जानिए, श्रीराधा के अवतार चैतन्य महाप्रभु पूर्णावतार का रहस्य...

Edited By ,Updated: 10 Aug, 2015 11:12 AM

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चैतन्य महाप्रभु का प्राकट्य शक-संवत् 1407 में फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष 15 को दिन के समय पश्चिम बंगाल के नवद्वीप नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र और माता का नाम शची देवी था। चैतन्य महाप्रभु भगवान श्री कृष्ण के अनन्य भक्त थे।

चैतन्य महाप्रभु का प्राकट्य शक-संवत् 1407 में फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष 15 को दिन के समय पश्चिम बंगाल के नवद्वीप नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र और माता का नाम शची देवी था। चैतन्य महाप्रभु भगवान श्री कृष्ण के अनन्य भक्त थे।

इन्हें लोग श्रीराधा का अवतार मानते थे। बंगाल के वैष्णव तो इन्हें साक्षात् पूर्णब्रह्म ही मानते हैं। इनके जीवन के अंतिम छ: वर्ष राधाभाव में ही बीते। उन दिनों इनके अंदर महाभाव के सारे लक्षण प्रकट हुए थे। जिस समय ये श्रीकृष्ण के विरह में उन्मत्त होकर रोने और चीखने लगते थे, उस समय पत्थर का हृदय भी पिघल जाता था। 

इनके व्यक्तित्व का लोगों पर ऐसा विलक्षण प्रभाव पड़ा कि कुछ प्रसिद्ध अद्वैत वेदांती भी इनके थोड़ी देर के संग से श्रीकृष्ण प्रेमी बन गए। यही नहीं, इनके विरोधी भी इनके भक्त बन गए और जगाई-मधाई जैसे महान दुराचारी भी संत बन गए। कई बड़े-बड़े संन्यासी भी इनके अनुयायी हो गए। यद्यपि इनका प्रधान उद्देश्य भगवद् भक्ति और भगवन्नाम का प्रचार करना और जगत में प्रेम और शांति का साम्राज्य स्थापित करना था, तथापि इन्होंने दूसरे धर्मों और दूसरे साधनों की कभी निंदा नहीं की।

इनके भक्ति सिद्धांत में द्वैत और अद्वैत का बड़ा सुंदर समन्वय हुआ। इन्होंने कलिमल ग्रसित जीवों के उद्धार के लिए भगवन्नाम के जप और कीर्तन को ही मुख्य और सरल उपाय माना है। इनकी दक्षिण यात्रा में गोदावरी के तट पर इनका अपने शिष्य राय रामानंद के साथ बड़ा विलक्षण संवाद हुआ, जिसमें इन्होंने राधाभाव को सबसे ऊंचा भाव बतलाया। इन्होंने अपने शिक्षाष्टक में अपने उपदेशोंं का सार भर दिया है: 

* भगवान श्रीकृष्ण के नाम और गुणों का कीर्तन सर्वोपरि है, उसकी तुलना में और कोई साधन नहीं ठहर सकता। वह चित्त रूपी दर्पण को स्वच्छ कर देता है, संसार रूपी घोर दावानल को बुझा देता है, कल्याण रूपी कुमुद को अपने किरण-जाल से विकसित करने वाला तथा आनंद के समुद्र को बढ़ा देने वाला चंद्रमा है, विद्या रूपिणी वधू को जीवन देने वाला है, पद-पद पर पूर्ण अमृत का आस्वादन कराने वाला तथा सम्पूर्ण आत्मा को शांति एवं आनंद की धारा में डुबो देने वाला है।

* भगवन! आपने अपने अनेक नाम प्रकट करके उनमें अपनी सम्पूर्ण भागवती शक्ति डाल दी, उन्हें अपने ही समान सर्वशक्तिमान बना दिया और उन्हें स्मरण करने का कोई समय विशेष भी निर्धारित नहीं किया। हम जब चाहें, तभी उन्हें याद कर सकते हैं। प्रभो! आपकी तो इतनी कृपा है परंतु मेरा दुर्भाग्य ही इतना प्रबल है कि आपके नाम-स्मरण में मेरी रुचि, मेरी प्रीति नहीं हुई। 

* तिनके से भी अत्यंत छोटा, वृक्ष से भी अधिक सहनशील, स्वयं मान रहित, किन्तु दूसरों के लिए मानप्रद बनकर भगवान श्रीहरि का नित्य-निरंतर कीर्तन करना चाहिए।

* हे जगदीश्वर! मुझे न धन-बल चाहिए, न जनबल, न सुंदर स्त्री और न कवित्व शक्ति अथवा सर्वज्ञत्व ही चाहिए। मेरी तो जन्म-जन्मांतरों में आप परमेश्वर के चरणों में अहैतुकी भक्ति अकारण प्रीति बनी रहे।

* अहो नंदनंदन! घोर संसार-सागर में पड़े हुए मुझ सेवक को कृपापूर्वक अपने चरण कमलों में लगे हुए एक रज:कण के तुल्य समझ लो।

* प्रभो! वह दिन कब होगा जब तुम्हारा नाम लेने पर मेरे नेत्र निरंतर बहते हुए आंसुओं की धारा से सदा भीगे रहेंगे, मेरा कंठ गद्गद् हो जाने के कारण मेरे मुख से रुक-रुक कर वाणी निकलेगी तथा मेरा शरीर रोमांच से व्याप्त हो जाएगा?

* अहो! श्रीगोविंद के विरह में मेरा एक-एक पल युग के समान बीत रहा है, नेत्रों में पावस ऋतु छा गई है। सारा संसार सूना हो गया है।

* वह चाहे मुझे गले से लगाए अथवा मुझको चरणों के तले दबाकर पीस डाले अथवा मेरी आंखों से ओझल रह कर मुझे मर्माहत करे। वह जो कुछ भी करे मेरा प्राणनाथ तो वही है, दूसरा कोई नहीं।

चैतन्य महाप्रभु भगवन्नाम के बड़े ही रसिक, अनुभवी और प्रेमी थे। इन्होंने बतलाया है कि यह महामंत्र सबसे अधिक लाभकारी और भगवत्प्रेम को बढ़ाने वाला है।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे 

भगवान्नाम का बिना श्रद्धा के उच्चारण करने से भी मनुष्य संसार के  दुखों से छूटकर भगवान के परमधाम का अधिकारी बन जाता है।

चैतन्य महाप्रभु ने हमें यह बताया है कि भक्तों को भगवन्नाम के उच्चारण के साथ दैवी सम्पत्ति का भी अर्जन करना चाहिए। दैवी सम्पत्ति के प्रधान लक्ष्ण उन्होंने बताए हैं- दया, अहिंसा, मत्सरशून्यता, सत्य, समता, उदारता, मृदुता, शौच, अनासक्ति, परोपकार, समता, निष्कामता, चित्त की स्थिरता, इंद्रिय दमन, युक्ताहार विहार, गंभीरता, परदुख कातरता, मैत्री, तेज, धैर्य इत्यादि। चैतन्य महाप्रभु आचरण की पवित्रता पर बहुत जोर देते थे। उन्होंने अपने संन्यासी शिष्यों के लिए यह नियम बना दिया था कि कोई स्त्री से बात तक न करे।

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