हमारे जनसेवक अपना टैक्स खुद क्यों नहीं भरते

Edited By ,Updated: 24 Sep, 2019 12:46 AM

why don t our public servants pay their own taxes

राजनीति व्यक्तिगत लाभ के लिए सार्वजनिक आचरण है और पिछले सप्ताह यह बात तब सच्ची साबित हुई जब यह समाचार मिला कि 7 राज्यों में मुख्यमंत्रियों और उनके मंत्रिपरिषद के सदस्यों के आयकर का भुगतान सरकारी खजाने से किया जाता है। मंत्रियों को वेतन और अन्य भत्ते...

राजनीति व्यक्तिगत लाभ के लिए सार्वजनिक आचरण है और पिछले सप्ताह यह बात तब सच्ची साबित हुई जब यह समाचार मिला कि 7 राज्यों में मुख्यमंत्रियों और उनके मंत्रिपरिषद के सदस्यों के आयकर का भुगतान सरकारी खजाने से किया जाता है। मंत्रियों को वेतन और अन्य भत्ते तो मिलते ही हैं किन्तु पिछले 40 वर्षों से उनके आयकर का भुगतान भी किया जा रहा है। क्यों? क्योंकि वे गरीब हैं। क्या आप हमें बेवकूफ बना रहे हैं? इस कुप्रथा की शुरूआत 1981 में उत्तर प्रदेश में राजा साहेब वी.पी. सिंह ने इस आधार पर की कि उनके मंत्री बहुत गरीब हैं। उनकी आय बहुत कम है और वे कर नहीं दे सकते हैं। और उसके बाद अब तक 19 मुख्यमंत्रियों और लगभग एक हजार मंत्रियों ने अपने कर को बचाया है। 

पिछले वर्ष मंत्रियों के कर का बिल 86 लाख रुपए था। उत्तर प्रदेश ही नहीं पंजाब, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा, हिमाचल और छत्तीसगढ़ में भी यह कुप्रथा है। यह अलग बात है कि मध्य प्रदेश के कांग्रेसी मुख्यमंत्री कमलनाथ की आय 206 करोड़ रुपए है और उनके पूर्ववर्ती शिवराज सिंह चौहान की 6 करोड़ रुपए, पंजाब में कांग्रेसी मुख्यमंत्री अमरेन्द्र सिंह की 48 करोड़ रुपए और छत्तीसगढ़ में कांग्रेसी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की 23 करोड़ रुपए, हिमाचल में भाजपा के जयराम ठाकुर की 3 करोड़ रुपए और उत्तर प्रदेश के भाजपाई योगी आदित्यनाथ की 1 करोड़ रुपए है। बसपा की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती की 111 करोड़ रुपए और सपा के अखिलेश यादव की 37 करोड़ रुपए है। 

आजीवन बंगला व पैंशन
यही नहीं कुछ राज्यों में पूर्व मुख्यमंत्रियों के लिए आजीवन बंगले और पैंशन का प्रावधान किया गया है। यह स्थिति तब है जब 25 से अधिक मुख्यमंत्रियों ने अपनी आय 1 करोड़ रुपए से अधिक घोषित की है। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन रैड्डी ने अपनी आय 375 करोड़ रुपए घोषित की है तो दो अन्य मुख्यमंत्रियों ने 100 करोड़ रुपए से अधिक घोषित की है जबकि 6 मुख्यमंत्रियों ने 10-50 करोड़ रुपए और 17 मुख्यमंत्रियों ने 1 से 10 करोड़ रुपए घोषित की है। केन्द्र में प्रधानमंत्री मोदी की मंत्रिपरिषद में 51 मंत्री करोड़पति हैं जिनकी औसत सम्पत्ति 21.7 करोड़ रुपए है। 4 मंत्रियों ने अपनी सम्पत्ति 40 करोड़ रुपए से अधिक घोषित की है। शिरोमणि अकाली दल की हरसिमरत कौर बादल ने 217 करोड़ रुपए, भाजपा के पीयूष गोयल ने 95 करोड़ रुपए, राव इन्द्रजीत सिंह ने 42 करोड़ रुपए और अमित शाह ने 40 करोड़ रुपए की सम्पत्ति घोषित की है। इससे आम आदमी के मुंह का स्वाद बिगड़ गया है जो पहले ही महंगाई और बेरोजगारी की मार झेल रहा है। 

