Muharram: पढ़ें, मोहर्रम का इतिहास

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 29 Jul, 2023 09:42 AM

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हजरत अली (रजि) की शहादत के बाद खिलाफत (हकूमत) के मुद्दे पर एकबार फिर मुसलमानों में तलवारें तन गईं और वह समय दूर नहीं था

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Muharram 2023: हजरत अली (रजि) की शहादत के बाद खिलाफत (हकूमत) के मुद्दे पर एकबार फिर मुसलमानों में तलवारें तन गईं और वह समय दूर नहीं था जब मुसलमानों का खून पानी की तरह बह जाता परंतु हजरत हसन ने बहुत बुद्धिमत्ता से काम लेकर अपना दावा वापस ले लिया, जबकि उनके भाई हजरत हुसैन ने उनको इस तरह करने से रोका भी।

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हजरत हसन के देहांत के बाद चाहे हजरत हुसैन ने हजरत माविया (उस समय के खलीफा) की हकूमत को स्वीकार नहीं किया परन्तु उनका आपस में रिश्ता बढ़िया रहा। अमीर माविया ने अपनी जिंदगी में ही अपने पुत्र यजीद को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था। कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्होंने उसे खलीफा मानने से साफ इन्कार कर दिया था, जिनमें हजरत हुसैन का नाम सब से आगे था।

मरने से पहले अमीर माविया ने अपने पुत्र यजीद को वसीयत की थी कि वह हजरत हुसैन को उसे खलीफा मानने के लिए मजबूर न करे क्योंकि उसकी रगों में हजरत मोहम्मद साहब का खून है। यजीद ने हकूमत के नशे में इस वसीयत की कोई परवाह न की और मदीने के हाकिम को लिख भेजा कि हजरत हुसैन को मुझे हाकिम मानने के लिए मजबूर करे।

हजरत हुसैन किसी तरह भी न माने और कहा कि चाहे मेरी जान जाए, दौलत जाए, औलाद जाए या दुनिया की मुसीबतें मुझ पर टूट पड़ें, परन्तु मैं यह बर्दाश्त नहीं कर सकता कि सत्य से परे हट कर एक जालिम से हाथ मिला लूं। आप मदीने से मक्का -मुकर्रमा आ गए। शहर कुफा, जो हजरत अली की खिलाफत के समय राजधानी रह चुका था, जब वहां के लोगों को पता लगा कि हजरत हुसैन परेशान हैं और मक्का पहुंच गए हैं तो उन्होंने लिख भेजा कि आप कुफा आ जाओ। उन्होंने हजरत हुसैन को यहां तक भरोसा दिलाया कि हमारी फौजें तक आपका साथ देने के लिए तैयार हैं।

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आप उन की बात पर भरोसा करके अपने काफिले समेत कुफा की तरफ चल पड़े। दूसरी  तरफ जब यजीद को पता लगा कि हजरत हुसैन कुफा की तरफ जा रहे हैं तो उसने फौरन कुफा के हाकिम को बदल दिया और उसकी जगह इब्ने ज्याद (ज्याद के पुत्र) को वहां हाकिम बना कर भेज दिया। वह बहुत पत्थर-दिल और जालिम व्यक्ति था। उसने कुफा के बहुत से लोगों को डरा-धमका कर अपने साथ लगा लिया।

हजरत हुसैन को रास्ते में ही कुफा के लोगों की वायदा खिलाफी का पता चल गया और यह भी कि उनके चचेरे भाई हजरत मुस्लिम बिन अकील और उन के दो बच्चों को भी शहीद कर दिया गया है। हजरत हुसैन ने अपने साथियों को कहा कि यदि आप में से कोई वापस जाना चाहे तो वह जा सकता है परन्तु मैं ईश्वर की रजा (मर्जी) के साथ निकला हूं और इसलिए वापस नहीं जाऊंगा।
कोई भी उन का साथी वापस नहीं गया। आखिर इस्लामी कैलेंडर के पहले महीने, अर्थात मुहर्रम की 2 तारीख को यह काफिला फरात दरिया के किनारे कर्बला के मैदान में पहुंच गया। यहां पहुंच कर पता लगा कि सारा मामला ही उलट है परन्तु आप ने दुश्मनों के आगे झुकने और उन की कोई भी शर्त मानने से साफ इन्कार कर दिया। यजीद की फौजों ने आपके काफिले का पानी बंद कर दिया।

इसके बाद किसे पता नहीं कि क्या हुआ! करबला के मैदान की तपती हुई रेत, रेगिस्तान की झुलसने वाली गर्मी और लू, ऊपर से पानी बंद। अपने बच्चों को अपने सामने शहीद होते देखा परंतु हजरत हुसैन वह अजीम व्यक्ति साबित हुए कि एक-एक कर अपने सभी सगे-संबंधी शहीद करवा दिए परन्तु जुल्म और जालिम के आगे सिर नहीं झुकाया। मुहर्रम उसी घटना का शोक पर्व है।

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