Gurudev Sri Sri Ravi Shankar: नवरात्रि का उत्सव क्यों है आत्मा की शुद्धि का माध्यम?

Edited By Updated: 21 Sep, 2025 02:00 PM

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क्या आप जानते हैं कि रात को रात्रि क्यों कहा जाता है? रा का अर्थ है – जो शांति या विश्राम दे, और त्रि का अर्थ है – तीन प्रकार की परेशानियों से: शारीरिक, पर्यावरणीय और मानसिक।

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Gurudev Sri Sri Ravi Shankar Ji: क्या आप जानते हैं कि रात को रात्रि क्यों कहा जाता है? रा का अर्थ है – जो शांति या विश्राम दे, और त्रि का अर्थ है – तीन प्रकार की परेशानियों से: शारीरिक, पर्यावरणीय और मानसिक। जो इन तीन प्रकार की कठिनाइयों से राहत दिलाए, वही है रात्रि। रात सबको हर प्रकार की थकान और बोझ से मुक्त करती है। वह आपको अपनी गोद में लेकर सुला देती है। देखिए, कोई भी पशु-पक्षी रात में चिंता नहीं करता। सब सुख से सो जाते हैं। रात सभी को, चाहे वह प्रसन्न हो या अप्रसन्न, अपने में समा लेती है और दुख से मुक्ति देती है।

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नवरात्रि का अर्थ है 'नई रात' या 'नौ रातें' – दोनों ही शब्द ताजगी और नवीनता का प्रतीक हैं। जैसे शिशु नौ माह तक मां के गर्भ में विश्राम करता है, वैसे ही नवरात्रि के नौ दिनों में आप अपने स्रोत में लौटते हैं। इन दिनों में सांसारिक चिंताओं से मन हटाकर आत्मचिंतन करें - ‘मैं कौन हूं?’, ‘यह संसार क्या है?’ यह अनंत चेतना के सागर में डुबकी लगाने जैसा है। जब मन वासनाओं, द्वेष, असुरक्षा या भय में फंस जाता है, तो आप बेचैन, दुखी और अप्रभावी हो जाते हैं। नवरात्रि की इन नौ रातों में, आप अपने भीतर की उस शक्ति – शक्ति – तक पहुंच सकते हैं, जो सबका मूल है। नौ रातों के अंत में, आप विजयी, रचनात्मक और आनंदमय होकर निकलते हैं।

यदि आप प्रकृति को देखें, तो वृक्ष तो सदा रहता है, पर उसका स्वरूप हर ऋतु में बदलता है। वसंत में वृक्ष फूलता-फलता है, ग्रीष्म में फल और फूल देता है, शरद में पत्तियां रंग बदलकर गिरती हैं और शीत ऋतु में वृक्ष भीतर सिमट जाता है। ठीक ऐसे ही, नवरात्रि भी दैवी चेतना और आत्मा की अभिव्यक्ति है। दैवत्व सदा विद्यमान है, पर ये विशेष समय ऐसे होते हैं जब स्वयं काल भी दैवत्व का उत्सव मनाता है और उत्सव में हम क्या करते हैं? हम सब कुछ साफ करते हैं। उत्सव का अर्थ ही है – उन तीन प्रकार की मलिनताओं को दूर करना, जो हमारे स्वाभाविक आनंद को ढक लेती हैं और हमारी सार्वभौमिक प्रकृति को पहचानने में बाधा डालती हैं। ये तीन परदे हैं: कर्ममल, मायीयमल, और आनवमल।

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कर्ममल – वासनाएं, द्वेष, पसंद-नापसंद जो हमारे असली स्वरूप को ढक लेते हैं।
मायीयमल – गलत पहचान, अर्थात जब आप स्वयं को वह मान लेते हैं जो आप वास्तव में नहीं हैं, और क्षणिक चीजों से जुड़ जाते हैं।
आनवमल – अनंत के अनुभव को थामे रखने में असमर्थता; आपको आनंद की झलक मिलती है, पर आप उस अवस्था में टिक नहीं पाते। इन मलिनताओं से मुक्ति ही उत्सव और आत्मा के उत्कर्ष का कारण है।

भक्ति में लीन रहें, क्योंकि दैवी चेतना आपको  बिना शर्त के बेहद पसंद करती है। यह मत सोचिए कि केवल आप ही अनंत की तलाश में हैं; अनंत भी आपकी तलाश में है! प्राचीन लोग सभी देवी-देवताओं को कमल पर बिठाते थे। इसका अर्थ है – जब हमारी चेतना खिले हुए कमल जैसी सुंदर और कोमल हो जाती है, तब उसमें दैवत्व का वास होता है। हमारा मन ही सहस्त्रदल कमल है, और जब यह खिल जाता है, तो दैवत्व उसमें पहले से ही विद्यमान होता है। आपको बाहर कहीं ढूंढ़ने  की आवश्यकता नहीं है।

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