नहीं रहे शास्त्री और गुलजारी लाल जैसे नेता
इससे अनेक प्रश्न उठते हैं कि हमारी जनता के सेवक अपना कर स्वयं क्यों नहीं दे सकते? और वह भी तब जब उनमें अधिकतर करोड़पति हैं। क्या हमारे मंत्री असली भारत की वास्तविकता को जानते हैं? जिसकी रक्षा करने की वे कसमें खाते हैं। क्या वे इसकी परवाह करते हैं? जनता द्वारा, जनता का और जनता के लिए लोकतंत्र का क्या होगा? यही नहीं उनकी आय की घोषणा भी केवल दिखावा है। एक जमाना था जब हमारे देश में लाल बहादुर शास्त्री और गुलजारी लाल नंदा जैसे नेता थे जिनके पास एक फूटी कौड़ी भी नहीं थी जबकि आज के नेताओं ने इतनी सम्पत्ति कैसे अर्जित की है। उन्होंने काला धन विदेशों में जमा किया है। 

पूर्व केन्द्रीय गृह और वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम इसका उदाहरण है। स्कूल अध्यापिका से दलित मसीहा बनी मायावती अपनी विशाल सम्पत्ति को इस आधार पर उचित ठहराती हैं कि यदि ठाकुर और ब्राह्मण करोड़पति हो सकते हैं तो फिर दलित क्यों नहीं? उन्हें होना भी चाहिए किन्तु जब उनके जगमगाते हीरों के हारों के बारे में पूछा जाता है तो वह कहती हैं कि ये उन्हें उनके गरीब भक्तों ने प्रेमपूर्वक भेंट किए हैं। यही स्थिति तेदेपा के चंद्रबाबू नायडू की भी है जिनकी सम्पत्ति 177 करोड़ रुपए है। मुस्लिम मसीहा मुलायम सिंह और चारा घोटाले के आरोपी लालू यादव की भी करोड़ों रुपए की सम्पत्ति है। वास्तव में, राजनेता बनने से बहुत लाभ मिलते हैं। 

कुछ लोग इसे ‘मैं आपसे अधिक समान हूं’ के ओरवेलियन सिंड्रोम मानकर खारिज कर देते हैं और इसे औपनिवेशिक और सामंती सोच का परिणाम कहते हैं किन्तु हमारे सारे वी.आई.पी. ऐसे ही हैं। उनमें ओलिवर डिसऑर्डर है जो हमेशा और अधिक की मांग करते रहते हैं और अपने हक की हमेशा बढ़-चढ़कर रक्षा करते हैं। जो हमेशा सत्ता और सार्वजनिक संसाधनों का दुरुपयोग करते हैं। 

हालांकि एक नेता पर करदाता प्रति माह 3.12 लाख रुपए खर्च करते हैं। हमारे नए महाराजाओं को मिलने वाली सुविधाओं की सूची बहुत लम्बी है। भव्य सप्त सितारा बंगले मिले हुए हैं जहां पर बड़े-बड़े लॉन हैं और जहां वे गेहूं और सब्जियां भी उगा सकते हैं। उन्हें फर्नीचर, एयर कंडीशनर, इंटरनैट, बिजली, पानी सब मुफ्त मिलता है और इसके लिए करदाता प्रति वर्ष 60 करोड़ रुपए अतिरिक्त खर्च करते हैं। यही नहीं उन्हें सरकारी खर्चे पर देश-विदेश की यात्राएं भी कराई जाती हैं, हवाई अड्डों पर खान-पान की सुविधाएं नि:शुल्क दी जाती हैं। उन्हें सरकारी वाहन में आने-जाने की सुविधा दी जाती है। इसके अलावा परिवहन भत्ता, चिकित्सा उपचार जैसी सुविधाएं भी मुफ्त मिलती हैं। कार खरीदने के लिए अग्रिम दिया जाता है और प्रति वर्ष 4 हजार किलो लीटर पानी और 50 हजार यूनिट बिजली मुफ्त मिलती है। फर्नीचर के रख-रखाव के लिए 30 हजार रुपए, तीन टैलीफोन के लिए प्रति वर्ष डेढ़ लाख नि:शुल्क कॉल, इसके अलावा प्रत्येक तिमाही सोफा कवर और धुलाई का खर्चा और अंगरक्षक उपलब्ध कराए जाते हैं। 

