संवैधानिक नैतिकता की कौन परवाह करता है

Edited By ,Updated: 27 Mar, 2024 05:07 AM

who cares about constitutional morality

जुलाई 2023 : महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री फडऩवीस का कहना है ‘‘राजनीति में आदर्शवाद अच्छी बात है, किंतु यदि तुम्हें बाहर कर दिया जाता तो फिर कौन परवाह करता है। मैं यह वायदा नहीं कर सकता कि मैं शत-प्रतिशत नैतिक राजनीति करूंगा।’’

जुलाई 2023 : महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री फडऩवीस का कहना है ‘‘राजनीति में आदर्शवाद अच्छी बात है, किंतु यदि तुम्हें बाहर कर दिया जाता तो फिर कौन परवाह करता है। मैं यह वायदा नहीं कर सकता कि मैं शत-प्रतिशत नैतिक राजनीति करूंगा।’’ मार्च 2024: दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल कहते हैं, मैं जेल से शासन करूंगा। संविधान में ऐसा कहां लिखा गया है कि कोई मुख्यमंत्री जेल से शासन नहीं कर सकता। 

‘आप’ अध्यक्ष को गुरुवार को प्रवर्तन निदेशालय द्वारा दिल्ली शराब नीति 2021 में अनियमितताओं और रिश्वतखोरी में उनकी भूमिका के लिए दिए गए 9 सम्मनों को नजरंदाज करने के बाद गिरफ्तार किया गया। अब यह शराब नीति निरस्त कर दी गई है। यह बड़ी विचित्र विडंबना है कि भ्रष्टाचार का विरोध करने वाला व्यक्ति भ्रष्टाचार के आरोपों में गिरफ्तार किया जाता है। 

नि:संदेह इस मामले के गुणागुण पर न्यायालय निर्णय करेगा और कानून अपना कार्य करेगा, किंतु बड़ा प्रश्न यह नहीं है कि केजरीवाल त्यागपत्र देते हैं या नहीं। न ही यह कि तमिलनाडु में दोषसिद्ध मंत्री, जिनकी सजा पर उच्चतम न्यायालय ने रोक लगा दी है, वह मंत्री पद की शपथ लेंगे, किंतु बड़ा मुद्दा संवैधानिक नैतिकता और आने वाले चुनावों तथा आने वाले वर्षों में लोकतांत्रिक मूल्यों की नैतिकता पर इसका प्रभाव है। इसके साथ ही यह लोकतंत्र के बारे में भी अप्रिय प्रश्न उठाता है कि इससे हमारे उन नेताओं की चेतना नहीं जागती, जिन्होंने रिश्वत को एक हास्यास्पद राजनीतिक पुरस्कार बना दिया है? उनमें इस मुद्दे को लेकर शर्म या आक्रोश नहीं है, कि क्या कोई व्यक्ति भ्रष्टाचार के मामले में समझौता कर सकता है? 

क्या राजनीति शासन और सत्यनिष्ठा के मुद्दों से समझौता करने के लिए बाध्य करती है? क्या यह राजनीतिक धर्म का अंग है? आज राजनीति का सरोकार केवल स्वीकार्यता से है। इसका विश्वसनीयता और सार्वजनिक जीवन से कोई सरोकार नहीं है और यह समझौतों का खेल बन गया है। राजनेता नैतिकता के बारे में बड़े-बड़े उपदेश देते हैं, किंतु उनका पालन नहीं करते। भारत में राजनीति का नैतिकता, जवाबदेही और स्वस्थ परिपाटियों से कोई लेना-देना नहीं। इस चुनावी मौसम में सत्ता और दाग साथ-साथ दिखाई दे रहे हैं और लोग दुविधा की स्थिति में हैं। 

पिछले कुछ महीनों में झारखंड, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल में प्रवर्तन निदेशालय और सी.बी.आई. ने विपक्षी नेताओं के विरुद्ध अनेक मामले दर्ज किए और उनकी गिरफ्तारी की गई। झारखंड के मुख्यमंत्री सोरेन और भारत राष्ट्र समिति की नेता कविता की गिरफ्तारी भी की गई। नेहरू युग के बाद संवैधानिक नैतिकता की नई परिभाषा बन गई है। नेहरू युग के दौरान एक छोटी-सीे रेल दुर्घटना पर मंत्री त्यागपत्र दे देते थे। एक मंत्री का कहना है ‘‘मैं किसी अधीनस्थ की गलती के लिए दोषी घोषित नहीं किया जा सकता, अन्यथा प्रधानमंत्री की मेज पर हर दिन मंत्रियों के त्यागपत्र के ढेर लग जाएंगे।’’ 

स्पष्ट है कि केजरीवाल आज जो बयान दे रहे हैं, वह राजद अध्यक्ष लालू यादव की याद दिला देते हैं, जिन्हें 1997 में चारा घोटाले के लिए चार्जशीट किया गया था। उस समय बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और केन्द्रीय रेल मंत्री ने कहा था कि संविधान में ऐसा कहां कहा गया है कि जनता द्वारा निर्वाचित मुख्यमंत्री पुलिस कर्मियों द्वारा केवल चार्जशीट करने पर त्यागपत्र दे दे। सी.बी.आई. या केन्द्र सरकार मुझसे ऐसा कहने वाले कौन होते हैं? यदि मुझे जेल हुई तो मैं जेल से शासन करूंगा। कौन सी नैतिकता और भ्रष्टाचार की बात कर रहे हैं? राजनीति का नैतिकता से क्या लेना देना है? उसके बाद उन्होंने हालांकि त्यागपत्र दे दिया था किंतु अपनी पत्नी राबड़ी को मुख्यमंत्री बना दिया था। हमारे नेतागणों के नैतिक शब्दकोष में राजनीति का सरोकार केवल स्वीकार्यता से है। इसका सरोकार विश्वसनीयता से नहीं और उनके अनुसार सार्वजनिक जीवन में समझौते किए जाते हैं। 

