अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी का विरोध क्यों?

Edited By ,Updated: 27 Mar, 2024 05:14 AM

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पिछले कुछ सालों से मैंने देखा है कि जब भी आम आदमी पार्टी से जुड़ा कोई विवाद उठता है, तब टी.वी. वाले अचानक मेरे पास किसी मसालेदार बयान की उम्मीद में पहुंचते हैं। उन्हें लगता है कि चूंकि मैं कभी आम आदमी पार्टी में रहा था लेकिन अब नहीं हूं, इसलिए मैं...

पिछले कुछ सालों से मैंने देखा है कि जब भी आम आदमी पार्टी से जुड़ा कोई विवाद उठता है, तब टी.वी. वाले अचानक मेरे पास किसी मसालेदार बयान की उम्मीद में पहुंचते हैं। उन्हें लगता है कि चूंकि मैं कभी आम आदमी पार्टी में रहा था लेकिन अब नहीं हूं, इसलिए मैं उनके खिलाफ खुन्दक निकालूंगा। चूंकि मैं आम आदमी पार्टी की राजनीति से सहमत नहीं हूं, इसलिए भाजपा सरकार उनके खिलाफ कुछ भी करे तो मैं अरविंद केजरीवाल और उनकी सरकार के खिलाफ बयान देने के लिए उपलब्ध रहूंगा। मुझे अक्सर उन्हें निराश करना पड़ता है। 

यही इस बार फिर हुआ। अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी के बाद कई चैनलों के फोन आए। वे सोचते थे कि मैं अन्ना हजारे की तरह अरविंद केजरीवाल को कोसूंगा, उनकी शराब नीति को गलत मानते हुए उन्हें दोषी बताऊंगा, आबकारी घोटाले में उन्हें भ्रष्टाचारी करार दूंगा और उनकी गिरफ्तारी को सही ठहराते हुए उनसे नैतिक आधार पर इस्तीफे की मांग करूंगा। मैंने ऐसा कुछ नहीं कहा तो उन्होंने सोचा कि मैंने पाला बदल लिया है और अब मैं आम आदमी पार्टी के नेताओं की भाषा बोलूंगा, केजरीवाल सरकार के गुण गाऊंगा, उनकी शराब नीति को सही बताऊंगा, भ्रष्टाचार के आरोपों को झूठा बताऊंगा। मैंने यह भी नहीं कहा। मैंने सिर्फ इतना कहा कि इस समय दिल्ली के चुने हुए मुख्यमंत्री को इस आधार पर गिरफ्तार करने का कोई औचित्य नहीं है। 

अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी पर चल रही बहस में अप्रासंगिक सवालों से बचने और सही सवाल उठाने की जरूरत है। अगर किसी महिला के साथ बलात्कार होता है तो उस वक्त यह प्रासंगिक नहीं है कि वह अपने पड़ोसियों से झगड़ती थी या नहीं, अथवा वह कैसे कपड़े पहनती है। उस वक्त प्रासंगिक सवाल सिर्फ इतना है कि उसके साथ किसने जबरदस्ती की और उस मामले में पुलिस प्रशासन का क्या रोल था। इसी तरह अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी के मामले में इधर-उधर के सवालों में उलझने की बजाय प्रासंगिक सवाल पूछना होगा। 

इस वक्त सवाल यह नहीं है कि आम आदमी पार्टी अच्छी-सच्ची है या नहीं, वह अपने मूल उद्देश्य पर कायम है या नहीं। इसका फैसला जनता करेगी, इतिहास करेगा। आज हमारे लिए सवाल यह भी नहीं हो सकता कि पार्टी नेतृत्व ने प्रशांत भूषण, प्रो. आनंद कुमार, प्रो. अजीत झा तथा मेरे जैसे लोगों के साथ सही किया था या गलत। उसका उत्तर इतिहास दे चुका है। यूं भी सिर्फ अपने अनुभव के चश्मे से दुनिया को देखना एक गंभीर दृष्टि दोष होगा। इस वक्त सवाल यह भी नहीं है कि दिल्ली सरकार की आबकारी नीति सही थी या नहीं। आम आदमी पार्टी की सरकार की शराब नीति का हम लोग 2015 से विरोध कर रहे हैं। यह नीति आम आदमी पार्टी द्वारा नशामुक्ति के वायदे के अनुरूप नहीं थी। बाद में बनाई गई नीति तो और भी गलत थी। खुद दिल्ली सरकार ने उस नीति को खारिज कर दिया। सवाल यह भी नहीं है कि उस नीति को बनाते वक्त साऊथ ग्रुप के व्यापारियों के साथ मिलीभगत और भ्रष्टाचार के आरोप सही हैं या नहीं। इसका फैसला कोर्ट में सबूत के आधार पर होगा। इस मामले में किसी को अभी से दोषी मान लेना या क्लीन चिट देना ठीक नहीं होगा। 