जनसेवकों को सुरक्षा की जरूरत क्यों
क्या हमारे जनसेवकों को जो जनता की सेवा करने की कसम खाते हैं, जनता से सुरक्षा के लिए सिपाही की आवश्यकता है? और इस सबका खर्चा आम आदमी द्वारा वहन किया जाता है जो अपने अन्नदाता से कुछ कृपा प्राप्त करने का अनुरोध करता रहता है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि नेताओं को विशेष दर्जा दिया जाना चाहिए किन्तु लोकतांत्रिक शासन का मूल सिद्धांत है कि सभी नागरिकों को समान माना जाए जहां पर यदि आम आदमी कर देता है तो मंत्री भी कर दें।

वे इन नि:शुल्क सुविधाओं को अपना जन्म सिद्ध अधिकार नहीं कह सकते हैं जिनके चलते आम आदमी और खास आदमी में खाई बढ़ती जा रही है और आम आदमी का शासकों से मोह भंग हो रहा है फलत: जनता अवज्ञा करने लगी है। त्रासदी यह है कि जहां एक ओर हमारा देश 21वीं सदी में प्रवेश कर चुका है वहीं हमारे सत्तारूढ़ नए महाराजा अभी भी 19वीं सदी के भारत में जीना चाहते हैं जहां पर वे किसी भी नियम को मानना नहीं चाहते और कानून द्वारा शासन करना चाहते हैं। उनके लिए कोई पहचान पत्र नहीं, कोई सुरक्षा जांच नहीं, कोई कतार नहीं, उनकी गाडिय़ां रैड लाइट जम्प कर सकती हैं और यदि कोई उनके इन कारनामों पर उंगली उठाए उसे उनका कोपभाजन बनने के लिए तैयार रहना चाहिए। 

परजीवी बन कर न रहें
वास्तव में, हमारे लोकतंत्र में ‘आप नहीं जानते मैं कौन हूं’ की वी.आई.पी. संस्कृति पुरानी पड़ चुकी है और आज 130 करोड़ जनता इन अन्नदाताओं की आज्ञा पालक नहीं हो सकती और ऐसा नहीं चलेगा। समय आ गया है कि हमारे नेता आत्म प्रवंचना और दिखावे की गहरी नींद से जागें और यह समझें कि भारत उनकी व्यक्तिगत जागीर नहीं है जहां पर आम आदमी न केवल उनके वेतन का अपितु करों का भी भुगतान  करता है। उन्हें परजीवी बनकर जीना बंद करना पड़ेगा और अपने विशेषाधिकारों को छोडऩा पड़ेगा। साथ ही वित्तीय सुविधाओं और विशेषाधिकारों को भी त्यागना पड़ेगा। उनकी आय और वेतन पर कर लगाया जाना चाहिए और पूर्व विधायकों और सांसदों को पैंशन देना बंद किया जाना चाहिए क्योंकि वे इसके हकदार नहीं हैं। उन्हें एक उदाहरण स्थापित करना होगा और यदि एक राष्ट्र के रूप में हमारा अस्तित्व बना रहे तो उन्हें जवाबदेह बनना पड़ेगा। उसी के बाद वे मेरा भारत महान की दयनीय स्थिति को समझ पाएंगे और उन्हें इस बात का अहसास होगा कि जब वी.आई.पी. नि:शुल्क सुविधाएं स्वीकार करते हैं, सभी नियमों को तोड़ते हैं, उड़ानों और रेल की सीटों पर कब्जा करते हैं तो वे किस तरह लोकतंत्र का अपमान करते हैं। 

आज हमारी नई पीढ़ी परिपक्व हो रही है तो हमारे शासकों को इस सच्चाई को समझना होगा कि लोकतंत्र सभी के लिए समानता के मूल सिद्धांत पर आधारित है। वे दिन चले गए जब लोग नेताओं का सम्मान करते थे। आज उन्हें भारत की हर समस्या का प्रतीक माना जाता है। समय आ गया है कि हमारे नेता आत्मावलोकन करें और व्यवस्था में आई विकृति के उन पर हावी होने से पहले व्यवस्था को दुरुस्त करें। पंजाब और उत्तर प्रदेश ने इस संबंध में कदम उठा दिए हैं। हमारे नेतागणों को बदलना होगा। गरीब भारत अपने अमीर मंत्रियों और उनके करों का बोझ वहन नहीं कर सकता है।-पूनम आई. कौशिश 
 

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