कठुआ मामले में जम्मू-कश्मीर पुलिस पर इतना भरोसा क्यों

Edited By Pardeep,Updated: 20 Apr, 2018 03:20 AM

why the j  k police believe in the kathua case

कठुआ घटना के संबंध में सी.बी.आई. जांच की मांग और उससे संबंधित सार्वजनिक विमर्श से यक्ष प्रश्न यह खड़ा हो रहा है कि आखिर क्यों जम्मू-कश्मीर पुलिस की जांच पर इतना विश्वास किया जा रहा है? क्या इसका उत्तर आरोप पत्र के विवरण में निहित है जिसमें  पीड़िता...

कठुआ घटना के संबंध में सी.बी.आई. जांच की मांग और उससे संबंधित सार्वजनिक विमर्श से यक्ष प्रश्न यह खड़ा हो रहा है कि आखिर क्यों जम्मू-कश्मीर पुलिस की जांच पर इतना विश्वास किया जा रहा है? क्या इसका उत्तर आरोप पत्र के विवरण में निहित है जिसमें  पीड़िता का ‘‘मुस्लिम’’, आरोपियों का ‘‘हिन्दू’’ मुख्य साजिशकत्र्ता का नाम सांजी ‘‘राम’’ और घटनास्थल ‘‘मंदिर’’ होना शामिल है? 

भारत के अतिरिक्त, अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में भी यह घटना सुर्खियों में है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस मामले को पहले ही ‘भयावह’ बता चुके हैं। संभवत: इन प्रतिक्रियाओं के केन्द्र बिन्दु में जम्मू-कश्मीर पुलिस का वह आरोप पत्र है, जो अब सवालों के घेरे में है। इस संबंध में कुछ टी.वी. मीडिया की रिपोर्ट भी सामने आई हैं। 

कठुआ प्रकरण की नींव तब पड़ी, जब 10 जनवरी, 2018 को हीरानगर के रसाना गांव से 8 वर्षीय बालिका गायब हो जाती है और 17 जनवरी को जंगलों में उसका शव मिलता है। इस कष्टदायी घटना को लेकर जो विमर्श बनाया गया है, उसमें इस बच्ची को न्याय दिलाने के प्रतिकूल पीड़िता और आरोपियों के मजहब पर अत्यधिक बल दिया जा रहा है। उन्नाव की जिस बलात्कार पीड़िता की पहचान का खुलासा (अदालती दिशा-निर्देशों के अनुसार) अभी तक नहीं किया गया है, जो अक्सर इस प्रकार के मामलों में होता भी है, वहीं कठुआ में दरिंदगी की शिकार मासूम की न केवल तस्वीर, अपितु उसका नाम और मजहब भी सार्वजनिक कर दिया गया। क्यों? 

जम्मू-कश्मीर अपराध शाखा की जांच में कई त्रुटियां हैं, जो जम्मू में स्थानीय लोगों और स्थानीय हिन्दू संगठन द्वारा की जा रही सी.बी.आई. जांच की मांग को न्यायोचित बनाती हैं। 19 जनवरी को राजस्व और संसदीय मामलों के मंत्री अब्दुल रहमान वीरी ने कठुआ मामले में प्रदेश विधानसभा को जानकारी दी थी, ‘‘मामले में 15 वर्षीय नाबालिग आरोपी को गिरफ्तार कर लिया गया है और वह अपना अपराध स्वीकार कर चुका है।’’ आगे मंत्री कहते हैं ‘‘आरोपी ने बालिका का अपहरण कर उसका बलात्कार करने का भी प्रयास किया था और बच्ची के विरोध करने पर उसने गला घोंटकर उसकी हत्या कर दी।’’ इस समय तक मासूम से बलात्कार की पुष्टि नहीं हुई थी किन्तु इसके लगभग तीन महीने बाद अपराध शाखा ने आरोप पत्र में सामूहिक बलात्कार का उल्लेख कर दिया। 

