ये हैं लावारिस लाशों के वारिस, अंतिम वक्त में देते है पूरा सम्मान

Edited By prachi upadhyay,Updated: 01 Aug, 2019 04:37 PM

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हमें मिली इस जिंदगी का सबसे बड़ा सच है ‘मौत’ और ‘शव’ उसका प्रमाण। लेकिन जिंदगीभर साथ देनेवाले भी कई बार आखिरी वक्त में साथ छोड़ देते हैं। सांसे बंद हो जाने के बाद आत्मा के साथ-साथ कई परिवार भी अपनों के मृत शरीर से मुंह मोड़ लेते हैं। ऐसे में वो मृत...

Dनेशनल डेस्क:  हमें मिली इस जिंदगी का सबसे बड़ा सच है ‘मौत’ और ‘शव’ उसका प्रमाण। लेकिन जिंदगीभर साथ देनेवाले भी कई बार आखिरी वक्त में साथ छोड़ देते हैं। सांसे बंद हो जाने के बाद आत्मा के साथ-साथ कई परिवार भी अपनों के मृत शरीर से मुंह मोड़ लेते हैं। ऐसे में वो मृत शरीर लावारिस कहलाती है। और इन लावारिस लाशों के साथ देते है कुछ ऐसे लोग जिनका जीते-जी इनसे कभी किसी तरह का कोई नाता नहीं रहा। आज हम आपको ऐसे ही लावारिस लाशों के वारिसों से मिलवाने जा रहे हैं। जिन्होने लावारिस शवों को उनके आखिरी सफर पर पूरे रीति रिवाज और सम्मान पहुंचाने को ही अपनी जिंदगी का मकसद बना लिया है।

भोपाल की वो हीराबाई, जो है लावारिस लाशों की बुआ

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भोपाल के हमीदिया अस्पताल के पास एक मंदिर है। जहां हीराबाई नाम की एक महिला आपको अक्सर मिल जाएंगी। लोग इन्हे इज्जत से बुआजी कहते है। हीराबाई के कारण आज जिले के ज्यादातर लावारिस लाशों को उचित क्रियाकर्म नसीब होता है। हीराबाई को ये नेक काम को करते-करते 26 साल हो गए, इस दौरान उन्होने 2500 से ज्यादा लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार कर चुकी हैं। वो बताती हैं कि वो केवल लावारिस ही नहीं उन लोगों की भी मदद करती है जिनके अपनों की मौत हो चुकी है और उनके पास उनके क्रियाक्रम के लिए पैसे नहीं होते। इसके लिए उन्होने कभी किसी से कोई दान या चंदा नहीं लिया।

कर्नाटक के आयूब अहमद, जो शवों को देते है पूरी इज्जत

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कर्नाटक के अयूब अहमद करीब दो दशक से लावारिस लाशों को वो इज्जत और सम्मान दे रहे हैं।एक बैर आयूब एक यात्रा पर जा रहे थे तो रास्ते में उन्हें एक शव पड़ा हुआ दिखा। लेकिन चौंकाने वाली बात ये है कि जब वो 10 घंटे बाद उसी रास्ते से वापस लौट रहे थे, तब भी उनको वो शव नहीं पड़ा हुआ मिला। इस घटना ने उन्हे अंदर तक झकझोर दिया। जिसके बाद उन्होने मृतकों की सेवा को ही अपना मकसद मान लिया। उनकी पत्नी और बच्चों ने तो उनका साथ लेकिन आयूब के खुद के पिता उनके इस मकसद के विरोध में इस कदर थे कि उन्होने अयूब को घर से निकाल दिया। लेकिन परिवार का विरोध और समाज के सवाल भी उनको उनके मकसद डिगा नहीं सका। आयूब इन बातों के आंकड़े नहीं रखते कि उन्होंने अब तक कितने शवों के अंतिम संस्कार किए हैं, लेकिन एक अंदाजे के तौर बताते हैं कि उन्होने अबतक करीब 10,000 शवों को अंतिम संस्कार किया होगा।

