‘काम नहीं तो वेतन नहीं’ का सिद्धांत संसद में भी लागू किया जाए

Edited By Pardeep,Updated: 10 Apr, 2018 03:56 AM

the principle of no work if not salary should be implemented in parliament also

संसद के बजट सत्र का परिणाम लिखी गई पटकथा के अनुरूप रहा है। यह सत्र अन्नाद्रमुक द्वारा कावेरी मुद्दे तथा तेदेपा और वाई.एस.आर. कांग्रेस द्वारा आंध्र प्रदेश को विशेष दर्जा दिए जाने की मांग को लेकर बिल्कुल नहीं चल सका। फलत: शोर-शराबे में विपक्ष का...

संसद के बजट सत्र का परिणाम लिखी गई पटकथा के अनुरूप रहा है। यह सत्र अन्नाद्रमुक द्वारा कावेरी मुद्दे तथा तेदेपा और वाई.एस.आर. कांग्रेस द्वारा आंध्र प्रदेश को विशेष दर्जा दिए जाने की मांग को लेकर बिल्कुल नहीं चल सका। फलत: शोर-शराबे में विपक्ष का अविश्वास प्रस्ताव भी कहीं खो गया। यह बताता है कि लोकतंत्र के इस पवित्र मंदिर का उपयोग तार्किक वाद-विवाद और विधायी कार्य की बजाय तुच्छ राजनीतिक लाभ के लिए किया जा रहा है। 

हालांकि हमारे सांसद शेखी बघारते रहते हैं कि वे संसदीय लोकतंत्र के सर्वोत्तम सिद्धांतों का पालन कर रहे हैं। हैरानी की बात यह है कि इस बजट सत्र के दौरान 24 लाख करोड़ रुपए से अधिक की अनुदानों की मांगें बिना किसी चर्चा के पारित हुईं। इस सत्र के दौरान 20 मार्च तक शोर-शराबे और स्थगन के कारण हमें 194 करोड़ रुपए की लागत चुकानी पड़ी क्योंकि संसद की उत्पादकता नगण्य रही। इस दौरान लोकसभा ने विधायी कार्य पर अपने समय का 1 प्रतिशत और राज्यसभा ने 6 प्रतिशत का उपयोग किया। 

यदि हम संसद के दोनों सदनों की उत्पादकता को देखें तो 168 घंटों में से लोकसभा ने 31.6 घंटे और राज्यसभा ने 7.4 घंटे कार्य किया। सरकारी आकलन के अनुसार हमारे लोकतंत्र के इस मंदिर के कार्यकरण पर प्रति मिनट की लागत अढ़ाई लाख रुपए है जबकि 168 घंटों में से दोनों सदनों ने लगभग 39 घंटे कार्य किया। इसका तात्पर्य है कि इस अवधि के लिए 252 करोड़ रुपए की राशि जो खर्च हुई उसमें से केवल 58 करोड़ उपयोगी रहे। फलत: इस विफल सत्र के लिए हम लोगों ने भारी रकम चुकाई। लोकसभा में प्रश्नकाल के लिए निर्धारित समय के केवल 16 प्रतिशत और राज्यसभा में केवल 5 प्रतिशत समय का सदुपयोग हो पाया है। 

यह निराशाजनक स्थिति राजग और विपक्ष के बीच की लड़ाई का परिणाम है। जहां राजग अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहता है वहीं विपक्ष अपनी राजनीतिक वैधता के लिए संघर्ष कर रहा है किंतु इस क्रम में राजग व विपक्ष दोनों ने ही संसद और उसकी संप्रभुता पर व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप से प्रहार किया है और इस क्रम में वे भूल जाते हैं कि संसद के कार्यकरण में बाधा डालकर हमारे सांसद लोकतंत्र को पूर्णत: नजरअंदाज कर रहे हैं क्योंकि संसद के सदनों को कार्य न करने देने से केवल विरोध की राजनीति पैदा होती है, जिसके परिणामस्वरूप देश में गंभीर मतभेद पैदा होते हैं तथा संसद के प्रति लोगों का मोह भंग होता है। इससे भी निराशाजनक बात यह है कि हमारे राजनीतिक दल और राजनेता निर्लज्ज होकर अपने पथ से भटक रहे हैं। वे नया अध्याय शुरू करना नहीं चाहते हैं और संसद के पतन को रोकना नहीं चाहते हैं। यह इस बात का द्योतक है कि भारत के लोकतंत्र में कितनी गिरावट आ गई है। यह संसदीय मूल्यों की सभी सीमाओं का उल्लंघन है। संसद को महत्वहीन बनाने के खतरनाक आयामों को ये लोग समझ नहीं पा रहे हैं। ऐसा लगता है कि संसद की सर्वोच्चता का स्थान गली-मोहल्ले के शोर-शराबे ने ले लिया है। 