इस घटनाक्रम का एक पक्ष और भी है, जो रसाना गांव के लोगों के उत्पीडऩ से जुड़ा है। स्थानीय लोगों का आरोप है कि अपराध शाखा के पुलिसकर्मी जांच/पूछताछ के नाम पर उन्हें निरंतर प्रताडि़त कर रहे हैं, जिससे भयभीत होकर कई हिन्दू परिवार पलायन भी कर चुके हैं। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, हीरानगर के जम्मू-कठुआ राजमार्ग से लगभग 4 किलोमीटर दूर स्थित रसाना गांव जो कभी जीवंत दिखाई देता था, वह अब सुनसान पड़ा है। जो ग्रामीण वहां रुके हैं, वे भी जल्द गांव छोडऩे की सोच रहे हैं और उनकी भी मांग है कि मामले की जांच सी.बी.आई. करे। 

इस पृष्ठभूमि में 9 वर्ष पहले शोपियां में जो कुछ हुआ था, उसका स्मरण करना आवश्यक हो जाता है। मई 2009 में 2 कश्मीरी महिलाओं के कथित बलात्कार और हत्या का मामला मीडिया की सुॢखयां बना था, जिसके कारण पूरी घाटी 47 दिनों तक ङ्क्षहसा की आग में जलती रही, सैनिकों पर पथराव के साथ भारत विरोधी नारों से गुंजायमान होती रही। इस मामले की प्रारंभिक जांच में दोनों महिलाओं की मौत का कारण पानी में डूबना बताया गया, किन्तु स्थानीय अलगाववादियों के एजैंडे पर मामले को ऐसे विमर्श में परिवर्तित कर दिया गया, जिसने विश्व में भारतीय सुरक्षाबलों को कटघरे में खड़ा कर दिया।

अलगाववादियों के प्रपंच में कठपुतली बने तत्कालीन मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने एक न्यायिक जांच समिति का गठन कर दिया, जो 21 दिनों में सभी आवश्यक जांच के पश्चात इस निष्कर्ष पर पहुंची कि दोनों महिलाओं की मौत पानी में डूबने से नहीं हुई बल्कि सामूहिक बलात्कार के बाद उनकी निर्मम हत्या कर दी गई थी। यही नहीं, प्रारंभिक जांच करने वाले अधिकारियों पर साक्ष्य नष्ट करने का आरोप लगाया गया, जो सरकार द्वारा निलंबित होने के बाद अदालती आदेश पर गिरफ्तार भी कर लिए गए थे। 

सितम्बर 2009 में जब शोपियां मामला सी.बी.आई. के पास पहुंचा  तो कुछ ही दिनों के भीतर अलगाववादियों के भारत और सेना विरोधी एजैंडे का पर्दाफाश  हो गया। सी.बी.आई. ने शोपियां मामले की प्रारंभिक जांच को सही माना और इस निष्कर्ष पर पहुंची कि दोनों महिलाओं के साथ न ही बलात्कार हुआ था और न ही उनकी हत्या की गई थी। सी.बी.आई. ने मैडीकल रिपोर्ट के आधार पर उस झूठ का भी खुलासा किया, जिसमें जांचकत्र्ताओं ने दूसरे पोस्टमार्टम में फर्जी परीक्षणों और गलत तथ्यों के बल पर साधारण मौत के मामले को जघन्य दुष्कर्म, हत्याकांड में परिवर्तित कर दिया। 

सी.बी.आई. जांच से यह भी पता चला कि बलात्कार की पुष्टि हेतु, जो चिकित्सीय परीक्षण करने अनिवार्य होते हैं,  दूसरे पोस्टमार्टम में उनके बिना ही और फर्जी रिपोर्ट के आधार पर बलात्कार की पुष्टि कर दी गई थी। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के फोरैंसिक वैज्ञानिकों ने अपनी जांच में पाया कि दोनों मृतकों में से एक 17 वर्षीय युवती कुंवारी थी। जो लोग शोपियां मामले में पुलिस की जांच को आधार बनाकर भारतीय सेना को कलंकित कर रहे थे, आज वही लोग कठुआ मामले में पुलिसिया जांच पर अंधविश्वास करके मामले को ‘‘हिन्दू बनाम मुसलमान’’ के विमर्श में परिवर्तित कर सी.बी.आई. जांच का विरोध तक कर रहे हैं। 

