अनंत विकल्पों के युग में, अराजकता में स्पष्टता की खोज

Edited By Updated: 11 Jun, 2025 01:39 PM

confusion a state of mind

Confusion a state of mind: आज के इस तेजी से भागते संसार में जहां हर मोड़ पर चुनाव खड़े हैं। विवाह करना या नहीं, परिवार से टूटे रिश्तों को जोड़ना या नहीं, संतान पैदा करना या न करना, बुज़ुर्ग मां की देखभाल खुद करना या किसी और पर छोड़ देना। हर निर्णय...

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ

Confusion a state of mind: आज के इस तेजी से भागते संसार में जहां हर मोड़ पर चुनाव खड़े हैं। विवाह करना या नहीं, परिवार से टूटे रिश्तों को जोड़ना या नहीं, संतान पैदा करना या न करना, बुज़ुर्ग मां की देखभाल खुद करना या किसी और पर छोड़ देना। हर निर्णय मन को थका देने वाला हो गया है। जो सवाल पहले कभी नहीं पूछे जाते थे, वे आज हर दिन हमारे भीतर गूंजते हैं —
क्या मुझे विवाह करना चाहिए या अकेले ही ठीक हूं?
क्या मंदिर जाऊं या नहीं?
क्या मां की सेवा करूं या व्यवस्था पर भरोसा कर लूं?
क्या भाई को माफ कर दूं या वही दूरी बनाए रखूं?
क्या विरासत बांट दूं?
क्या गांव जाऊं या पैसे बचा लूं?
क्या इस दोस्ती को बनाए रखूं या छोड़ दूं?
क्या उनकी मदद करूं जिन्होंने कभी मेरी मदद नहीं की?
आख़िर मुझे क्या मिलेगा इसमें?

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ये सवाल आते कहां से हैं?
जब सबकुछ जानने-समझने के लिए एक क्लिक ही काफी है, तो फिर भी क्यों हम अंदर से इतने उलझे हुए, इतने खोए हुए महसूस करते हैं? कभी जीवन बहुत सरल था। निर्णय नियमों से तय होते थे। संबंधों में स्पष्टता थी। जीवन की एक लय थी। आज? जीवन जैसे लगातार चल रही एक बहस बन गया है। जहां हर भाव, हर संबंध, हर कर्तव्य पर तर्क किया जाता है।

आधुनिकता ने हमें स्वतंत्रता दी लेकिन साथ ही दे दी एक अदृश्य पीड़ा विकल्पों का अत्याचार। हर सरल से सरल परिस्थिति भी अब चुनाव मांगती है और हर चुनाव के साथ आता है। समाज का दबाव, अपने-पराए की अपेक्षाएं, अनिश्चितता और परिणामों की चिंता।

हम तय नहीं कर पाते कि मां-बाप के साथ रहें या उन्हें वृद्धाश्रम भेज दें। क्या दूसरों को देते रहें जबकि वे हमें कुछ न दें ? क्या न कहें या सहते रहें ?

हर निर्णय जैसे जीवन को बना या बिगाड़ सकता है। क्या यही आधुनिक जीवन है विकल्पों की अराजकता में आत्मा की थकावट?

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ओशो, आधुनिक भारत के विद्रोही संत, कहते हैं:
हर चुनाव अज्ञानता है। उनके अनुसार जब हम वास्तव में जागरूक होते हैं, तब चुनाव की ज़रूरत ही नहीं रहती। जो सत्य होता है, वह स्वयं सामने आ जाता है। निर्णयों के गणित में मत उलझो। जागरूक रहो। जब मन शांत होता है, तब सही राह खुद खुल जाती है।

ओशो हमें कहते हैं चयन रहित जागरूकता की ओर लौटो। मत सोचो कि सही क्या है और गलत क्या, बस चेतना में ठहरो। निर्णय तब प्रेम और स्पष्टता से जन्म लेगा न कि भय, अपराधबोध या लोगों को खुश करने की कोशिश से।

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भगवद्गीता का संदेश: जब मन डगमगाए, धर्म को चुनो। महाभारत में जब अर्जुन कुरुक्षेत्र के मैदान में खड़ा हुआ, वह भी यही मानसिक ऊहापोह झेल रहा था। परम मित्र और सारथी भगवान श्रीकृष्ण ने तब उसे कोई नियम-पुस्तिका नहीं दी बल्कि एक जीवन-दर्शन दिया।

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कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन
तुझे केवल कर्म करने का अधिकार है, फल की चिंता मत कर।

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धर्म क्या है?
जो तुम्हारा कर्तव्य है। 
जो तुम्हारे हृदय की सच्चाई है।

जब भ्रम बढ़े और मन भटके, तब कृष्ण कहते हैं — योगस्थः कुरु कर्माणि
योग में स्थित होकर कर्म कर। संतुलन में रह। आत्मा की आवाज़ सुन।

यही गीता का सार है — कर्तव्य निभाओ। परिणाम छोड़ दो और निर्णय तब लो, जब मन मौन हो।

ओशो और गीता दोनों कहते हैं: सही चुनाव वही है जो स्वधर्म के अनुसार हो।

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श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्
अपने धर्म में असफल होना भी, परधर्म में सफलता से बेहतर है।

मत बनो वो जो सबको खुश करता है लेकिन खुद के सत्य से दूर चला जाता है। जो तुम्हारा है, वही तुम्हें करना है। भले ही उसमें संघर्ष हो, अकेलापन हो, या समाज की नाराज़गी।

इस अराजकता में खुद के पास लौटना ही समाधान है।
अपनी जीवन-नीति बनाओ।
अपने मूल्य तय करो।
अपनी सीमाएं जानो।
और सबसे बढ़कर, आंतरिक शांति को बाहरी परिपूर्णता पर प्राथमिकता दो।

हर निर्णय में सफेद या काला नहीं होगा। कई बार दोनों ही राहें सही या गलत लगेंगी और तब, सबसे बड़ा साहस यह होगा। थोड़ी देर रुक जाना। शब्दों को नहीं, हृदय को बोलने देना।

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निष्कर्ष: जीवन के शोर में मौन की शक्ति, अपने मन को थोड़ी देर मौन में बैठाओ। प्रश्नों को आने दो पर उनसे लड़ो मत। अपने भीतर की आवाज़ को सुनो, वह जो डर से नहीं, प्रेम से बोलती है। अंततः जीवन सही निर्णयों का खेल नहीं है। यह सही स्थिति से उठे निर्णयों की यात्रा है। कभी-कभी सबसे अच्छा निर्णय कोई निर्णय न लेना होता है। बस चेतना में ठहर जाना और जो होना है, उसे सहज होने देना। जैसा गीता में अंतिम और श्रेष्ठ संदेश है:

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सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। सब धर्मों को छोड़कर मेरी शरण में आ जा।

जब सब भ्रमित करे, तो समर्पण कर दो। जीवन को, प्रेम को, ईश्वर को या उस मौन आत्मा को जो तुममें वास करती है। जो होना है, वह होगा लेकिन तब जब तुम भीतर से स्थिर हो। अपने जीवन को एक बहती नदी बनने दो न कि उलझे विकल्पों का बंद बांध।

डॉ. तनु जैन, सिविल सेवक और आध्यात्मिक वक्ता
रक्षा मंत्रालय

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