उत्तर प्रदेश और पंजाब में जीत का ‘दलित फैक्टर’

Edited By ,Updated: 29 Jul, 2016 02:06 AM

victory in uttar pradesh and punjab dalit factor

देश में इस समय दलित राजनीति अपने पूरे उबाल पर है क्योंकि अगले साल उत्तर प्रदेश और पंजाब में विधानसभा चुनाव होने हैं, जहां जीत का एक बड़ा फैक्टर हैं

(विजय विद्रोही): देश में इस समय दलित राजनीति अपने पूरे उबाल पर है क्योंकि अगले साल उत्तर प्रदेश और पंजाब में विधानसभा चुनाव होने हैं, जहां जीत का एक बड़ा फैक्टर हैं दलित। आखिर यू.पी. में करीब 22 फीसदी और पंजाब में करीब 35 प्रतिशत दलित वोटर हैं। गुजरात के उना में गौरक्षकों के हाथों दलितों की पिटाई पर सड़क से लेकर संसद तक हंगामा मचा था। 

 
राज्यसभा में भी मायावती के साथ-साथ कांग्रेस और विपक्ष के नेता भाजपा को घेरने में लगे थे। बात 19 जुलाई की है। राज्यसभा में ही ममता बनर्जी की पार्टी टी.एम.सी. के नेता डेरिक ओ ब्रायन मोबाइल पर आए मैसेज चैक कर रहे थे कि चौंक पड़े, यू.पी. में भाजपा के उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह की मायावती पर अभद्र टिप्पणी का वीडियो देखा। उन्होंने तुरंत मायावती को बताया। मायावती ने वीडियो बसपा नेता सतीश मिश्रा को दिखाने को कहा। सतीश मिश्रा ने वीडियो देखा, इसके सही होने की पुष्टि करवाई, इसके बाद मायावती ने तूफान ही खड़ा कर दिया। 
 
मायावती के इस तूफान ने मानो भाजपा की यू.पी. चुनाव की सारी रणनीति को बिखेर कर रख दिया। मायावती के लोग, ‘बहनजी के सम्मान में, बहुजन समाज मैदान में’ के नारे के साथ सड़कों पर उतरे लेकिन जोश ही जोश में पार्टी नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी की अगुवाई में दयाशंकर की मां और बारह साल की बेटी को निशाने पर ले लिया गया। बैकफुट पर आई भाजपा हक्की-बक्की थी लेकिन दयाशंकर की पत्नी स्वाति सिंह ने मोर्चा संभाला तो भाजपा भी ‘बेटी के सम्मान में, भाजपा मैदान में’ नारे के साथ आक्रामक तेवर दिखाने लगी। उधर सपा नेता और यू.पी. के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव दोनों दलों पर अपने तरीके से चुटकी लेने में लगे हैं।
 
इस सारे हंगामे का सीधा जुड़ाव है यू.पी. में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों से। अचानक ही दलित वोट बैंक की अहमियत बढ़ गई है। इसके साथ ही गैर दलित वोटों  की गोलबंदी की कोशिशें शुरू हो गई हैं। मायावती को दयाशंकर के बयान ने संजीवनी दी है। स्वामी प्रसाद मौर्य और आर.के. चौधरी जैसे नेताओं की बगावत के बाद मायावती अंदर से हिली हुई थीं। दयाशंकर का बयान आया तो मायावती ने सतीश मिश्रा जैसे ब्राह्मण नेता को पीछे रख नसीमुद्दीन सिद्दीकी जैसे मुस्लिम नेता को आगे बढ़ाया। 
 
मकसद यही था कि दलित के अपमान के मुद्देको एक मुस्लिम उछाले। 22 फीसदी दलित और 18फीसदी मुस्लिम वोट बैंक को एक साथ साधने की कोशिश। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने पिछले दिनों इलाहाबादमें एक दलित के यहां भोजन ग्रहण किया था। यू.पी. के दलितों की बदौलत ही पिछले लोकसभा चुनावों मेंभाजपा को 80 में से 73 सीटें मिली थीं, फिर भाजपा और संघ ने दलित सम्मेलन के नाम पर गैर-जाटव दलित वोट बैंक पर कब्जे की रणनीति बनाई थी। दयाशंकर ने इस पर पानी फेर दिया तो भाजपा ने अब रणनीति बदली है। दलितों और मायावती को बख्शो लेकिन नसीमुद्दीन को निशाने पर लो। इस बहाने धर्म के नाम पर धु्रवीकरण की कोशिश हो रही है।
 
भाजपा की कोशिश यही है कि उसे पूरा सवर्ण वोट एकमुश्त मिल जाए, जो कुल मिलाकर 25 फीसदी के बीच है। साथ ही ओ.बी.सी. में गैर-यादव वोट बैंक पर भी उसकी नजर है। ऐसा होने पर दलित वोटों से हुए नक्सान की भरपाई की जा सकती है। कांग्रेस ने भी शीला दीक्षित के रूप में एक ब्राह्मण को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर भाजपा को पशोपेश में डाला है। यू.पी. में करीब 12 फीसदी ब्राह्मण हैं जो  पिछले तीन दशकों से सत्ता में सीधी भागेदारी न मिलने से खफा हैं। जिस राज्य में एक-एक वोट की मारामारी हो, वहां भाजपा के लिए शीला दीक्षित को गंभीरता से लेना लाजिमी ही है। यहां उसकी चिन्ता दलित विरोधी छवि के विपक्ष के प्रचार-प्रसार से उभरना भी है। हैदराबाद विश्वविद्यालय के दलित छात्र रोहित वेमुला की खुदकुशी हो, मुम्बई में अम्बेदकर भवन का मामला हो या फिर गुजरात, यू.पी. का ताजा विवाद, भाजपा जानती है कि मायावती और मुलायम सिंह यादव इन मामलों को बड़ा चुनावी मुद्दा बनाने का माद्दा रखते हैं। 
 
