समस्या मतभेद की नहीं विचारों की है

Edited By ,Updated: 22 Mar, 2024 05:11 AM

the problem is not of differences but of ideas

जून 1975 में, जब आपातकाल लगाया गया था, मैं अपनी मैट्रिकुलेशन (कक्षा 10) की परीक्षा में बैठने वाला था। उन 2 वर्षों में, मेरे परिवार के कई सदस्यों को आंतरिक सुरक्षा रखरखाव अधिनियम (एम.आई.एस.ए)  के तहत गिरफ्तार किया गया था। तभी मैंने तय कर लिया कि मुझे...

जून 1975 में, जब आपातकाल लगाया गया था, मैं अपनी मैट्रिकुलेशन (कक्षा 10) की परीक्षा में बैठने वाला था। उन 2 वर्षों में, मेरे परिवार के कई सदस्यों को आंतरिक सुरक्षा रखरखाव अधिनियम (एम.आई.एस.ए)  के तहत गिरफ्तार किया गया था। तभी मैंने तय कर लिया कि मुझे आपातकाल के खिलाफ काम करना है। संघर्ष के वह 2 साल एक ऐसे इतिहास का हिस्सा हैं जिसे हम कभी नहीं भूल सकते। 

स्थिति चिंताजनक थी। अखबारों को सैंसरशिप का सामना करना पड़ रहा था। इन सबके बीच, एक बहादुर व्यक्ति, रामनाथ गोयनका, आपातकाल के खिलाफ संघर्ष करने के लिए हम सभी के लिए प्रेरणा बन गए। उस समय मैं महाराष्ट्र में था और लोकसत्ता से जुड़ा था। जिस दिन आपातकाल की घोषणा हुई, उसी दिन उनका संघर्ष शुरू हो गया। इस लड़ाई में उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ी। एक बार मुंबई में नानाजी देशमुख के साथ रहते हुए मुझे रामनाथ जी से मिलने का अवसर मिला। उन्होंने मुझ पर गहरा प्रभाव छोड़ा। हम सभी के जीवन में एक आवश्यक लड़ाई है-नैतिकता और सुविधा के बीच की लड़ाई। चाहे पत्रकारिता हो या राजनीति, हर क्षेत्र में इन दोनों में से किसी एक को चुनना हमारे विवेक को चुनौती देता है। 

महात्मा गांधी से प्रेरणा लेकर रामनाथ ने पत्रकारिता को अपनाया। एक बहुत ही उदाहरणात्मक कहावत है ‘मृत मछलियां प्रवाह के साथ बहती हैं; जो जीवित हैं वे धारा के विरुद्ध लड़ती हैं और यही जीवन का प्रमाण है।’ हमारा देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और इसके लोग हमारी राजनीति की प्रकृति पर चिंतन और चिंता दोनों करते हैं। विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका, मीडिया -इन 4 स्तंभों ने लंबे समय तक भारत में लोकतंत्र को कायम रखा है। मैं अक्सर सोचता हूं कि इन 4 व्यवसायों से जुड़े लोगों का आचरण ही लोकतंत्र की स्थिति तय करता है। 

हम दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था हैं। हमारे प्रधानमंत्री का सपना है कि हम 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनें और आत्मनिर्भर भारत का लक्ष्य हासिल करें। हम उस सपने के करीब जाने लगे हैं। लेकिन आॢथक प्रगति के साथ-साथ हमारी शिक्षा प्रणाली और समाज द्वारा दिए गए मूल्य नेताओं और लोगों का मार्गदर्शन करते हैं। स्वामी विवेकानन्द ने एक बार कहा था कि खाली पेट कुछ भी नहीं सिखाया जा सकता। धन, संसाधन के बिना समृद्धि नहीं हो सकती। लेकिन समृद्धि, संसाधन, सफलता और आर्थिक प्रगति भी जीवन का सब कुछ नहीं है। 1947 के बाद से, कई लोगों ने दृढ़ विश्वास के साथ लोकतंत्र और सामाजिक एकता के लिए संघर्ष किया है। जब भारत आजादी के 100 साल पूरे करेगा, तो लोकतंत्र को बचाने वालों के नाम सुनहरी स्याही में लिखे जाएंगे। रामनाथ जी निॢववाद रूप से उस सूची में हैं। 