संसद के प्रति हमारे सांसदों की अवमानना का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि दोनों सदनों के सत्रों की अवधि कम कर दी गई है। 1956 में संसद के दोनों सदनों की 151 बैठकें हुआ करती थीं, जो 1976 में आपातकाल के दौरान कम होकर 98 तक सीमित रह गईं और उसके बाद संसद की बैठकों की संख्या में निरंतर कमी आई। पिछले 10 वर्षों में इसकी औसतन प्रति वर्ष बैठकें 64 से 67 दिन तक रह गईं। इसके अलावा संसद में अनेक कानूनों को बिना चर्चा के पारित किया गया है जो अपने आप में संसदीय प्रणाली का दुरुपयोग है। रिकार्ड बताता है कि पिछले 10 वर्षों में 45 प्रतिशत विधेयक बिना चर्चा के पारित हुए और इनमें से 61 प्रतिशत सत्र के अंतिम 3 घंटों में पारित किए गए। यही नहीं, 31 प्रतिशत विधेयक संसद की स्थायी समितियों या परामर्शदात्री समितियों द्वारा जांच किए बिना पारित किए गए। तथापि विधेयकों को समिति को भेजना अनिवार्य नहीं है। 

संसद के प्रति शासक वर्ग की अवमानना का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि वे अन्य से अधिक पाने के ओरवेलियन सिंड्रोम से ग्रसित हैं और वे समझते हैं कि हर चीज पर उनका हक है। चाहे वह शानदार बंगला हो, बिजली, पानी, टैलीफोन हो, सुरक्षा हो, प्रतिवर्ष एम.पी.लैड के लिए 5 करोड़ रुपए हों या अन्य सुविधाएं। यही नहीं, पिछले 5 वर्षों में सांसदों का वेतन उनके द्वारा ही 4 बार बढ़ाया गया है। वे सामूहिक रूप से इस वेतन वृद्धि को स्वीकृति देते हैं और यह एक तरह की राजनीतिक वेश्यावृत्ति है। हैरानी की बात यह है कि गत 20 वर्षों में हमारे सांसदों की शैक्षिक योग्यता में निरंतर गिरावट आ रही है जबकि वे निरंतर अपने वेतन में वृद्धि की मांग कर रहे हैं। 

गत 20 वर्षों में डॉक्टरेट, पोस्ट डॉक्टरेट और स्नातकोत्तर डिग्री वाले सांसदों की संख्या में 62 प्रतिशत की गिरावट आई है। अत: समय आ गया है कि हमारे सांसद इस बात पर विचार करें कि जनता संसद का उपहास उड़ाए, उससे पहले वे संसदीय लोकतंत्र को मजबूत बनाने के प्रयास करें। इसका एक उपाय यह है कि नीतिगत मामलों और विधायी कार्यों के संबंध में सत्ता पक्ष व विपक्ष दलगत राजनीति से ऊपर उठकर विचार करें और पूर्णत: देश की आवश्यकता व सदन की भावना के अनुरूप कदम उठाएं, न कि नियम पुस्तिका के अनुसार चलें। साथ ही सांसद यदि किसी रचनात्मक कार्य में योगदान नहीं दे पाते हैं तो उनके वेतन में कटौती की जाए। क्या यह हास्यास्पद नहीं है कि सांसद 2000 रुपए का दैनिक भत्ता प्राप्त करता है तथा सदन में जाकर शोर-शराबा करता है जिस कारण संसद की कार्रवाई नहीं चल पाती है और अपने घर चले जाता है? हमें इस प्रवृत्ति को समाप्त करना होगा और उसके स्थान पर ‘काम नहीं तो वेतन नहीं’ के सिद्धांत को लागू करना होगा। 

संसद देश की जनता का प्रतिनिधित्व करती है और यह माना जाता है कि एक संप्रभु निगरानीकत्र्ता के रूप में वह राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए कार्य करे। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की संसद कोई कार्य न करे यह उसके लिए शोभनीय बात नहीं है। समय आ गया है कि हम नियमों में बदलाव लाएं और जवाबदेही सुनिश्चित करें। साथ ही सांसदों की योग्यताओं में बदलाव करें ताकि शिक्षित और ईमानदार सांसद संसद में प्रवेश कर सकें जो अपनी सेवा की बजाय जनता की सेवा करें। शायद संसद को आवश्यक सेवा अनुरक्षण अधिनियम ‘एस्मा’ के अधीन लाना उचित होगा जिसके अंतर्गत संसद के कार्यकरण में बाधा डालने को एक अपराध माना जाए। संसद के साथ खिलवाड़ जारी है और हमारे सांसद बिना किसी खेद या पश्चाताप के इसके कार्यकरण में गिरावट ला रहे हैं इसलिए समय आ गया है कि हमारी प्रणाली में आई खामियों को दूर करने के लिए तत्काल सुधारात्मक कदम उठाए जाएं। हमारे सांसदों को भी इस बात पर आत्मावलोकन करना चाहिए कि वे अपने पीछे किस तरह की विरासत छोडऩे जा रहे हैं। क्या वे संसद को बढ़ती गिरावट के बोझ तले दबने देंगे? 

यदि आवश्यक हो तो संसद को पुन: पटरी पर लाने के लिए नियमों में आमूल-चूल परिवर्तन किया जाए। इंदिरा गांधी ने एक बार कहा था, ‘‘संसद हमारे लोकतंत्र का मेहराब है और यदि वह खो गया तो मैं नहीं जानती कि फिर बाद में क्या होगा।’’ समय आ गया है कि हमारे राजनेता और सांसद उनकी बातों पर ध्यान दें तथा यह खेल खेलना छोड़ दें, अन्यथा हमें अपने लोकतंत्र को अलविदा कहना पड़ेगा।-पूनम आई. कौशिश

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