लोकतंत्र के लिए खतरनाक है दलबदल की सुनामी

Edited By ,Updated: 16 Mar, 2024 05:28 AM

tsunami of defection is dangerous for democracy

अर्से तक केंद्र में भी मंत्री रह चुके मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ तो भाजपा में जाते-जाते रुक गए, लेकिन कांग्रेस छोडऩे वाले कांग्रेसियों की फेहरिस्त लंबी होती जा रही है।

अर्से तक केंद्र में भी मंत्री रह चुके मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ तो भाजपा में जाते-जाते रुक गए, लेकिन कांग्रेस छोडऩे वाले कांग्रेसियों की फेहरिस्त लंबी होती जा रही है। नेहरू-गांधी परिवार के करीबी तक मुश्किल वक्त में साथ छोडऩे में संकोच नहीं कर रहे। राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा समापन की ओर है, पर इससे भी कांग्रेस का बिखराव थमने के बजाय और तेज होता नजर आया।

ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद और आर.पी.एन. सिंह जैसे नामों वाली फेहरिस्त में महाराष्ट्र के मिङ्क्षलद देवड़ा, अशोक चव्हाण और मध्य प्रदेश के सुरेश पचौरी तक जुड़ चुके हैं। 2014 में केंद्र की सत्ता से हटने के बाद ज्यादातर राज्यों की सत्ता से भी बेदखल कांग्रेस की मुश्किलें कम होने का नाम नहीं ले रहीं। देश की सबसे पुरानी पार्टी में दलबदल की जैसे सुनामी आई हुई है, उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। जब पीढिय़ों से कांग्रेसी रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री और पूर्व मुख्यमंत्री तक हाथ का साथ छोड़ रहे हैं, तब ऐसे पूर्व सांसद और पूर्व विधायकों की गिनती कर पाना भी आसान नहीं, जिन्होंने सत्ता राजनीति की हवा के साथ-साथ रास्ता बदल लिया।

आदर्श घोटाले में बदनाम हुए अशोक चव्हाण को कांग्रेस महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनाने से ज्यादा क्या दे सकती थी? मिङ्क्षलद और उनसे पहले उनके पिता मुरली देवड़ा को भी केंद्र में मंत्री बनाया ही था। सुरेश पचौरी कभी जनाधार वाले नेता नहीं रहे, पर जब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी, तब उनकी गिनती बेहद ताकतवर मंत्रियों में होती थी। जनाधारविहीन गुलाम नबी आजाद भी दशकों तक कांग्रेस आलाकमान का अंग माने गए।

ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद और आर.पी.एन. सिंह तो टीम राहुल के सदस्य ही माने जाते थे। जब संकट में ऐसे साथी भी साथ छोड़ जाएं, तब पिछले दिनों गुजरात और अरुणाचल में विधायकों तथा राजस्थान में 2 पूर्व मंत्रियों, एक पूर्व सांसद और 5 पूर्व विधायकों का कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हो जाना ज्यादा नहीं चौंकाता, पर रिश्ता तोडऩे के लिए जैसे कारण बताए जा रहे हैं, वे हास्यास्पद ज्यादा हैं।

राजस्थान में एक पूर्व मंत्री ने कहा कि अशोक गहलोत सरकार में कैबिनेट मंत्री तो बनाया गया, पर ट्रांसफर का अधिकार नहीं दिया गया। ट्रांसफर-पोस्टिंग  कितना बड़ा कारोबार बन चुका है सभी जानते हैं, पर यदि जनता के हित में मंत्री जी को यह दर्द था तो तभी क्यों नहीं मंत्री पद और पार्टी से इस्तीफा दे दिया? राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने टिप्पणी की कि जो नेता छोड़ कर जा रहे हैं, उन्हें कांग्रेस ने पहचान दी, केंद्र और राज्य में मंत्री बनाया, पार्टी में बड़े पदों पर बिठाया, लेकिन मुश्किल वक्त में वे पार्टी छोड़ कर भाग रहे हैं। ऐसी टिप्पणी पहली बार नहीं आई  है। जब भी किसी बड़े नेता ने पार्टी छोड़ी है, कांग्रेस ने बताया है कि उसे क्या-क्या दिया गया। 

बेशक दिया होगा, पर फिर सवाल उठते हैं क्या जो कुछ दिया, वे उसके लायक नहीं थे? लायक नहीं होने पर भी दिया तो देश, प्रदेश या पार्टी के हितों से खिलवाड़ क्यों किया? अगर लायक होने के चलते दिया, तो अब अहसान जताने का क्या अर्थ? वैसे सवाल यह भी उठता है कि नेताओं को पहचान देने का दावा करने वाली कांग्रेस को क्या खुद अपने नेताओं की सही पहचान नहीं? 

ये सवाल तब और भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं, जब आंकड़े बताते हैं कि 2014 के बाद से बड़ी संख्या में दलबदल करने वाले कांग्रेसियों में 35 प्रतिशत के आसपास तो सांसद-विधायक ही शामिल रहे। इनमें से 35 प्रतिशत विधायक भाजपा में गए। 20 प्रतिशत के आसपास कांग्रेस के चुनावी उम्मीदवारों ने भी पार्टी छोड़ी। वैसे तथ्य यह भी हैं कि कांग्रेस छोडऩे वाले सभी नेता भाजपा में नहीं गए। 

मसलन, महिला कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष रहीं सुष्मिता देव और फिल्म अभिनेता से राजनेता बने शत्रुघ्न सिन्हा ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस में गए। पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी में गए। मिलिंद देवड़ा भी शिंदे की शिवसेना में गए। एक और पूर्व केंद्रीय मंत्री अश्विनी कुमार ने निराश हो कर कांग्रेस तो छोड़ दी, पर किसी पार्टी में गए नहीं।

ऐसा भी नहीं कि भाजपा पर अपने नेताओं को साम-दाम-दंड-भेद से तोडऩे के आरोप लगाने वाली कांग्रेस दूसरे दलों के नेताओं को अपने दल में शामिल नहीं करती। महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नाना पटोले पूर्व भाजपाई हैं। दरअसल राजनीति में सत्ता लोलुपता एक वास्तविकता है। ज्यादातर नेता सिर्फ सत्ता में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हिस्सेदारी के आश्वासन अथवा फिर उसकी संभावना पर ही दलबदल या पाला बदल करते हैं, जैसे कि महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे एंड कंपनी या अजित पवार एंड कंपनी ने किया, पर ऐसे दलबदलुओं से परहेज किसी दल ने कभी नहीं किया।

आखिर कांग्रेस को धता बता कर तृणमूल कांग्रेस में चले गए शत्रुघ्न सिन्हा आए तो भाजपा से ही थे। अब जबकि लोकसभा चुनाव का माहौल है, दलबदल की रफ्तार और तेज हो सकती है।चुनाव जीतने की क्षमता के आधार पर राजनीतिक दल एक-दूसरे में सेंधमारी में संकोच नहीं करेंगे, तो टिकट न मिलने पर नेता भी दलबदल में देर नहीं लगाएंगे। विचारधारा जैसे असहज सवालों से हमारी राजनीति खुद को पहले ही मुक्त कर चुकी है। अब तो गले में पटका बदलने भर से दलबदल संस्कार पूर्ण हो जाता है। जाहिर है, जब तक राजनीतिक दल खुद तात्कालिक लाभ के लिए ऐसे दलबदलुओं पर दांव लगाने से परहेज नहीं करते, तब तक दलबदल का कैंसर भारत की राजनीतिक व्यवस्था और लोकतंत्र को अंदर से खोखला करता रहेगा। -राज कुमार सिंह

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