आजादी के लिए चंद्रशेखर आजाद सूखी रोटियां खाकर भरते थे पेट

Edited By Updated: 14 Feb, 2020 09:38 AM

chandrashekhar azad

वह कमरे के एक कोने में बैठे रोटियां खा रहा था, चंद रूखी-सूखी रोटियां। उसके चेहरे पर सहजता थी

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वह कमरे के एक कोने में बैठे रोटियां खा रहा था, चंद रूखी-सूखी रोटियां। उसके चेहरे पर सहजता थी और कद-काठी मजबूत नजर आती थी। ऐसा लगता था मानो लाहौर का वह छोटा-सा कमरा उसके तेज से दमक रहा हो। खाने वाले की डील-डौल देखने से ही साफ पता लगता था कि ये सूखी रोटियां उसके लिए पर्याप्त नहीं थीं। नजदीक ही बैठे साथी से रहा न गया और वह बोल पड़ा, ''पंडित जी, यह कैसी जिद है? इतना जिद्दी होना ठीक नहीं है। युवक ने उत्तर दिया, ''रणजीत, जिसे तुम जिद समझ रहे हो, वह दरअसल मितव्ययता है।
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वह हंसते हुए बोला, ''अच्छा! तो जिद का नया नामकरण भी हो चुका है अब? खाना बीच में ही रोकते हुए युवक ने कहा, ''भाई, मेरी बात समझने की कोशिश करो। रणजीत बोला, ''आपका इस तरह रूखी-सूखी रोटियां चबाना मेरी समझ से तो बाहर है। आप ही समझा दीजिए कि यह मितव्ययता कैसे है? युवक बोला, ''हमारे संगठन की रुपए-पैसे को लेकर जो स्थिति है, उसके हिसाब से हर क्रांतिकारी को खाने के लिए 2 आने मिलते हैं-एक आना रोटी के लिए और एक गुड़ के लिए। हालांकि मेरे लिए एक आने की रोटी काफी नहीं है। ऐसे में गुड़ के लिए जो एक आना था, उसकी भी मैंने रोटी खरीद ली। समझे?
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असहमत होते हुए दोस्त बोला, ''नहीं। बात अभी भी मेरी समझ में नहीं आई। हमारे पास और भी तो पैसे हैं। आप उनसे भोजन कर सकते हैं। आखिर आप हमारे प्रमुख हैं। 'नहीं, प्रमुख होने के नाते मेरा दायित्व और भी अधिक है। संगठन का धन देश को आजादी दिलाने की मुहिम में खर्च होना चाहिए, क्रांति के कार्यों में जाना चाहिए। मितव्ययता और नि:स्वार्थ सेवा के बिना क्या स्वतंत्रता का सपना साकार होगा? मितव्ययता की जीती-जागती मिसाल वह व्यक्ति कोई और नहीं, बल्कि महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद थे।

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