में कार्रवाई भी शुरू की परंतु कानून बनाने में मैडीकल काऊंसिल आफ इंडिया की तरफ से रुकावट डाली जाने लगी। मैंने इस संबंध में प्रधानमंत्री जी को एक विस्तृत पत्र लिखा। एक बार मिल कर भी उनसे चर्चा की।

श्री मोदी ने कहा कि सरकार बहुत जल्दी कानून बनाकर भारत के डाक्टरों को बाध्य करेगी कि वे रोगी की पर्ची पर ‘केवल जैनेरिक दवाई’ ही लिखें। उस दिशा में स्वास्थ्य विभाग कार्रवाई करने लगा। मुझे जानकर दुख हुआ कि काऊंसिल की रुकावट के कारण ही कानून नहीं बन रहा। चिंताजनक बात यह है कि दवाई उद्योग में बहुराष्ट्रीय विदेशी कम्पनियों का भारत सरकार पर कई दृष्टियों से प्रभाव है। 

इस बारे जब हम चर्चा कर रहे थे तो सदस्यों को प्रभावित करने की भी कोशिश की गई। एक कम्पनी के प्रमुख मुझे मिलने आए और कहा जैनेरिक दवाई की गुणवत्ता नहीं है इसलिए डाक्टर रोगी की पर्ची पर उन्हें नहीं लिखते। मैंने उन्हें कहा कि भारत की बनी ये दवाइयां यदि अमरीका खरीदता है तो भारत के गरीब व्यक्ति को क्यों नहीं मिलतीं? मेरे तर्क का उनके पास कोई उत्तर नहीं था। अंत में बोले कि दवा निर्माता निर्यात के लिए अच्छी दवाई बनाते हैं परंतु भारत के लिए उनकी दवाई पूरी गुणवत्ता वाली नहीं होती। उन कम्पनियों ने उन दिनों कई तरह से हमारा निर्णय प्रभावित करने की कोशिश की थी। मुझे प्रसन्नता है कि कुछ प्रदेशों में जैनेरिक दवा के लिए नियम बनाए गए हैं परंतु अब तक केंद्र सरकार ऐसा कानून नहीं बना पाई। दवाइयों के संबंध में कमेटी के सामने एक और तथ्य आया कि सरकार जिन दवाइयों का मूल्य तय  करती है उनमें अधिकतम मूल्य (एम.आर.पी.) लिखा जाता है। यह बात ध्यान में आई कि एम.आर.पी. बहुत अधिक लिखा जाता है जबकि विक्रेता को वह दवाई बहुत कम मूल्य पर मिलती है। 

कमेटी का यह मत बना कि मूल्य का निर्धारण दवाई की लागत मूल्य के आधार पर होना चाहिए। लागत पर दवाई निर्माता को उचित लाभ दिया जाए। विक्रेता का कमीशन भी रखा जाए परंतु मूल्य निर्धारण का आधार ‘लागत मूल्य’ होना चाहिए। कमेटी के इस सुझाव को भी स्वीकार नहीं किया गया। आज तक के अपने अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूं कि भारत के दवा उद्योग पर विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का इतना अधिक प्रभाव है कि स्थायी समिति के उचित व आवश्यक सुझाव स्वीकार नहीं किए गए। इसका सबसे दुखदायी परिणाम यह है कि भारत के गरीब लोगों को महंगी दवाई खरीदनी पड़ रही है।

Related Story

    Trending Topics

    IPL
    Royal Challengers Bengaluru

    190/9

    20.0

    Punjab Kings

    184/7

    20.0

    Royal Challengers Bengaluru win by 6 runs

    RR 9.50
    img title
    img title

    Be on the top of everything happening around the world.

    Try Premium Service.

    Subscribe Now!