तैलंग स्वामी मठ: भगवान कृष्ण का विचित्र विग्रह है यहां

Edited By Updated: 16 Jan, 2017 02:40 PM

tailang swamy mutt  here is a strange deity of lord krishna

कोई भी देश उस भूमि को धन्य करने वाले साधु-संतों के तेज से आलौकित होता है। ऐसे ही संत इस पावन धरा पर प्रकट हुए तैलंग स्वामी। इनका जन्म दक्षिण भारत के विजियाना जनपद

कोई भी देश उस भूमि को धन्य करने वाले साधु-संतों के तेज से आलौकित होता है। ऐसे ही संत इस पावन धरा पर प्रकट हुए तैलंग स्वामी। इनका जन्म दक्षिण भारत के विजियाना जनपद के होलिया नगर में हुआ। बाल्यावस्था में इनका नाम तैलंगधर था। उनमें बचपन से ही आत्मचिंतन तथा वैराग्य की प्रवृत्ति थी। माता की मृत्यु के पश्चात उनकी माता की जहां चिता थी वे वहीं बैठ गए। आगे लोगों ने वही कुटी बना दी। लगभग 20 वर्ष की योगसाधना के पश्चात देशाटन पर निकल पड़े। इस दौरान पटियाला नगर में भाग्यवश भागीरथ स्वामी महाराज का उन्हें दर्शन प्राप्त हुआ जिन्होंने इनको संन्यास दीक्षा दी।


इसके पश्चात तैलंग स्वामी ने बहुत दिनों तक नेपाल, तिब्बत, गंगोत्री, यमुनोत्री, मानसरोवर आदि में कठोर तपस्या कर अनेक सिद्धियां भी प्राप्त कर लीं। रामेश्वरम, प्रयाग, नर्मदा घाटी, उज्जैन आदि अनेक तीर्थ स्थानों में निवास और साधना करते हुए काशी पहुंचे। वहां मणिकर्णिका, राजघाट, अस्सी आदि क्षेत्रों में रहने के बाद अंत में पंचगंगाघाट पर स्थायी रूप से रहने लगे जहां आज भी तैलंग स्वामी का मठ है। इस मठ में स्वामी जी द्वारा पूजित भगवान कृष्ण का एक विचित्र विग्रह है जिसके ललाट पर शिवलिंग और सिर पर श्रीयंत्र चित्रित है।


मंडप के 20-25 फुट नीचे गुफा है जिसमें बैठकर स्वामी जी साधना करते थे। मठ की बनावट काफी पुरानी है। काशी में स्वामी जी जहां कहीं जाते कोई न कोई ऐसी घटना घटती जो अत्यंत चमत्कारपूर्ण होती और लोग उन्हें घेरने लगते। भीड़ बढ़ते ही स्वामी जी वह स्थान छोड़कर कहीं अन्यत्र निर्जन स्थान में चल देते।


मणिकर्णिका घाट पर दिन-रात धूप और शीत में स्वामी जी पड़े रहते। उनका कहना था कि जीवित रहने के लिए प्राणवायु या किसी विशेष साधना, क्रम, अपक्रम या खुराक की जरूरत नहीं। सिद्ध साधक यौगिक साधना से घनीकृत तेजस द्वारा जीवित रहने की शक्ति प्राप्त कर लेते हैं। अस्तु उन्हें प्राकृतिक नियमों और क्रमों का अपघात करने में कठिनाई नहीं होती। 


मनोजय और कुंडलिनी जागरण द्वारा शरीर और प्राण को जैसा चाहे कर लेना साधारण सी बात है। अपनी मृत्यु का समय आने पर उन्होंने अपने सब शिष्यों और भक्तों को एक दिन पहले ही उसकी सूचना दे दी थी। संवत 1944 (सन 1887) की पौष सुदी 11 (उस वर्ष 8 जनवरी) को संध्या के समय उन्होंने योगासन पर बैठ कर चित्त को एकाग्र करके देह त्याग कर दिया। 

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