श्रीराम की क्रोधाग्नि में जल जाते हैं ऐसे लोग, कहीं आप तो नहीं कर रहे यह गलती

Edited By ,Updated: 19 Oct, 2016 10:56 AM

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हजारों नेत्रों वाले को भी चाहिए ज्ञान के नेत्र श्री रामचरितमानस (अयो.कां.: 181.1.) में गोस्वामी संत तुलसीदास जी लिखते हैं :  गुर बिबेक सागर जगु जाना। जिन्हहि बिस्व कर बदर समाना।। ‘गुरु ज्ञान के समुद्र हैं,’

हजारों नेत्रों वाले को भी चाहिए ज्ञान के नेत्र

श्री रामचरितमानस (अयो.कां.: 181.1.) में गोस्वामी संत तुलसीदास जी लिखते हैं : 
गुर बिबेक सागर जगु जाना।
जिन्हहि बिस्व कर बदर समाना।।


‘गुरु ज्ञान के समुद्र हैं,’ इस बात को सारा जगत जानता है। उनके लिए विश्व हथेली पर रखे हुए बेर के समान है। उनके सामने जो दुख रखा जाता है वह भी सुख में बदल जाता है। जैसे अर्जुन ने अपना विषाद भगवान श्रीकृष्ण के सामने रखा तो विषादयोग बन गया। इन्द्र के जीवन में भी ऐसा ही एक प्रसंग आता है।


उस समय की बात है जब राम जी 14 वर्ष के वनवास के लिए चले गए। तब भरत जी उन्हें वापस बुलाने जा रहे थे। न तो उनके पैर में जूते हैं और न सिर पर छाया। वह सखा निषादराज से सीता जी, राम जी व लक्ष्मण जी की रास्ते की बातें पूछते हैं। राम जी जहां ठहरे थे वहां के वृक्षों को देखकर उनके हृदय में प्रेम रोके नहीं रुकता। भरत जी के इस अनन्य प्रेम को देख इंद्र को चिंता हो गई कि ‘कहीं इनके प्रेमवश राम जी लौट न जाएं और हमारा बना-बनाया काम बिगड़ न जाए।’


सभी देवता रावण के अत्याचार से त्रस्त थे और धरती का भार उतारने के लिए ही भगवान ने अवतार लिया था। राम जी देवताओं के कार्य अर्थात दुष्टों के विनाश हेतु वनवास पर गए थे। इंद्र को भय था कि ‘कहीं राम जी लौट गए तो राक्षसों का विनाश कैसा होगा?’ 


इसलिए इंद्र ने गुरु बृहस्पति जी से कहा, ‘हे प्रभु! वही उपाय कीजिए जिससे श्रीराम जी और भरत जी की भेंट ही न हो। राम जी प्रेम के वश हैं और भरत जी प्रेम के समुद्र हैं। बनी-बनाई बात बिगड़ न जाए इसलिए कुछ छल ढूंढकर इसका उपाय कीजिए।’’


इंद्र के वचन सुनते ही देवगुरु मुस्कुराए। उन्होंने हजार नेत्रों वाले इंद्र को (ज्ञानरूपी) नेत्रों से रहित समझा और कहा, ‘‘हे देवराज! माया के स्वामी श्रीराम जी के सेवक के साथ जो माया करता है तो वह उलटकर उसके ही ऊपर आ पड़ती है। कुचाल करने से हानि ही होगी। रघुनाथ जी का स्वभाव सुनो, वह अपने प्रति किए हुए अपराध से कभी रुष्ट नहीं होते पर जो कोई उनके भक्त का अपराध करता है वह रामजी की क्रोधाग्नि में जल जाता है।’’


‘‘सारा जगत राम जी को जपता है और वह रामजी जिनको जपते हैं, उन भरत जी के समान राम जी का प्रेमी कौन होगा? रामजी के भक्त का काम बिगाडऩे की बात मन में भी न लाइए। ऐसा करने से इस लोक में अपयश और परलोक में दुख होगा तथा शोक का सामान दिनों-दिन बढ़ता ही चला जाएगा। राम जी को अपना सेवक परम प्रिय है। अत: कुटिलता छोड़ दो।’’


राम जी के भक्त सदा दूसरों के हित में लगे रहते हैं, वे दूसरों के दुख से व्यथित और दुपार्द होते हैं। भरतजी तो भक्तों में शिरोमणि हैं, उनसे बिल्कुल न डरो। रामजी सत्यप्रतिज्ञ और देवताओं का हित करने वाले हैं एवं भरत जी राम जी की आज्ञा के अनुसार चलने वाले हैं। तुम व्यर्थ ही स्वार्थ के विशेष वश होकर व्याकुल हो रहे हो। इसमें भरत जी का कोई दोष नहीं, तुम्हारा ही मोह है।


इस प्रकार गुरुदेव बृहस्पति जी का सत्संग सुनकर इंद्र के मन में बड़ा आनंद हुआ और उनकी चिंता मिट गई।

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