Edited By Punjab Kesari,Updated: 02 Feb, 2018 11:44 AM
महर्षि दधीचि अपने बाल्यकाल से ही परोपकारी एवं साहसी थे। एक बार एक पेड़ पर एक जहरीला सांप चढ़ गया। उस पेड़ पर एक तोते का परिवार रहता था। सांप ने तोते के नन्हे से बच्चे को पकड़ लिया।
महर्षि दधीचि अपने बाल्यकाल से ही परोपकारी एवं साहसी थे। एक बार एक पेड़ पर एक जहरीला सांप चढ़ गया। उस पेड़ पर एक तोते का परिवार रहता था। सांप ने तोते के नन्हे से बच्चे को पकड़ लिया। बच्चा बचने के लिए फडफ़ड़ाने लगा। अपने बच्चे की मृत्यु नजदीक देख तोता और तोती बिलखने लगे।
पेड़ के नीचे तमाशबीनों की भीड़ जुट गई लेकिन किसी ने तोते के बच्चे को बचाने की हिम्मत नहीं दिखाई। वहीं पास में दधीचि खेल रहे थे। शोर सुनकर वह वहां पहुंचे। वस्तुस्थिति समझते ही वह पेड़ पर चढ़ गए। नीचे खड़े लोग चिल्लाने लगे, ‘‘दधीचि! नीचे उतर आओ। सांप तुम्हें डंस लेगा।’’
दधीचि बोले, ‘‘जीव की रक्षा करना मनुष्य का धर्म है। मैं तोते के परिवार को विपत्ति में पड़ा देख उससे मुंह नहीं मोड़ सकता।’’
उन्होंने लकड़ी मार-मार कर सांप के मुंह से बच्चे को छुड़ा लिया। अपने बच्चे को जीवित देख तोता और तोती चहचहा उठे। इससे पहले कि क्रोधित सांप उन पर हमला करता उन्होंने पेड़ से छलांग लगा ली। उन्हें काफी चोटें आईं। लोगों ने उनसे पूछा, ‘‘दधीचि! तुम्हें डर नहीं लगा?’’
महर्षि ने उत्तर दिया, ‘‘डरना कैसा? डरना है तो गलत काम करने से डरो। अच्छा कार्य करने वालों की रक्षा तो स्वयं भगवान करते हैं।’’
दधीचि की यह लोकरक्षा की भावना आगे इतनी प्रगाढ़ हो गई कि उन्होंने अपने शरीर की हड्डियां तक असुरता के नाश हेतु दान दे डालीं।