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी इसे समझ रहे हैं, लिहाजा गोरखपुर की हाल ही की रैली में जातिवाद और परिवारवाद  के ऊपर विकासवाद का नारा देने में लगे रहे। संघ ने यू.पी. में गैर-यादव ओ.बी.सी. वोट में तो सेंध जरूरलगाई है लेकिन गैर-जाटव दलित वोटों के लिए उसे संघर्ष करना पड़ रहा है। संघ ने 1800 दलित बहुल गांवों में समरसता अभियान शुरू किया है। संघ को पता है कि सिर्फ  सवर्ण जातियों को एक कर सत्ता हासिल नहीं की जा सकती, लिहाजा हिन्दू का दायरा बढ़ाना है और उसमें दलितों, पिछड़ों को शामिल करना है। 
 
वैसे हैरानी की बात है कि यू.पी. में पिछले 10 सालों से दलितों-पिछड़ों की राजनीति करने वालों की सरकार रही है लेकिन दलितों पर अत्याचार कम नहीं हुए हैं। वहां करीब 4 करोड़ दलित हैं और पिछले साल दलितों के खिलाफ अपराध के 8 हजार मामले दर्ज किए गए। इसी तरह पिछले 20 सालों में 1 करोड़ 55 लाख की दलित आबादी के बिहार में दलितों के खिलाफ  अपराध के 7000 से ज्यादा मामले दर्ज हुए। 
 
यहां तक कि सवा करोड़  की  दलित आबादी वाले राजस्थान में भी दलितों पर अपराध के करीब 8000 मामले दर्ज हुए हैं। साफ है कि सत्ता में दल कोई भी हो, दलित दबंगों की दबंगई का शिकार रहे हैं और उनका वोट बैंक के रूप में ही इस्तेमाल होता रहा।
 
पंजाब में जट सिख मुख्यमंत्री बनते रहे हैं और दलित हाशिए पर ही रहे हैं लेकिन इस बार अरविन्द केजरीवाल की ‘आप’ भी मैदान में है। वह वाया गुजरात पंजाब में घुसने के फेर में हैं। गुजरात के उना में दलितों की पिटाई और कुछ की खुदकुशी की कोशिश में अरविन्द केजरीवाल और राहुल गांधी एक संभावना तलाश रहे हैं। हालांकि यह मौका दोनों को गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन ने ही दिया है। गौरक्षकों की तरफ  से दलितों की पिटाई के तुरंत बाद गुजरात सरकार चेती नहीं और मीडिया में मामला उछलने के बाद हरकत में आई लेकिन तब तक राजनीतिक नुक्सान उसे हो चुका था। गुजरात में भले ही करीब 7 फीसदी दलित हों और वे भी चुनावी गणित में निर्णायक असर नहीं रखते हों लेकिन चूंकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी गुजरात से आते हैं, लिहाजा पंजाब में चुनाव लड़ रही ‘आप’ इस मुद्दे को पंजाब में भुनाना चाहती है। पंजाब में कांग्रेस की नजर भी दलित वोट बैंक पर है। 
 
जानकारों का कहना है कि भाजपा से नाराज मायावती पंजाब में अगर कांग्रेस का साथ देती है तो अभी तक बैकफुट पर आई कांग्रेस वहां मुकाबले में आ सकती है। लेकिन बड़ा सवाल उठता है कि क्या मायावती अपने दलित वोट बैंक को किसी अन्य दल को उधार पर देने का जोखिम उठा सकती हैं। 
 
वैसे देश में इस समय 16.6 फीसदी दलित हैं। करीब 20 करोड़ की आबादी दलित उत्थान की तमाम चमकदार योजनाओं के बावजूद हाशिए पर है। सिर्फ  4 प्रतिशत दलित ही ग्रैजुएट हैं और 4 फीसदी तो हस्ताक्षर भी नहीं कर सकते। 54 फीसदी दलित बच्चे कुपोषित हैं। 27 फीसदी गर्भवती महिलाओं को ही बच्चा जनने की सुविधा किसी स्वास्थ्य केन्द्र में मिल पाती है। केन्द्र सरकार में उच्च पदों की बात करें तो 149 सचिव या ऊंचे पदों में एक भी दलित नहीं है। 108 अतिरिक्त सचिव पदों में से दो फीसदी पर दलित हैं। यहां तक कि 477 संयुक्त सचिवों में सात फीसदी ही दलित अफसर हैं। साफ है कि दलितों के सामाजिक आर्थिक उत्थान की बजाय राजनीतिक दल वोट बैंक के रूप में ही उन्हें लेते रहे हैं। आज दलितों की हालत गालिब के इस शे‘र की तरह हो गई है। देर नहीं, हरम नहीं, दर नहीं, आस्तां नहीं, बैठे हैं रहगुजर पे हम कोई हमें उठाए क्यों।
 
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