वर्तमान समय में प्रदेश की मुख्यमंत्री और पी.डी.पी. अध्यक्षा महबूबा मुफ्ती, जिनका भरोसा शोपियां मामले में पुलिस की जांच पर था ही नहीं, उन्हें आज कठुआ मामले में उसी पुलिस का आरोप पत्र इतना विश्वसनीय क्यों लग रहा है? क्या इसका कारण घाटी में अलगाववादियों और पाकिस्तानी समर्थकों के बीच अपनी छवि को बहाल करना तो नहीं है? पी.डी.पी. और नैशनल कांफ्रैंस सुविधानुसार कई मामलों में सी.बी.आई. जांच का समर्थन कर चुके हैं। शोपियां मामले से पहले जब 2006 में कांग्रेस-पी.डी.पी. की गठबंधन सरकार थी, तब बहुचर्चित सैक्स टेप सामने आया था, जिसमें दर्जनभर राजनीतिज्ञ, पुलिसकर्मी और नौकरशाह आरोपित हुए थे। उस समय मुख्य विपक्षी दल नैशनल कांफ्रैंस  ने सी.बी.आई. जांच की मांग की, जिसे तुरंत सरकार ने स्वीकार भी कर लिया और जांच में अधिकतर आरोपी दोषमुक्त भी हो गए। 

जम्मू-कश्मीर पुलिस, विशेषकर कश्मीर क्षेत्र में उसकी कार्य-पद्धति अधिकतर संदिग्ध रही है। जब वर्ष 1998 में पुंछ के सूरनकोट तहसील में आतंकवादियों द्वारा 19 लोगों की हत्या का मामला वर्ष 2012 में सी.बी.आई. को सौंपा जा रहा था, तब उच्च न्यायालय ने पुलिस को फटकारते हुए कहा था कि उसने 14 वर्षों तक इस मामले में कुछ नहीं किया। वास्तव में, इस पुलिस के चयनात्मक दृष्टिकोण और कठुआ मामले में जम्मू का शेष भारत से अंतर्विरोधी विमर्श का कारण जम्मू-कश्मीर के इतिहास में मिलता है जहां मजहब के नाम पर जेहादियों ने अघोषित प्रशासनिक-न्यायिक समर्थन से पांच लाख कश्मीरी पंडितों को घाटी छोडऩे के लिए विवश कर दिया था। जिस संयुक्त ‘इस्लामी पहचान’ के कारण कश्मीरी पंडितों के पलायन का विरोध तत्कालीन शासन व्यवस्था और घाटी के शेष समाज ने नहीं किया था, आज उसी ‘पहचान’ ने कठुआ मामले के विमर्श को सांप्रदायिक बना दिया है। 

सोशल मीडिया में वायरल त्रिशूल संबंधी घोर आपत्तिजनक तस्वीरें, इसका उदाहरण है। जब जम्मू से 625 किलोमीटर दूर गुरुग्राम में सितम्बर 2017 में 7 वर्षीय स्कूली छात्र की हत्या का मामला सामने आया था, तब पुलिस ने बस कंडक्टर को गिरफ्तार कर अपनी जांच को उसी दिशा में आगे बढ़ा दिया था, किन्तु पीड़ित पक्ष की मांग पर हरियाणा सरकार ने मामले की जांच जब सी.बी.आई. को सौंपी तो मुख्य आरोपी स्कूल का 11वीं कक्षा का छात्र निकला। उन्नाव में भी बलात्कार का मामला उत्तर प्रदेश सरकार सी.बी.आई. को सौंप चुकी है। अब यदि सी.बी.आई. जांच से उपरोक्त मामले की वास्तविकता सामने आई है तो कठुआ में उससे परहेज क्यों है?-बलबीर पुंज

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