कहां तक ले जाएगा ‘मी टू’ अभियान

Edited By Pardeep,Updated: 16 Oct, 2018 04:18 AM

where will take me too campaign

‘मी टू’  की आंच कई जगह पहुंचने लगी है और कहां-कहां पहंचेगी, कौन-कौन लपेटे में आएगा, यह कहना बहुत कठिन है। सिने जगत के बाद अब राजनीति भी उसकी आंच में आ गई है। सरकार ने गंभीरता से इसका संज्ञान लिया है। एक समिति बनाने का निर्णय किया है। कुछ फिल्मों की...

‘मी टू’  की आंच कई जगह पहुंचने लगी है और कहां-कहां पहंचेगी, कौन-कौन लपेटे में आएगा, यह कहना बहुत कठिन है। सिने जगत के बाद अब राजनीति भी उसकी आंच में आ गई है। सरकार ने गंभीरता से इसका संज्ञान लिया है। एक समिति बनाने का निर्णय किया है। कुछ फिल्मों की शूटिंग तक रुक गई है। टी.वी. चैनलों और मीडिया में इसकी चर्चा हो रही है। कुछ प्रमुख लोगों पर आरोप लगा और उन्होंने उसे झूठ कह कर अवमानना का मुकद्दमा करने की घोषणा कर दी। 

किसी महिला की विवशता का लाभ उठा कर उसका यौन शोषण एक घोर अपराध है, एक महापाप है। यह नारीत्व का अपमान है। समाज में ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि अपराधी को उसी समय सजा मिले। वर्षों पहले किस परिस्थिति व मन:स्थिति में किसने क्या किया और किसने क्या, क्यों सहा, आरोप सत्य भी हो सकता है और अद्र्धसत्य भी। कहीं प्रत्यक्ष या परोक्ष सहमति भी हो सकती है। इन सबको क्या वर्षों बाद न्यायालय में सिद्ध करना आज संभव होगा? आरोप-प्रत्यारोप, मुकद्दमे, अवमानना यही चलता रहेगा। इस सबसे पूरे वातावरण में एक काम चर्चा का प्रदूषण तो फैल ही जाएगा। जिस पर आरोप लगेगा एक बार समाज में उसका अपमान तो हो ही जाएगा। 

कुछ समय पूर्व किन्नर लोगों के संबंध में मीडिया में बहुत चर्चा हुई, उनके अधिकारों की समीक्षा हुई, कुछ निर्णय हुआ। कुछ समय यही विषय मीडिया में चर्चा में रहा। टी.वी. को दिन-रात चलना है। अखबारों में मसालेदार खबरें छपनी हैं। ऐसे समाचारों को प्राथमिकता मिल जाती है। समलैंगिक संबंधों के संबंध में लम्बी चर्चा चली, उनके अधिकारों पर आंदोलन हुआ। न्यायपालिका में लम्बी चर्चा हुई और अंत में उनके अधिकारों के लिए उनके पक्ष में निर्णय हुआ। उन लोगों ने जगह-जगह जश्र मनाया। मीडिया उन्हीं समाचारों से भरा रहा। ये संबंध पहले भी चलते थे, पर उस विकृति को समाज ने कभी स्वीकृति नहीं दी थी। अब स्वीकृति भी मिली है और एक सम्मान भी मिल गया है। 

विवाहेत्तर संबंधों की चर्चा का भी एक दौर चला। किसी पुरुष द्वारा विवाहित महिला के साथ यौन संबंध स्थापित करना भारतीय कानून के अनुसार एक अपराध था। नारी के अधिकारों की लड़ाई में इसे भी नारी के शोषण का रूप दिया गया और यह कहा गया- वह पत्नी है, किसी की गुलाम नहीं। खूब चर्चा हुई, न्यायपालिका ने व्यभिचार समझे जाने वाले इस कृत्य को भी मान्यता दी। यह भी मीडिया में छाया रहा। यौन शोषण के आरोप उपहास का कारण भी बन रहे हैं। युवा पुरुष व महिला लिव-इन-रिलेशंस में रह रहे हैं। अनायास महिला बलात्कार तक का आरोप लगा देती है। आखिर वे दो युवा एक ही घर में इकट्ठे क्या करने के लिए रह रहे थे? ‘मी टू’ के बहुत से आरोप किसी कारण सहमति बिगडऩे के कारण भी हो सकते हैं। किसी पुरानी शत्रुता को निकालने के लिए भी हो सकते हैं। 