मुझे याद है मेरी बाल्यावस्था में तब दत्ता सामंत ने इंडियन एक्सप्रैस में एक हड़ताल का नेतृत्व किया था। लेकिन कठिन परिस्थिति में भी रामनाथ जी डटे रहे और अपने सिद्धांतों के लिए लड़ते रहे। अंत में वह विजयी हुए।  आज, मेरा मानना है कि पत्रकारिता में सूचना के प्रसार से कहीं अधिक कुछ है। ज्ञान और प्रौद्योगिकी से लेकर कृषि और उद्योग तक, हम हर चीज के बारे में समाचार पत्रों से सीखते हैं। दो चीजें हैं जिनके बारे में मैं बहुत सोचता हूं पहला, नवाचार, उद्यमिता, विज्ञान, प्रौद्योगिकी, अनुसंधान कौशल और सफल अभ्यास सभी ज्ञान हैं, और इस ज्ञान को धन में परिवर्तित करना ही भविष्य है। 

दूसरी महत्वपूर्ण बात, जो किसी न किसी रूप में शिक्षा और हमारी संस्कृति से संबंधित है, वह यह विचार है कि कोई भी सामग्री बर्बाद नहीं होती और कोई भी व्यक्ति बेकार नहीं होता। उपयुक्त तकनीक और एक सक्षम नेता की दूरदर्शिता किसी भी ‘अपशिष्ट’ को धन में बदल सकती है। हमारे जैसे देश में जो तेजी से बदल रहा है, मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण है। अधिकांश लोगों को राजनीति के ‘किसने क्या कहा’ में कोई दिलचस्पी नहीं है। लेकिन नई पीढ़ी ज्ञान की भूखी है। वे विज्ञान और सफल अंतर्राष्ट्रीय प्रथाओं के बारे में सब कुछ जानना चाहते हैं और वे इस बात को लेकर चिंतित हैं कि पारिस्थितिकी और पर्यावरण की रक्षा कैसे की जाए। 

सोशल मीडिया ने दुनिया बदल दी है। हर कोई जानता है कि दुनिया भर में क्या हो रहा है। भविष्य में, मीडिया की हमारे समाज में और भी बड़ी भूमिका होगी। जिन युवा पत्रकारों ने विशेषज्ञता हासिल की है और पारिस्थितिकी और पर्यावरण तथा अन्य प्रासंगिक विषयों पर बड़े पैमाने पर काम किया है, और जिन्हें रामनाथ गोयनका पुरस्कार मिला है, वे भी अधिक योगदान दे सकेंगे। वास्तविक परिवर्तन तभी होगा जब समाज में गुणात्मक परिवर्तन होगा-सिर्फ एक क्षेत्र में नहीं बल्कि हर क्षेत्र में। 

फिर भी, जैसे-जैसे हम बदलते और विकसित होते रहते हैं, कुछ मूलभूत मूल्य समान बने रहने चाहिएं। केशवानंद भारती फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान की मुख्य विशेषताओं को बदला नहीं जा सकता। उसी प्रकार हमारे मूल्य, इतिहास, संस्कृति और विरासत भी स्थिर रहने चाहिएं। आधुनिकीकरण और पश्चिमीकरण में अंतर है। हम आधुनिकीकरण के पक्ष में हैं, समय के साथ सब कुछ बदलना चाहिए, लेकिन जिस ढांचे पर हमारा भारतीय समाज आधारित है, उसे कायम रखना हमारी जिम्मेदारी है। मतभेद कोई समस्या नहीं है मगर विचार संकुचित नहीं होने चाहिएं जिससे हमें बचना चाहिए। आजकल, हम न तो दक्षिणपंथी हैं और न ही वामपंथी हम सभी अवसरवादी हैं, और यह एक गंभीर मुद्दा है।-नितिन गडकरी (केंद्रीय सड़क, परिवहन और राजमार्ग मंत्री)

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