Edited By Niyati Bhandari,Updated: 27 Oct, 2019 08:03 AM
जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी अहिंसा के मूर्तिमान प्रतीक थे। उनका जीवन त्याग और तपस्या से ओत-प्रोत था। वर्धमान महावीर ने 12 साल तक मौन तपस्या की और तरह-तरह के कष्ट झेले।
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जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी अहिंसा के मूर्तिमान प्रतीक थे। उनका जीवन त्याग और तपस्या से ओत-प्रोत था। वर्धमान महावीर ने 12 साल तक मौन तपस्या की और तरह-तरह के कष्ट झेले। अंत में उन्हें ‘केवलज्ञान’ प्राप्त हुआ। ‘केवलज्ञान’ प्राप्त होने के बाद भगवान महावीर ने जनकल्याण के लिए उपदेश देना शुरू किया। अर्धमागधी भाषा में वह उपदेश करने लगे ताकि जनता उसे भली-भांति समझ सके। भगवान महावीर ने अपने प्रवचनों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह पर सबसे अधिक जोर दिया। त्याग और संयम, प्रेम और करुणा, शील और सदाचार ही उनके प्रवचनों का सार था। भगवान महावीर ने श्रमण और श्रमणी, श्रावक और श्राविका, सबको लेकर चतुर्विध संघ की स्थापना की।
उन्होंने कहा, ‘‘जो जिस अधिकार का हो, वह उसी वर्ग में आकर सम्यतत्व पाने के लिए आगे बढ़े।’’
जीवन का लक्ष्य है समता पाना। धीरे-धीरे संघ उन्नति करने लगा। देश के भिन्न-भिन्न भागों में घूमकर भगवान महावीर ने अपना पवित्र संदेश फैलाया। भगवान महावीर ने 72 वर्ष की अवस्था में ईसापूर्व 527 में पावापुरी (बिहार) में कार्तिक (आश्विन), कृष्ण अमावस्या को निर्वाण प्राप्त किया। इनके निर्वाण दिवस पर घर-घर दीपक जलाकर दीपावली मनाई जाती है।
हमारा जीवन धन्य हो जाए यदि हम भगवान महावीर के इस छोटे से उपदेश का ही सच्चे मन से पालन करने लगें कि संसार के सभी छोटे-बड़े जीव हमारी ही तरह हैं, हमारी आत्मा का ही स्वरूप हैं। भगवान महावीर का आदर्श वाक्य-मित्ती में सव्व भूएसु। ‘सब प्राणियों से मेरी मैत्री है।’ महावीर के अमृत वचनसंसार के सभी प्राणी समान हैं, कोई भी प्राणी छोटा या बड़ा नहीं है। सभी प्राणी अपनी आत्मा के स्वरूप को पहचान कर स्वयं भगवान बन सकते हैं।
यदि संसार के दुखों, रोगों, जन्म-मृत्यु, भूख-प्यास आदि से बचना चाहते हों तो अपनी आत्मा को पहचान लो, समस्त दुखों से बचने का एक इलाज है। दूसरों के साथ वह व्यवहार कभी मत करो जो स्वयं को अच्छा न लगे। जो वस्त्र या शृंगार देखने वाले के हृदय को विचलित कर दे, ऐसे वस्त्र, शृंगार सभ्य लोगों के नहीं हैं, सभ्यता जैनियों की पहचान है। किसी भी प्राणी को मार कर बनाए गए प्रसाधन प्रयोग करने वाले को भी उतना ही पाप लगता है जितना किसी जीव को मारने में। मद्य-मास-मधु (शहद)-पीपल का फल, बड़ का फल, ऊमर का फल, कठूमर, पाकर (अंजीर), द्विदल (दही-छाछ की कढ़ी, दही बड़ा आदि) को खाने में असंख्य जीवों का घात होने से मांस भक्षण पाप लगता है। संसार के सभी प्राणी मृत्यु से डरते हैं, जैसे हम स्वयं जीना चाहते हैं वैसे ही संसार के सभी प्राणी जीना चाहते हैं, इसलिए स्वयं जीओ और औरों को जीने दो।