इन सब घटनाओं से पूरा मीडिया मानवीय संबंधों के अति सूक्ष्म विषय सैक्स के संबंध में चर्चा से भरा रहा। यौन संबंध मनुष्य की एक बहुत बड़ी शक्ति और साथ ही बहुत बड़ी कमजोरी भी हैं। इस प्रकार के समाचारों को बढ़ा-चढ़ा कर खूब मसाला लगा कर चटखारे लेकर कहा जाता है, लिखा जाता है, सुना जाता है और पढ़ा भी जाता है। इन सब घटनाओं पर होने वाली चर्चा कहां कितनी उचित है, यह एक अलग प्रश्र है परन्तु काम और सैक्स के संबंध में इतनी अधिक चर्चा से नई पीढ़ी पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता। समाचारों से संस्कार का संतुलन पूरी तरह से बिगड़ जाता है। आज सिनेमा, टी.वी. और मीडिया में सैक्स और अपराध की जितनी अधिक चर्चा हो रही है उतनी शायद पहले कभी नहीं होती थी। इसी का परिणाम है कि समाज की व्यवस्था चरमराने लगी है और अपराध बढ़ते जा रहे हैं। परस्पर के मधुर और स्नेह संबंधों की तारें भी कहीं-कहीं टूटती नजर आ रही हैं। 

काम इस सृष्टि की सबसे शक्तिशाली ऊर्जा है। पुरुष और प्रकृति का आकर्षण आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है। उसके बिना सृष्टि हो ही नहीं सकती। यह आकर्षण ही सृजन का आधार है, परन्तु यही ऊर्जा जब संतुलन खो देती है तो विनाश का कारण भी बनती है। भारतीय चिंतन में काम को निंदनीय नहीं कहा गया। आचार्य रजनीश ने कहा है, ‘‘ऊर्जा यही है, यदि यह ऊपर जाएगी तो राम है और नीचे जाएगी तो काम है। ऊपर जाएगी तो उपासना और नीचे जाएगी तो वासना। बीच में संतुलन से रहेगी तो एक स्वस्थ संसार है।’’ भारत में धर्म और संस्कार इसी संतुलन को बनाकर रखते थे। आज यह संतुलन बिगड़ता जा रहा है। समाज के वातावरण, शिक्षा और संस्कार के प्रभाव से यही मनुष्य ऊपर उठते-उठते भगवान बन जाता है और नीचे गिरते-गिरते हैवान तथा शैतान बन जाता है। बीच में संतुलन से रहे तो अच्छा इंसान बन जाता है। 

आज की सामाजिक व्यवस्था में समाज संस्कारविहीन होता हुआ दिखाई दे रहा है। संस्कार देने की परम्पराएं टूटती जा रही हैं। दादा-दादी और नाना-नानी के पास बैठकर रामायण की कहानियां सुनना अब बीते समय की बात बन गई है। नई पीढ़ी को टी.वी. और मोबाइल से हटकर किसी और काम के लिए समय नहीं है। शिक्षा संस्थाओं में भी न तो नैतिक शिक्षा देने की व्यवस्था है और न ही शिक्षा देने वाले उतने आदर्श अध्यापक हैं। बच्चों का परस्पर खेलना, लडऩा-झगडऩा, सहयोग और सम्पर्क से व्यावहारिक जीवन की शिक्षा प्राप्त करना लगभग बंद हो गया है। शैशव की किलकारियां और बचपन की मस्ती टी.वी. और मोबाइल में सिमटती जा रही है।

विज्ञान और नई तकनीक एक वरदान है। आज मुठ्ठी में विश्व भर का ज्ञान समा गया है। परन्तु यह बात याद रखनी चाहिए कि विवेक के बिना विज्ञान विनाश भी बन सकता है। संस्कार और अच्छे व्यवहार की पुरानी परम्पराएं तो उखड़ रही हैं परन्तु संस्कारों के लिए नया कुछ हो नहीं रहा। निजता अभिशाप बनती जा रही है। लगता है सब चौराहे पर आ गया है। इन सब कारणों से टी.वी., मोबाइल व सोशल मीडिया में सैक्स व अपराध की बहुत अधिक चर्चा हो रही है। स्वभाव से मनुष्य और विशेषकर युवा इन दोनों में विशेष रुचि लेते हैं। हमेशा उन्हीं पर ध्यान रहने के कारण मनोवैज्ञानिक रूप से उनसे लगाव बढ़ रहा है। इसी कारण अपराध भी बढ़ रहे हैं। भगवान कृष्ण ने गीता में यही कहा था, ‘‘सदा बुरी बातों का ध्यान रहने से उन्हीं में लगाव बढ़ता है, उसी में बुद्धि भ्रष्ट होती है और फिर सब नष्ट होता है।’’ 

सिनेमा, मीडिया व सोशल मीडिया में काम व अपराध की चर्चा पर नियंत्रण करना आवश्यक है। बच्चों के हाथ में मोबाइल है और इंटरनैट में सब कुछ भर रखा है। एक तो ड्रग्स का नशा आ रहा है, उस पर मोबाइल का नशा और मोबाइल में काम, यौन व पोर्न पता नहीं क्या कुछ भरा पड़ा है। समाज व सरकार को इस विषय पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। अब संस्कार देने का काम समाज व परिवार शायद अधिक नहीं कर पाएगा। योग व नैतिक शिक्षा को एक अनिवार्य विषय बनाना चाहिए। प्रारम्भ से योग, प्राणायाम व नैतिक शिक्षा नई पीढ़ी को संस्कार देने का काम कर सकते हैं।-शांता कुमार

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