इस समय सिर्फ एक सवाल प्रासंगिक है - क्या जांच के दौरान इसी समय चुनाव के बीचों-बीच दिल्ली के मुख्यमंत्री की गिरफ्तारी जरूरी और वांछित थी? बेशक कानून में एनफोर्समैंट डायरैक्टोरेट को गिरफ्तारी का अधिकार है, लेकिन सवाल है कि क्या इस कानूनी अधिकार का इस्तेमाल मामले की जांच करने के लिए हुआ है या फिर यह राजनीतिक मकसद से प्रेरित है? यहां एक क्षण के लिए मान लेते हैं कि आबकारी नीति में घोटाला हुआ और उसके चलते 100 करोड़ रुपए की एडवांस रिश्वत देने का आरोप सही है। तब भी क्या अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी जरूरी थी? 

सुप्रीम कोर्ट बार-बार कह चुका है कि आरोप चाहे जितना भी संगीन हो, साबित होने से पहले किसी आरोपी की गिरफ्तारी सिर्फ तभी की जानी चाहिए, अगर आरोपी के भाग जाने का खतरा हो या फिर यह आशंका हो कि वह सबूत को नष्ट करेगा और गवाहों को डराएगा। अब अरविंद केजरीवाल के बारे में यह तो कोई नहीं कह सकता कि मुख्यमंत्री रातों-रात भाग जाएगा। जिस केस में दो साल से जांच चल रही हो, उसमें अब अचानक सबूत नष्ट करने की बात कहना हास्यास्पद होगा।

रही बात गवाहों की, तो जिस गवाही के आधार पर अरविंद केजरीवाल को इस मामले से जोड़ा गया है, उस गवाह के बारे में खुलासा यह हुआ है कि उसने वादा माफी गवाह बनने से पहले 5 करोड़ के इलैक्टोरल बॉण्ड खरीद कर भाजपा को दिए थे और बाद में भी उसकी कंपनी ने कोई 50 करोड़ का गुप्त चंदा भाजपा को दिया। सच यह है कि गवाह पर दबाव डालने का शक तो केंद्र सरकार और एनफोर्समैंट डायरैक्टोरेट पर है। अगर अरविंद केजरीवाल ई.डी. के सम्मन का जवाब नहीं दे रहे थे तो उनके खिलाफ कार्रवाई का आदेश कोर्ट से लिया जा सकता था। यूं भी जिस मामले में दो साल से जांच चल रही हो, उसमें अभी चुनाव से पहले गिरफ्तारी करने की क्या कानूनी मजबूरी थी? दो महीने बाद पूछताछ करने से क्या आफत आ जाती? 

अगर इस तरह शक के आधार पर गिरफ्तारी होने लगे तो भाजपा के कितने नेताओं को गिरफ्तार करना पड़ेगा? क्या ई.डी. उन सब नेताओं को गिरफ्तार करेगी, जिनके खिलाफ भाजपा ने भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे और जिन्होंने बाद में भाजपा ज्वॉइन कर ली है? क्या इलैक्टोरल बॉण्ड में शक के घेरे में आए भाजपा के तमाम मंत्रियों और खुद ई.डी. और सी.बी.आई. के अफसरों को गिरफ्तार किया जाएगा, जिन्होंने इलैक्टोरल बॉण्ड से भाजपा को चंदा मिलने के बाद ठेके दिए या फिर मामलों को रफा-दफा किया? 

जाहिर है यह गिरफ्तारी कानूनी नहीं, राजनीतिक है। इसका मकसद भ्रष्टाचार की जांच करना नहीं, बल्कि चुनाव से ठीक पहले अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी का मनोबल तोडऩा, विरोधी पार्टी को तोडऩा और उसकी सरकार को गिराना है। यह खेल पहले झारखंड में हो चुका है। इसका संदेश साफ है- जनता चाहे जिस पार्टी या मुख्यमंत्री को चुन ले, लेकिन वह गद्दी पर बना रह सकेगा या नहीं, उसका फैसला भाजपा करेगी। अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी खतरे की अंतिम घंटी है। खेल शुरू होने से पहले रैफरी बदले गए, नियम बदले गए, विरोधी टीम के फण्ड रोके गए और अब टीम के खिलाड़ी कैद किए जा रहे हैं। यह चुनाव अब लोकतंत्र के साथ एक मजाक बन चुका है।-योगेन्द्र यादव
 

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