‘मी टू’ का मतलब क्या है

Edited By Updated: 19 Oct, 2018 05:03 AM

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तो नरेंद्र मोदी सरकार के उस मंत्री का इस्तीफा हो ही गया, जिसका निष्कासन होना चाहिए था। जो काम जब और जिस तरह होना चाहिए वह तभी और उसी तरह नहीं होता है तो वह अर्थहीन भी हो जाता है और श्रीहीन भी। विदेश राज्यमंत्री मुबशिर जावेद अकबर का मामला जिस वक्त...

तो नरेंद्र मोदी सरकार के उस मंत्री का इस्तीफा हो ही गया, जिसका निष्कासन होना चाहिए था। जो काम जब और जिस तरह होना चाहिए वह तभी और उसी तरह नहीं होता है तो वह अर्थहीन भी हो जाता है और श्रीहीन भी। 

विदेश राज्यमंत्री मुबशिर जावेद अकबर का मामला जिस वक्त फूटा और उसे गंधाने के लिए छोड़ दिया गया लेकिन सवाल यह है कि क्या प्रधानमंत्री की निजी और सरकारी छवि में रत्ती भर नैतिक इजाफा हुआ? क्या अकबर की अपनी छवि थोड़ी भी धुल सकी? क्या सत्ता के ऊंचे आसनों पर संयोगवश पहुंच गए किन्हीं लोगों को यह सारा प्रकरण थोड़ा भी सावधान कर सका? क्या किसी में भी प्रायश्चित का कोई भाव किसी स्तर पर भी जागा? 

हम इसी तस्वीर का रुख जरा बदल कर देखें। जैसे ही अकबर पर यह आरोप लगा, वहीं विदेश से ही अकबर ने कहा होता कि मैं अपना इस्तीफा प्रधानमंत्री को भेजता हूं (क्योंकि वह जानते थे और जानते हैं कि जो कुछ कहा जा रहा है वह शब्दश: सही है, भले वह उसे तब भी और अब भी गलत न मानते हों) और प्रधानमंत्री कहते कि अकबर भारत के कूटनीतिक प्रतिनिधि बन कर विदेश गए हैं, सो हम उन्हें तत्काल प्रभाव से बर्खास्त नहीं कर सकते हैं लेकिन भारत की धरती पर पांव रखते ही वह मंत्री नहीं रह जाएंगे, तो क्या संदेश जाता? अचानक ही संबंधों का यह जो बदबूदार परनाला बहा दिया गया है, वह सहम जाता, दूसरे सारे बेपर्दा अपराधी सिर झुका कर पीछे हट जाते और ‘मी टू’ की ताकत स्थापित हो जाती ! 

‘मी टू’ अब शब्द नहीं है, एक नया सहचारी भाव हमारे जमाने में दाखिल हुआ है। इसका मतलब यह नहीं है कि लड़कियां आगे आकर बताएं कि कब, कहां, कैसे, किसने उनका यौन शोषण किया। ‘मी टू’ का अर्थ यह भी है कि हम पुरुष आगे आ कर कहें कि अपनी नासमझी में, शक्ति के अपने उन्माद में, लड़कियों का सही मतलब नहीं समझने और मर्द होने का गलत मतलब समझने के कारण आज या कल या बीस वर्ष पहले मैंने ऐसी गर्हित हरकत की थी, जिसकी माफी मांगने और उसकी सजा भुगतने के लिए मैं सामने आता हूं। यह हुआ ‘मी टू’ का पूरा सांस्कृतिक मतलब ! यह चूंकि पश्चिम  से चल कर हमारे यहां आया है इसलिए इतना एकांगी और सपाट बना दिया गया है। इसे पुरुषों की पहल से परिपूर्ण कर हम पश्चिम को  वापस भेजें तो उन्हें भारतीय संदर्भ की समझ होगी। 

हमें समझना यह है कि गलत क्या है? स्त्री-पुरुष के बीच का आकर्षण गलत है? क्या किसी के लिए मन में प्यार का पनपना गलत है? आकर्षण में फिसल जाना भी स्वाभाविक नहीं है क्या? फिसलन किसकी तरफ से हुई, यह फिसलने वालों के बीच का मामला है, हमारे लिए यह जानना काफी होना चाहिए कि फिसलन हुई। फिसलने वाले को हाथ बढ़ा कर उठाते हैं, न कि गड्ढे में धकेलते हैं। जो धकेले वह समाज नहीं है, विवेकहीन भीड़ है। दो वयस्क स्त्री-पुरुष या दो वयस्क स्त्रियां या पुरुष आपसी सहमति व रजामंदी से, निजी जीवन में जो भी रिश्ता बनाते व चलाते हैं उसमें दखल देने का अधिकार किसी को भी नहीं है। धारा 497 को समाप्त करते हुए अदालत ने भी तो यही कहा न कि यह अधिकार उसका भी नहीं है। 

यह सारी बात पलट जाती है, जब इसमें जबरदस्ती का तत्व जुड़ जाता है-फिर वह जबरदस्ती तख्त की हो या तिजोरी की अथवा तलवार की। नाना पाटेकर या ऐसे ही दूसरे सब नानाओं को लगता है कि वे लोकप्रियता से मिली अपनी ताकत को तलवार बना लें और फिर जो चाहें करें। फिल्मी दुनिया तो टिकी ही इसी खोखली ताकत के सहारे है न! आपसी सहमति व इकरार से जिए जा रहे जीवन में कुछ भी अनैतिक नहीं होता है। अगर उसमें कुछ भी अनैतिक, असभ्य या अमानवीय हुआ तो वह दोनों में से किसी को, कभी भी नीचे गिराता हुआ, अपमानित करता हुआ लगेगा ही और उसी दिन उस अस्वस्थ रिश्ते का अंत हो जाएगा। ‘मी टू’ अगर स्त्री और पुरुष में इतना विवेक जगाता हो तो तमाम अकबरों को हम शहीद का दर्जा दे देंगे।-कुमार प्रशांत 

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