आप कुछ भी कह लें, किंतु राजनीतिक शब्दकोष में नैतिकता, ईमानदारी, सत्यनिष्ठा जैसे शब्द आप नहीं ढूंढ सकते। आज नेताओं ने राजनीति प्रेरित आरोपों और वास्तविक दोषसिद्ध के बीच एक महीन अंतर ढंूढ लिया है। सत्ता का ऐसा नशा चढ़ा हुआ है कि सब इसे नजरंदाज कर देते हैं। इसे विपधन कह देते हैं या इसके साथ ही जीते हैं। यही नहीं, यदि आप जानी दुश्मन हैं तो फिर आप चोर हैं और शासन करने के योग्य नहीं हैं। आप सुशासन या ईमानदार शासन भी नहीं दे सकते हैं। यदि जिगरी दोस्त हैं तो फिर सर्फ की सफेदी की चमकार के विजेता हैं, जो कोई पाप नहीं कर सकता और जो अपनी ईमानदारी को सिद्ध करने के लिए किसी भी सीमा तक जा सकता है। 

इस आपसी लेन-देन की संस्कृति में हमारी राजनीति की सामूहिक चेतना इसको और बढ़ावा देती है। दाग! आप क्या बात कर रहे हैं। इसमें कोई सी बड़ी बात है? इसके बारे में अज्ञानता प्रकट कर देते हैं या उनके भ्रष्ट कार्यों के बारे में मूक, बधिर, अंधे बन जाते हैं। आज ईमानदार वही है जो पकड़ा नहीं गया है। आज प्रत्येक दल और उनके नेताओं ने अवसरवाद और झूठ बोलने की कला में महारत हासिल कर ली है। यह एक सत्ता का खेल है। जब व्यक्तित्व आधारित दुष्प्रचार लोकतंत्र की मुख्य पहचान बन गया है। आज राजनीति में राजनेता सांझी विचारधारा या सांझे उद्देश्यों के लिए एकजुट नहीं होते। वे इस खेल में आज इतने व्यस्त हैं कि कोई भी अपने कार्यों के परिणामों के बारे में नहीं सोचता। 

सत्ता बांटो और तमाशा देखो और आज गद्दी सबसे महत्वपूर्ण बन गई है। क्या ऐसा नहीं लगता है कि स्वच्छ राजनेता एक विरोधाभास बन गया है और सबसे दुखद बात यह है कि इस सबको देखकर किसी की चेतना जागृत नहीं होती। आज सभी प्रत्यक्ष बिक्री की राजनीति के सिद्धान्तों का अनुसरण करते हैं। किसी के पास भी आम आदमी की कठिनाइयों और कष्टों के प्रश्नों पर विचार करने का समय नहीं है, जो महंगाई और बेरोजगारी से जूझ रहा है। 

यही नहीं, हम भी नैतिक जिम्मेदारी की मांग तब करते हैं जब हमें कष्ट होता है। इस बाजार में यह विश्वास करना अनुचित है कि नेता विचारधारा से शासित होते हैं। नेताओं में लोगों की कल्पना को उड़ान देने की प्रवृत्ति है, जिसके चलते प्रदूषित और भ्रष्ट राजनीति आगे बढ़ती जा रही है। आज भारत एक नैतिक चौराहे पर खड़ा है। प्रश्न है कि क्या अनैतिकता और दागों को हमारे संसदीय लोकतंत्र का आधार बनने की अनुमति दी जा सकती है? क्या ऐसे लोगों को मंत्री बनाना हमारे लोकतंत्र के हित में है, जिनसे नेतृत्व करने की अपेक्षा की जाती है, जो विघटनकारी बन जाते हैं। तो समय आ गया है कि इस दिशा में कुछ सुधारात्मक कदम उठाए जाएं।  

इस अनैतिक राजनीतिक मरुस्थल और निर्जन चर्चा में मतदाताओं को कठिन विकल्प चुनने होंगे। हम केवल यह कहकर  अपनी जिम्मेदारियों से नहीं बच सकते कि यह राजनीतिक कलयुग है। इसलिए झूठ, धोखा और प्रवंचना के इस खेल में भाजपा, कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों को आज के भारत की उभरती सच्चाई को ध्यान में रखना होगा। सत्ता सब कुछ है और आप कह सकते हैं कि लोकतंत्र इसी से जुड़ा हुआ है। चुनौती हमारी शासन प्रणाली में आमूल-चूल बदलाव लाने की है। राजनीति के संचालन में नैतिकता, मूल्य, विश्वसनीयता, सत्यनिष्ठा और विश्वास होना आवश्यक है। राजनीति बदमाशों का अंतिम अड्डा है, के लिए कोई गुंजाइश नहीं रहनी चाहिए क्योंकि इस देश को सबसे महंगा सस्ता राजनेता पड़ता है। इस संबंध में प्रो. गालब्रेथ के शब्द उल्लेखनीय हैं, ‘‘भारतीय कानूनों या इसके राजनीतिक और न्यायिक संस्थानों में कुछ भी गलत नहीं है। भारत में बड़ी समस्या नैतिक गरीबी है।’’ क्या कोई राष्ट्र शर्म और नैतिकता की भावना के बिना रह सकता है और यदि रह सकता है तो कब तक?-पूनम आई. कौशिश
 

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