Edited By Niyati Bhandari,Updated: 29 Jun, 2018 12:43 PM
इच्छन्ति देवा: सुन्वन्त: न स्वप्नाय स्पृहयन्ति। यन्ति प्रमादमतन्द्रा: । ऋग्वेद 8.2.18
प्रस्तुत मंत्र में ‘देवता’ के जो स्वरूप बताए गए हैं, वे सब के लिए अनुकरणीय हैं। ‘देवता’ शब्द सुनते ही जहां सूर्य, चंद्र, अग्नि आदि देवताओं का विचार उभरता है, वहीं...
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इच्छन्ति देवा: सुन्वन्त: न स्वप्नाय स्पृहयन्ति। यन्ति प्रमादमतन्द्रा: । ऋग्वेद 8.2.18
प्रस्तुत मंत्र में ‘देवता’ के जो स्वरूप बताए गए हैं, वे सब के लिए अनुकरणीय हैं। ‘देवता’ शब्द सुनते ही जहां सूर्य, चंद्र, अग्नि आदि देवताओं का विचार उभरता है, वहीं मननशील मनुष्यों के मन में प्रश्र उठते हैं कि क्या हम भी देवता बन सकते हैं? हम देवता कैसे बनें?
देव शब्द ‘दिव्’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है प्रकाशमान होना। देव शब्द में ‘तल्’ प्रत्यय लगाने से ‘देवता’ शब्द की व्युत्पत्ति होती है। आचार्य यास्क ने ‘देवता’ शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है कि : ‘जो दान देता है वह देव है। देव स्वयं द्युतिमान होते हैं, शक्ति-सम्पन्न होते हैं। देव अपने गुण स्वयं अपने में समाहित किए रहते हैं। देव अपने द्युति, शक्ति आदि का अपने संपर्क में आए व्यक्तियों तक संप्रेषण करते हैं, जो देव है, वही देवता है।’
इससे स्पष्ट है कि आत्मज्ञान से सम्पन्न कोई भी मनुष्य यथार्थ आचरण करके स्वयं देवता बन सकता है, चाहे वह विद्या से सम्पन्न हो या किसी अन्य संसाधन से।
मननशील मनुष्य की यह प्रवृत्ति होती है कि ज्ञान बढऩे से और भी अधिक ज्ञान प्राप्त करने की उसकी लालसा बढ़ती चली जाती है क्योंकि एक समाधान अनेक प्रश्रों को जन्म देता है। इस प्रवृत्ति के कारण मानव के मानस पटल पर अनेक प्रश्र उभरते हैं और पवित्र विवेक ज्ञान के कारण यथायोग्य समाधान को प्राप्त कर मानव के व्यक्तित्व को परि-प्रकाशित करते हैं।
देवता लोग, अर्थात् ज्ञानी-गुणी-विद्वान लोग धन का सदा सदुपयोग करते हैं। शास्त्रकारों ने बताया है कि धन की तीन गतियां होती हैं : दान, भोग और नाश।
ये तीन गतियां ही धन की हो सकती हैं, जो न देता है और न ही भोगता है उसके धन की तीसरी गति (नाश) हो जाती है।
मनुष्य जब धन को प्राप्त करने के लिए उत्तम पुरुषार्थ करता है, वह नहीं चाहेगा कि उसके धन को अधमगति प्राप्त हो। शेष बचे दो विकल्पों में भोग की एक सीमा है। मनुष्य सुंदर से सुंदर वस्त्रों, आभूषणों एवं अन्य सभी भौतिक पदार्थों पर एक सीमा से अधिक खर्च नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में केवल एक ही विकल्प शेष बचता है-दान, जो पुरुषार्थ से प्राप्त धन की उत्तम गति है।
जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जब हम उत्तम स्थिति को प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं तो धन की गति के संदर्भ में हम मध्यम या अधम गति से स्वयं को क्यों संतुष्ट रखें?
प्रत्येक को अपनी आवश्यक जरूरतों को पूरा करने के बाद अधिक से अधिक दान द्वारा नेक कमाई का सदुपयोग करते हुए इहलोक के साथ-साथ परलोक को भी सुधारने का प्रयास करना चाहिए। अथर्ववेद (3.29.1) में समाज कल्याण (इष्ट आपूर्त) के लिए राज्य शासन को अपनी कमाई का सोलहवां भाग दान करने का निर्देश दिया गया है, इसके लिए हमें हरसंभव प्रयास अवश्य करना चाहिए।
धन के अलावा विद्या अर्थात् ज्ञान का दान भी दिया जा सकता है। हम जानते हैं कि ज्ञान को जितना बांटा जाए, वह उतना ही बढ़ता है। फिर हम विद्या का दान करने में संकोच क्यों करें।
संसाधन दान में अन्नदान, श्रमदान, गोदान के अतिरिक्त हम सब प्रयोग किए जा चुके ऐसे भौतिक पदार्थों का दान भी कर सकते हैं, जिनकी हमें आवश्यकता नहीं रही। ऐसे साधन हमारे लिए नहीं तो अभावपूर्ण जिंदगी गुजार रहे परिवारों की जरूरतों को पूरा करने में सक्षम हो सकते हैं।
कुछ अन्य प्रकार के दान भी हैं जैसे रक्तदान, नेत्रदान, अंगदान और देहदान परंतु दुख की बाद यह है कि रक्तदान, नेत्रदान आदि में हममें से अधिकांश की भागीदारी नगण्य है। रक्तदान किसी भी स्वस्थ मनुष्य द्वारा तीन मास के अंतराल पर किया जा सकता है। हम इस भ्रांति को दूर करें कि रक्तदान करने से शारीरिक कमजोरी आती है। हम इस भावना को अपनाएं कि ‘जीते जी रक्तदान, मरणोपरांत नेत्रदान।’
मृत्यु के बाद नेत्रदान या अंगदान से किसी जरूरतमंद को नया जीवन मिल सकता है। आज ही प्रण करें कि जीते जी यथासंभव रक्तदान करेंगे और मृत्यु के उपरांत नेत्रदान, अंगदान एवं देहदान के द्वारा सद्गति प्राप्त करके परलोक को सुधारने का प्रयास करेंगे।
लोक में कहावत है, ‘दानशील ही भाग्यवान बनता है।’ दान से हिंसा और द्वेष का अंत होता है। दान-पुण्य करने से अंतकरण पवित्र होता है। दान करने पर मन में असीम शांति का अनुभव होता है। इहलोक में दिया गया दान विशुद्ध कर्माशय का रूप लेकर परलोक को भी सुधार देता है। अत: जब कभी भी कोई शुभ विचार मन में आए, उसे उसी समय क्रियान्वित करें। दान देना अति शुभ कर्म है, इसलिए मन में दान का विचार आते ही शीघ्रता से उसे क्रियान्वित करते रहें।
जन्मदिवस, वैवाहिक वर्षगांठ, स्मृति दिवस, संतानों के जन्म दिवस आदि विशेष महत्व वाले दिवसों पर दान देकर इन दिवसों को हम अधिक यादगारी बना सकते हैं। इसके अतिरिक्त हमें जीवन यात्रा के दौरान अनेक अवसरों पर जरूरतमंदों द्वारा सहयोग के लिए आग्रह किया जाता है। इनके आग्रह की सत्यता जानने के उपरांत हम उनकी जरूरतों को पूरा करके देवता बन सकते हैं। सारांश में, हम स्वयं पर ही केंद्रित न रहें, अपितु समाज के लिए कुछ करने का प्रयास करते हुए देवता बनने की शुरूआत करें।
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