क्या बॉम्बे सिने जगत का ‘स्वर्ण युग’ लौट पाएगा

Edited By Updated: 15 May, 2022 06:04 AM

will the  golden age  of bombay cine world return

कौन- सा ‘स्वर्ण युग’? वही, जिसमें निर्माता-निर्देशक थे व्ही. शांताराम, महबूब खान, विजय भट्ट, बिमल राय, चेतन आनंद, गुरुदत्त, कमाल अमरोही, राज कपूर और के. आसिफ। फिल्मों का वही ‘स्वर्ण युग’, जिसमें

कौन- सा ‘स्वर्ण युग’? वही, जिसमें निर्माता-निर्देशक थे व्ही. शांताराम, महबूब खान, विजय भट्ट, बिमल राय, चेतन आनंद, गुरुदत्त, कमाल अमरोही, राज कपूर और के. आसिफ। फिल्मों का वही ‘स्वर्ण युग’, जिसमें होती थी विषयवस्तु, कहानी, कर्णप्रिय संगीत और दर्शकों को सम्मोहित करने वाला भाव प्रणव अभिनय, फिल्मों का वही 1950 से 1965 का ‘सुनहरी-काल’, जिसमें संगीतकार थे सी. रामचंद्र, नौशाद, एस.डी. बर्मन, मदन मोहन, रौशन, सलिल चौधरी, हेमंत कुमार, जयदेव, शंकर-जयकिशन, कल्याण जी-आनंद जी और लक्ष्मीकांत-प्यारे लाल, गीतकार थे शैलेन्द्र, हसरत जयपुरी, राजेन्द्र कृष्ण, कैफी आजमी, साहिर लुधियानवी और अली सरदार जाफरी। 

मैं उसी ‘स्वर्ण युग’ की बात कर रहा हूं जब फिल्मी हीरोइन होती थीं-नर्गिस, निम्मी, सुरैया, मधुबाला, शकीला, मीना कुमारी, नूतन और वैजयन्ती माला, वहीदा रहमान और माला सिन्हा। क्या फिल्मों का वह ‘स्वर्ण युग’ वापस आ सकेगा, जिसमें गायक थे मोहम्मद रफी, तलत महमूद, हेमंत कुमार, मुकेश, मन्ना-डे, किशोर दा और यसुदास, क्या स्वर्ण युग की वे फिल्में, जिन्हें हमारी पीढ़ी ने देखा, पुन: बन सकेंगी? नहीं। 

क्या 1946 में चेतन आनंद की फिल्म ‘नीचा नगर’, बिमल राय की 1953 में आई फिल्म ‘दो बीघा जमीन’, गुरुदत्त की 1957 में आई फिल्म ‘प्यासा’, 1959 में आई ‘कागज के फूल’, राज कपूर की 1951 और 1955 में आई फिल्में ‘आवारा’ और ‘श्री 420’, महबूब खान की 1957 में आई फिल्म ‘मदर इंडिया’, व्ही शांता राम की 1957 में आई फिल्म ‘दो आंखें बारह हाथ’, के. आसिफ की 1960 में आई फिल्म ‘मुगले आजम’, विजय भट्ट की 1952 की फिल्म ‘बैजू-बावरा’, बिमल राय ही की 1958 में आई फिल्म ‘मधुमति’ और कमाल अमरोही की फिल्म ‘पाकीजा’, देवानंद की फिल्म ‘गाइड’ दर्शकों को पुन: देखने को नसीब होगी? मुझे नहीं लगता कि स्वर्ण युग की फिल्में ‘परिणीता’, ‘सुजाता’ और ‘नंदिनी’ को कोई निर्देशक पुन: उसी रूप में दर्शकों को उपलब्ध करा सकेगा। 

कहां से देख पाएंगे दर्शक बी.आर. चोपड़ा जैसे कुशल निर्देशक की फिल्म ‘धूल का फूल’, ‘धर्मपुत्र’ और ‘वक्त’? सिने प्रेमी कहां से ढूंढेंगे सिप्पी साहिब की फिल्म ‘शोले’? अब न बनेंगी ‘त्रिशूल’, ‘दीवार’ और ‘मुकद्दर का सिकंदर’ जैसी फिल्में। कहां से सुन पाएंगे हम लता मंगेशकर के मधुर कर्णप्रिय गीत? ‘बरसात’ फिल्म में नर्गिस पर फिल्माए गीत ‘मुझे नींद न आए मैं का करूं, मेरी आंखों में बस गया कोई रे?’, ‘हवा में उड़ता जाए मेरा लाल दुपट्टा मलमल का, हो जी?’,‘सजना बरखा बहार आई, मीठी-मीठी अग्रि में जले मेरा जिया’, लता का यह सर्वश्रेष्ठ गीत ‘परख’ फिल्म का हमें हमेशा गुदगुदा कर रख देगा। मुकेश को कहां से लाएं जो ‘तीसरी कसम’ में गाए जा रहे थे, ‘सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है, न हाथी है न घोड़ा है, वहां पैदल ही जाना है।’ 

