कहां छुपा है गणेश जी का असली मस्तक?

Edited By ,Updated: 24 Jun, 2015 09:31 AM

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गणपति अति प्राचीन देव हैं तथा इनका उल्लेख ऋग्वेद व यजुर्वेद में भी मिलता है। पौराणिक मतानुसार गणेशजी का स्वरूप अत्यन्त मनोहर व मंगलदायक है। वे एकदंत व चतुर्बाहु हैं। अपने चारों हाथों में वे क्रमश: पाश, अंकुश, मोदकपात्र और वरमुद्रा धारण करते हैं। वे...

गणपति अति प्राचीन देव हैं तथा इनका उल्लेख ऋग्वेद व यजुर्वेद में भी मिलता है। पौराणिक मतानुसार गणेशजी का स्वरूप अत्यन्त मनोहर व मंगलदायक है। वे एकदंत व चतुर्बाहु हैं। अपने चारों हाथों में वे क्रमश: पाश, अंकुश, मोदकपात्र और वरमुद्रा धारण करते हैं। वे रक्तवर्ण, लंबोदर, शूर्पकर्ण व पीतवस्त्रधारी हैं। वे रक्त चंदन धारण करते हैं व उन्हें लाल फूल विशेष प्रिय हैं। वे भक्तों पर शीघ्र प्रसन्न होकर उनकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं। 

पौराणिक मतानुसार गणपति का मुख हाथी अर्थात गज का है अतः उन्हें गजानन भी कहते हैं। शास्त्रों में गणेश के गजमुख सम्बंधित अनेक मत हैं परंतु इस लेख के माध्यम से हम अपने पाठकों को बताने जा रहे हैं कि गजमुख लगने के बाद गणपतिजी का असली मस्तक कहां गया?
 
पुराणों में गणेश मुख से संबंधित तीन प्रचलित मत हैं। पहला मत पद्म पुराण से है जिसके अनुसार देवी पार्वती ने अपने शरीर के मैल से एक पुरुषाकृति बनाई, फिर उस आकृति को उन्होंने गंगा में डाल दिया। गंगाजी में पड़ते ही वह आकृति विशालकाय हो गई परंतु आकृति का मुख धड़ से अलग होकर गंगा में समा गया। मुख के आभाव में देवगानों ने उन्हें गज मुख प्रदान किया। देव समुदाय ने उन्हें गांगेय नाम दिया व ब्रह्माजी ने उन्हें गण आधिपत्य प्रदान कर गणेश नाम दिया।
 
दुसरे मत मुद्गल पुराण के अनुसार देवी पार्वती ने अपने शरीर के मैल से एक पुरुषाकृति बनाई व गणेश को द्वार पर बिठा कर पार्वती स्नान करने लगीं। इतने में शिव आए व पार्वती के भवन में प्रवेश करने लगे। गणेश ने जब उन्हें रोका तो क्रुद्ध शिव ने उसका मस्तक काट दिया जो मोक्ष की आकाशगंगा में विचरण करने लगा। बाद में भगवान शंकर ने रुष्ट पार्वती को मनाने हेतु कटे मस्तक के स्थान पर गजमुख जोड़ा। मोक्ष की आकाशगंगा में मुख के विचरण करने हेतु ये धूम्रकेतु कहलाए। 
 
तीसरे मत ब्रह्मांड पुराण के अनुसार देवी पार्वती द्वारा गणपति को जन्म देने के उपरांत जब शनिदेव सहित समस्त देवगण इनके दर्शन हेतु आए तब शनिदेव की श्रापित क्रूर दृष्टि गणेशजी पर पड़ी तो गणपतिजी का मस्तक धड से अलग होकर चंद्रलोक में चला गया। इस पर दुःखी पार्वती ने देवगण से कहा कि जिसका सिर सर्वप्रथम मिले उसे गणेश पर लगा दो। पहला सिर हाथी के बच्चे का मिला। इस प्रकार गणेश ‘गजानन’ बन गए। मस्तक के चंद्रलोक में जाने के कारण इन्हें भालचंद्र भी कहते हैं।
 
तीनों मान्यताओं के अनुसार गणेश का असली मस्तक गंगा, मोक्षमंडल और चंद्रलोक में समाहित है इसी कारण गणेशजी को यह तीनो नाम "गांगेय" "धूम्रकेतु" व "भालचंद्र" प्राप्त हुए। इसी कारण शास्त्रों में गंगा गणेश गीता व गायत्री का बखान मिलता है दूसरी और ज्योतिष की मान्यतानुसार केतु गृह पर गणेशजी का अधिपत्य बताया जाता है तथा गणेश चतुर्थी पर चंद्रदेव को अर्घ्य देकर श्री गणपति की उपासना द्वारा संकटनाश किया जाता है।
 
आचार्य कमल नंदलाल
ईमेल: kamal.nandlal@gmail.com

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