क्या यह है असली भारत की तस्वीर

Edited By ,Updated: 26 Oct, 2015 02:20 AM

what is the real face of india

बेशक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत को विश्व स्तर पर लाने के प्रयत्न कर रहे हैं तथा ‘डिजीटल इंडिया’ बनाने की घोषणा कर रहे हैं

बेशक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत को विश्व स्तर पर लाने के प्रयत्न कर रहे हैं तथा ‘डिजीटल इंडिया’ बनाने की घोषणा कर रहे हैं परंतु इस नारे को अंजाम तक पहुंचाने के लिए भारत को अभी बहुत लम्बा सफर तय करना पड़ेगा। इसका प्रमाण इसी से मिलता है कि आज भी भारत के अनेक गांव आधारभूत सुविधाओं से वंचित हैं। 

उदाहरण स्वरूप यदि आपको 1957 की नॢगस अभिनीत फिल्म ‘मदर इंडिया’ जैसा पिछड़ा गांव देखना है तो उत्तर प्रदेश में बांदा जिला के गांव माखनपुर चले जाएं। यह विश्वास करना कठिन है कि 2015 में भी माखनपुर जैसे गांव हो सकते हैं। लालटेन की रोशनी में जी रहे माखनपुर में रात को घुप्प अंधेरा ही नहीं फैला रहता बल्कि बिजली के अभाव ने इस गांव का सामाजिक ताना-बाना भी बदल डाला है।
 
 गांव की सड़कें बुरी तरह गड्ढे से भरी हैं। कई गड्ढे तो दो-दो, तीन-तीन फुट गहरे हैं जिन पर से गुजरना किसी अग्नि परीक्षा से कम नहीं। गांव में लगभग 150 कुंवारे हैं जिनमें से ज्यादातर 35 से 65 साल की उम्र के हैं जो इसलिए कुंवारे रह गए क्योंकि बिजली-पानी न होने से दूसरे गांवों के लोग इस गांव में अपनी बेटी ब्याहने को तैयार नहीं। 
 
इसी प्रकार का उत्तर प्रदेश के ही बिजनौर जिले में इच्छावाला नामक एक गांव ‘अनपढ़ों का गांव’ के रूप में प्रसिद्ध है। यहां की 90 प्रतिशत आबादी निपट अनपढ़ है और बाकी 10 प्रतिशत आबादी भी सिर्फ उर्दू में नाम ही लिख पाती है। बिजनौर, मुजफ्फरनगर और हरिद्वार की सीमा पर गंगा के किनारे बसे 1400 की आबादी वाले इस मुस्लिम बहुल गांव में कोई स्कूल नहीं है।
 
यहां के सिर्फ 2 लड़के आठवीं कक्षा तक पढ़े हैं जो गांव से बाहर कहीं और रहकर अपनी पढ़ाई कर रहे हैं। चूंकि यह गांव सड़क से भी जुड़ा हुआ नहीं है इसलिए गांव की लड़कियों ने तो कभी स्कूल का मुंह ही नहीं देखा। इस गांव के अधिकांश लोग मजदूर और किसान हैं। 15 वर्षों से गांव के प्रधान चले आ रहे मो. अख्तर भी अनपढ़ हैं व उन्हें गांव में किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में जानकारी नहीं है जो सही तरीके से लिख-पढ़ सकता हो।
 
अख्तर का कहना है कि 10-15 गांववासियों ने हाल ही में मोबाइल फोन खरीदे हैं लेकिन वे इनमें नम्बर ‘सेव’ करवाने के लिए भी दूसरे गांवों के लोगों के पास जाते हैं और नाम के स्थान पर तरह-तरह के चिन्ह इस्तेमाल करते हैं।
 
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के गांव ‘सेमलिया पठार’ में भी एक भी व्यक्ति साक्षर नहीं है। गांव के लोगों को चिठ्ठी पढ़वाने के लिए भी 5 कि.मी. दूर जाना पड़ता है। ‘शिक्षा का अधिकार’ कानून का इस गांव पर कोई असर नहीं पड़ा और निकटतम प्राइमरी स्कूल 7 कि.मी. दूर हैं। इस गांव में भी अनेक राजनीतिज्ञ आए और आश्वासन देकर चलते बने।
 
पेद्दाकुंता नामक ऐसा ही एक गांव तेलंगाना में भी है। इस गांव के बारे में विशेष बात यह है कि जहां सड़कें तरक्की के लिए एक वरदान मानी जाती हैं वहीं इस गांव के लिए सड़क अभिशाप और गांव की बर्बादी का कारण बन गई है। 
 
नैशनल हाईवे-44 की इस सड़क की वजह से इस गांव में बड़ी संख्या में महिलाएं विधवा हो गई हैं जिस कारण इस गांव को ‘विधवाओं का गांव’ भी कहा जाता है। बाईपास का काम करने वाली इस सड़क को ‘मौत का जाल’ भी कहते हैं।
 
यह सड़क पेद्दाकुंता गांव के बीच से गुजरती है। इस कारण गांववालों के घर एक ओर रह गए और मुख्यालय दूसरी ओर पहुंच गया, जहां वे मासिक पैंशन लेने और अन्य गांवों में काम पाने की उम्मीद में जाते हैं।
 
स्थानीय लोगों के अनुसार अब तक गांव के करीब 35 पुरुष यह सड़क पार करते समय यहां से गुजरने वाले वाहनों के नीचे दब कर मर चुके हैं। 23 वर्षीय कुर्रा अस्ली के अनुसार उसके पति की मौत भी सड़क दुर्घटना में हुई और भाई व पिता की भी। अब घर में कोई पुरुष नहीं बचा।
 
स्थानीय लोगों ने चार लेन के हाईवे को सुरक्षित तरीके से पार करने के लिए कई बार पैदल चलने वालों के लिए पुल या भूमिगत सुरंग बनाने की मांग अधिकारियों से की है लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई। एक अन्य महिला मानी के अनुसार, ‘‘कोई हमारी मदद नहीं करता। सब आते हैं, फोटो खींचते हैं और चले जाते हैं।’’
 
यह कहानी यहीं समाप्त नहीं होती। वास्तव में इस तरह के अनेक गांव हैं। ऐसे में ‘डिजिटल इंडिया’ की बातें करने या दूसरे विवादों में उलझने की बजाय यदि हमारी सरकार द्वारा इन जैसे गांवों को बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध करवा दी जाएं तो बेहतर होगा। 
 

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