है दुनिया में कोई मोहम्मद रफी जैसा गायक, जो फिल्म ‘बैजू बावरा’ में श्रोताओं को रुला रहे हैं, ‘ओ, दुनिया के रखवाले सुन दर्द भरे मेरे नाले’। स्वर्ण युग के उस अनुपम गायक को आज फिल्मों में कहां ढूंढेंगे? फिर  मन्ना-डे जैसा क्लासिकल सिंगर, जो फिल्म ‘मेरी सूरत, तेरी आंखें’ में अशोक कुमार जैसे कलाकार के आंतरिक दर्द को इस गीत के माध्यम से उजागर करते हैं, ‘पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई, इक पल जैसे इक युग बीते, युग बीते मुझे नींद न आए’। फिल्मों के उस स्वर्ण युग में थी एक्टिंग की जीती-जागती त्रिमूर्ति दिलीप कुमार, राज कपूर और देवानंद, जिनके साथ-साथ चल रहे थे प्रदीप कुमार, जयराज, भारत भूषण, महीपाल और साहू मोदक। फिल्मी इतिहास के इसी स्वर्ण युग में सिने दर्शकों को मिले एक्टिंग के फरिश्ता दादामुनि अशोक कुमार, आवाज के शहंशाह एक्टर राज कुमार, एक्टिंग में क्रांति लाने वाले ‘जंगली’ प्रोफैसर शम्मी कपूर, चिकने-चुपड़े हीरो शशि कपूर, ही-मैन धर्मेन्द्र। 

गीत-संगीत, गायन और एक्टिंग की ये तमाम चीजें लाख ढूंढने पर भी अब सिने दर्शकों को नहीं मिल पाएंगी। वह 1950 से 1965 का फिल्म ‘स्वर्ण युग’ कहीं खो गया है। ढूंढें भी तो मिलेगा नहीं। ऐसे हीरो, हीरोइन थीं उस ‘स्वर्ण युग’ में कि मानो एकिं्टग के समुद्र से नहा कर निकले हों? न ‘स्वर्ण युग’ की नर्गिस दिखीं, न दिलीप कुमार। सबको मौत ने खा लिया। लगता ही नहीं था कि देवानंद को भी मौत आ सकती है। देवानंद जैसा इतना खूबसूरत एक्टर मैंने आज तक नहीं देखा। ‘स्वर्ण युग’ के एक्टर, एक्ट्रैसिज, निर्माता-निर्देशक, गायक, गीतकार-संगीतकार सब मौत के आगोश में छुप गए। 

आज सिने उद्योग में सब बनावटी। हमने तो फिल्मी ‘स्वर्ण युग’ में देखीं ‘देवदास’, ‘मेरे महबूब’, ‘संगम’, ‘जॉनी मेरा नाम’, ‘उपकार’ या बहुत हुआ तो देवानंद की ‘बम्बई का बाबू’, दिलीप कुमार की ‘दीदार’, राज कपूर की ‘छलिया’। उन एक्टर्स की एक्टिंग में दर्शक खो जाता था, खुद को भूल जाता था। आज की फिल्मों में सब कुछ बनावटी, सब कुछ खोखला। एक्ट्रैसिज सारी की सारी एक जैसी। संगीत आज की फिल्मों का कानफाड़ू। आज फिल्म लगती है तो कल उसका पता ही नहीं चलता कहां चली गई। उस ‘स्वर्ण युग’ की फिल्में चलती थीं 50-50 हफ्ते। राजेन्द्र कुमार और आशा पारेख की हर फिल्म जुबली मनाती। ये दोनों कलाकार कहलाते ही ‘जुबली स्टार’ थे। 

मैं कहना चाहता हूं कि भारतीय सिने उद्योग हर साल लगभग 1600 फिल्में बनाता है। इस पर भी वर्तमान सिने उद्योग, जहां सब से अधिक पंूजी लगी है, में वर्तमान समय में कोई कालजयी फिल्म नहीं बना पाया। सोचना तो पड़ेगा ही कि 1950 से 1965 तक के ‘स्वर्ण काल’ को आज की फिल्में क्यों नहीं छू पा रहीं? क्यों आज की फिल्में जनता पर प्रभाव नहीं डाल पा रहीं? आज के फिल्मी संगीत को क्या हो गया?-मा. मोहन लाल(पूर्व परिवहन मंत्री, पंजाब)

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