Ganesh Shankar Vidyarthi birth anniversary: कलम को हथियार बनाकर अंग्रेजों की नींद उड़ा ले गए थे गणेश शंकर विद्यार्थी

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 25 Oct, 2023 06:49 AM

ganesh shankar vidyarthi birth anniversary

कलम की ताकत हमेशा तलवार से अधिक रही है और ऐसे कई पत्रकार हैं, जिन्होंने अपनी कलम से सत्ता की राह तक बदल दी। क्रांतिकारी गणेश शंकर विद्यार्थी

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Ganesh Shankar Vidyarthi birth anniversary: कलम की ताकत हमेशा तलवार से अधिक रही है और ऐसे कई पत्रकार हैं, जिन्होंने अपनी कलम से सत्ता की राह तक बदल दी। क्रांतिकारी गणेश शंकर विद्यार्थी भी ऐसे ही पत्रकार थे, जिन्होंने अपनी कलम की ताकत से अंग्रेजी शासन की नींव हिला दी थी। वह महात्मा गांधी के अहिंसक समर्थकों और क्रांतिकारियों को समान रूप से देश की आजादी में सक्रिय सहयोग प्रदान करते रहे। गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म प्रयाग के अतरसुइया मोहल्ले में 25 अक्तूबर, 1890 को पिता श्री जयनारायण और माता गोमती देवी के घर हुआ था।

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गणेश को स्थानीय एंग्लो वर्नाक्युलर स्कूल में भर्ती करा दिया गया। प्रारंभिक शिक्षा लेने के बाद गणेश ने अपने बड़े भाई के पास कानपुर आकर हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। फिर प्रयाग आकर इंटर में प्रवेश लिया। कॉलेज के समय से पत्रकारिता की ओर झुकाव हुआ और भारत में अंग्रेजी राज के यशस्वी लेखक पंडित सुन्दर लाल कायस्थ इलाहाबाद के साथ उनके हिंदी साप्ताहिक ‘कर्मयोगी’ के सम्पादन में सहयोग देने लगे। उसी दौरान उनका विवाह हो गया, जिससे पढ़ाई खंडित हो गई लेकिन तब तक उन्हें लेखन एवं पत्रकारिता का शौक लग चुका था, जो अंत तक जारी रहा। विवाह के बाद घर चलाने के लिए धन की आवश्यकता थी, अत: वह फिर कानपुर भाई के पास आ गए।

1908 कानपुर में एक बैंक में 30 रुपए महीने पर नौकरी की और एक साल बाद उसे छोड़कर पी.पी.एन. हाई स्कूल में अध्यापन कार्य करने लगे। यहां भी अधिक समय तक उनका मन नहीं लगा तो इसे छोड़कर प्रयाग आ गए और 1911 में ‘सरस्वती पत्र’ में पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी के सहायक के रूप में नियुक्त हुए। कुछ समय बाद ‘सरस्वती पत्र’ छोड़कर ‘अभ्युदय’ में सहायक संपादक के रूप में सितंबर, 1913 तक रहे। 9 नवंबर, 1913 को कानपुर से स्वयं अपना हिंदी साप्ताहिक ‘प्रताप’ के नाम से निकाला।

इस समाचार पत्र के प्रथम अंक में ही इन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि हम राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन, सामाजिक-आर्थिक क्रांति, जातीय गौरव, साहित्यिक सांस्कृतिक विरासत और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करेंगे। इन्होंने लोकमान्य तिलक को अपना राजनीतिक गुरु माना, किंतु राजनीति में गांधी जी के अवतरण के बाद उनके अनन्य भक्त हो गए। श्रीमती एनी बेसेंट के ‘होमरूल’ आंदोलन में विद्यार्थी जी ने बहुत लगन से काम किया और कानपुर के मजदूर वर्ग के एक छात्र नेता हो गए। वह अंग्रेज शासकों की निगाह में खटकने लगे।

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22 अगस्त, 1918 को ‘प्रताप’ में प्रकाशित नानक सिंह की ‘सौदा-ए-वतन’ नामक कविता से नाराज अंग्रेजों ने विद्यार्थी जी पर राजद्रोह का आरोप लगाया व ‘प्रताप’ का प्रकाशन बंद करवा दिया। साप्ताहिक ‘प्रताप’ के प्रकाशन के 7 वर्ष बाद 1920 में विद्यार्थी जी ने उसे दैनिक कर दिया। अधिकारियों के अत्याचारों के विरुद्ध निर्भीक होकर ‘प्रताप’ में लेख लिखने के कारण विद्यार्थी जी को झूठे मुकद्दमों में फंसाकर जेल भेज दिया और भारी जुर्माना लगाकर उसका भुगतान करने को विवश किया।

वह 5 बार जेल गए। अपने जेल जीवन में इन्होंने विक्टर ह्यूगो के दो उपन्यासों, ‘ला मिजरेबल्स’ तथा ‘नाइंटी थ्री’ का अनुवाद किया। वह क्रांतिकारियों की भी हर प्रकार से सहायता करते थे। रोटी और दवा से लेकर उनके परिवारों के भरण-पोषण की भी चिंता वह करते थे। क्रांतिकारी भगत सिंह ने भी कुछ समय तक विद्यार्थी जी के समाचार पत्र ‘प्रताप’ में काम किया था।

जब भगत सिंह व अन्य क्रांतिकारियों की फांसी का समाचार देश भर में फैल गया तो लोगों ने जुलूस निकाल कर शासन के विरुद्ध नारे लगाए। इससे कानपुर में मुसलमान भड़क गए और उन्होंने भयानक दंगा किया। इसी भयानक हिंदू-मुस्लिम दंगों में गणेश शंकर विद्यार्थी की नि:सहायों को बचाते हुए 25 मार्च, 1931 को बड़ी बेरहमी से टुकड़े-टुकड़े कर उनकी हत्या कर दी गई। उनकी केवल एक बांह मिली, जिस पर लिखे नाम से वह पहचाने गए। नम आंखों से 29 मार्च को विद्यार्थी जी का अंतिम संस्कार कर दिया गया।

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