जानिए, महाभारत उपरांत भगवान श्रीकृष्ण ने कैसे बचाया पांडवों का एकमात्र वंशधर

Edited By ,Updated: 19 Feb, 2016 03:15 PM

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जब महाराज विराट ने यह सुना कि उनके पुत्र ने समस्त कौरव-पक्ष के योद्धाओं को पराजित करके अपनी गायों को लौटा लिया है, तब वह आनंदातिरेक में अपने पुत्र की प्रशंसा करने लगे। इस पर कङ्क (युधिष्ठिर) ने कहा कि जिसका सारथि बृहन्नला (अर्जुन) हो, उसकी विजय तो...

जब महाराज विराट ने यह सुना कि उनके पुत्र ने समस्त कौरव-पक्ष के योद्धाओं को पराजित करके अपनी गायों को लौटा लिया है, तब वह आनंदातिरेक में अपने पुत्र की प्रशंसा करने लगे। इस पर कङ्क (युधिष्ठिर) ने कहा कि जिसका सारथि बृहन्नला (अर्जुन) हो, उसकी विजय तो निश्चित ही है।

महाराज विराट को यह असह्य हो गया कि राजसभा में पासा बिछाने के लिए नियुक्त, ब्राह्मण कङ्क उनके पुत्र के बदले नपुंसक बृहन्नला की प्रशंसा करे। उन्होंने पासा खींच कर मार दिया और कङ्क की नासिका से रक्त निकलने लगा। सैरन्ध्री बनी हुई द्रौपदी दौड़ी और सामने कटोरी रख कर कङ्क की नासिका से निकलते हुए रक्त को भूमि पर गिरने से बचाया। जब महाराज  विराट को  तीसरे दिन पता चला कि उन्होंने कङ्क के वेश में अपने यहां निवास कर रहे महाराज युधिष्ठिर का ही अपमान किया है तब उन्हें अपने-आप पर अत्यंत खेद हुआ। 

उन्होंने अनजाने में हुए अपराधों के परिमार्जन और पांडवों से स्थायी मैत्री स्थापना के उद्देश्य से अपनी पुत्री उत्तरा और अर्जुन के विवाह का प्रस्ताव किया। इस पर अर्जुन ने कहा, ‘‘राजन्! मैंने कुमारी उत्तरा को बृहन्नला के रूप में वर्ष भर नृत्य और संगीत की शिक्षा दी है। यदि मैं राजकुमारी को पत्नी रूप में स्वीकार करता हूं तो लोग मुझ पर और आपकी पुत्री के चरित्र पर संदेह करेंगे और गुरु-शिष्य की परम्परा का अपमान होगा। राजकुमारी मेरे लिए पुत्री के समान है इसलिए अपने पुत्र अभिमन्यु की पत्नी के रूप में मैं उन्हें स्वीकार करता हूं। भगवान् श्रीकृष्ण के भांजे को जामाता के रूप में स्वीकार करना आपके लिए भी गौरव की बात होगी।’’ 

सभी ने अर्जुन की धर्मनिष्ठा की प्रशंसा की और उत्तरा का विवाह अभिमन्यु से सम्पन्न हो गया। महाभारत के संग्राम में अर्जुन संसप्तकों से युद्ध करने के लिए दूर चले गए और द्रोणाचार्य ने उनकी अनुपस्थिति में चक्रव्यूह का निर्माण किया। भगवान शंकर के वरदान से जयद्रथ ने सभी पांडवों को व्यूह में प्रवेश करने से रोक दिया। अकेले अभिमन्यु ही व्यूह में प्रवेश कर पाए। महावीर अभिमन्यु ने अद्भुत पराक्रम का प्रदर्शन किया। उन्होंने कौरव पक्ष के प्रमुख महारथियों को बार-बार हराया। अंत में सभी महारथियों ने एक साथ मिलकर अन्याय पूर्वक अभिमन्यु का वध कर दिया। उत्तरा उस समय गर्भवती थीं। भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें आश्वासन देकर पति के साथ सती होने से रोक दिया।

जब अश्वत्थामा ने द्रौपदी के पांच पुत्रों को मार डाला तथा शिविर में आग लगाकर भाग गया, तब अर्जुन ने उसे पकड़ कर द्रौपदी के सम्मुख उपस्थित किया। वध होने के बाद भी द्रौपदी ने उसे मुक्त कर दिया किंतु उस नराधम ने कृतज्ञ होने के बदले पांडवों का वंश ही निर्मूल करने के लिए ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। उत्तरा की करुण पुकार सुन कर भगवान श्रीकृष्ण ने सूक्ष्म रूप से उनके गर्भ में प्रवेश करके पांडवों के एक मात्र वंशधर की ब्रह्मास्त्र से रक्षा की किंतु जन्म के समय बालक मृत पैदा हुआ।

यह समाचार सुन कर भगवान श्रीकृष्ण ने सूतिकागृह में प्रवेश किया। भगवद्भक्ति और विश्वास की अनुपम प्रतीक सती उत्तरा पगली की भांति मृत बालक को गोद में उठाकर कहने लगी, ‘‘बेटा! त्रिभुवन के स्वामी तुम्हारे सामने खड़े हैं। तू धर्मात्मा तथा शीलवान पिता का पुत्र है। यह अशिष्टता अच्छी नहीं। इन सर्वेश्वर को प्रणाम कर। सोचा था कि तुझे गोद में लेकर इन सर्वाधार के चरणों में मस्तक रखूंगी, किंतु सारी आशाएं नष्ट हो गईं।’’ 

भक्तवत्सल भगवान  ने तत्काल जल छिड़क कर बालक को जीवनदान दिया। सहसा बालक का श्वास चलने लगा। चारों ओर आनंद की लहर दौड़ गई। पांडवों का यही वंशधर परीक्षित के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 

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