राम नगरी अयोध्यावाले चाचा शरीफ

राम नगरी अयोध्या में हैं एक मोहम्मद शरीफ, जिन्हे सब चाचा शरीफ कहते हैं। वैसे तो पेशे से वो एक साइकिल मैकेनिक है। लेकिन उनकी जिंदगी का मकसद है उन लाशों को बाइज्जत उनके आखिरी मुकाम पर पहुंचाना जिसकी सबने उपेक्षा कर दी है। दरअसल खुद चाचा शरीफ के 22 साल के बेटे को किसी ने मारकर उसकी लाश को लावारिस फेंक दिया। ये जख्म उनके दिल में इतने गहरे से उतरा कि उन्होने फैसला किया अब वो किसी को भी इस तरह के गम किसी को होने नहीं देंगे। जिसके बाद से उन्होने लावारिस लाशों से अपना रिश्ता जोड़ लिया। वो लावारिस लाशों का उनके धर्म के अनुसार अंतिम संस्कार करते हैं। उनका कहना है कि जबतक वो जिंदा है तब तक वो किसी भी मानव शरीर को कुत्तों के लिए या अस्पताल में सड़ने के लिए नहीं छोड़ेगे।

लोगों का आखिरी सफर पूरा करवाने वाले मुंबई के अब्दुल

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मुंबई के अब्दुल गनी मृत लोगों के आखिरी सफर को पूरा करने की जिम्मेदारी अपनो कधों पर ले रखी है। मायानगरी के शिवडी इलाक़े में मौजूद ट्यूबरक्लोसिस अस्पताल में कई बार मरीज की मौत हो जाने के बाद उनके परिजन उनका शव लेने तक नहीं आते है। ऐसे में उस लावारिस शव का सहारा बनते है अब्दुल गनी, जो मृतक के धर्म के अनुसार उसका पूरी अंतिम क्रिया करते है। अब्दुल बताते हैं कि उनके इस नेक काम के पीछे की वजह एक लड़की है। दरअसल इसी अस्पताल में वो अपने रिश्तेदार से मिलने आते थे, उनके बगल के बिस्तर पर एक 18 साल की लड़की थी। एक दिन उन्हें पता चला कि उस लड़की को उसके घरवालों ने मरने के लिए वहां अकेला छोड़ दिया है। इस बात अब्दुल को बहुत गहरा धक्का लगा और उस लड़की की मौत के बाद से अब्दुल ने इसी काम को अपना मक़सद बना लिया।

पटना के विजय जो हैं बेसहारा लाशों के सहारा

पटना के मछुआटोली के रहनेवाले विजय को लोगों लावारिस लाशों को मसीहा कहते है। किसी भी बेसहारा लाश का पता चलने पर विजय उसका पूरे नियम-धर्म के साथ अंतिम संस्कार करते हैं। विजय बताते हैं कि साल 1985 में उन्होने पटना मेडिकल कॉलेज की जमीन पर एक महिला की लावारिस पड़ी लाश को देखा। जानकारी लेने पर पता चला कि उसकी अंत्येष्टि बिना किसी रीति रिवाज के कर दी जाएगी। जिसे बाद उन्होने अस्पताल प्रशासन से उस महिला का अंतिम संस्कार करने की इजाजत मांगी और फिर पूरे रीतिरिवाज से उससे अंतिम सफर पर भेजा। इस घटना के बाद से विजय ने लावारिस शवों को सेवा को ही अपना धर्म बना लिया। उनकी इस नेक काम की वजह से ही पीएमसीएच में लावारिस लाशों का एक अलग से वॉर्ड बन चुका है जिसकी देख-रेख विजय ही करते हैं। विजय अपने इस नेक काम के लिए कभी किसी व्यक्ति, संस्थान या सरकार से पैसा नहीं लेते।

लावारिस लाशों को कफन देनेवाली बिलासपुर की कृष्णा माई

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बिलासपुर में एक बात मशहूर है कि अगर कोई लाश लावारिस है तो कृष्णा माई उसे कफन दें देंगी। शीतला माता के मंदिर की पुजारिन कृष्णा यादव करीब 25-30 साल से लावारिस लाशों को कपन दे रही हैं। वो बताती हैं कि जब उनके पति मंगीराम जिंदा थे तो वो खुद उन लाशों को कफन से ढंककर आते थे। लेकिन अब उनकी मौत के बाद कृष्णा के लिए ये कर पाना संभव नहीं है। 82 साल की कृष्णा देवी अब लावारिस लाशों को कफन और उनके क्रियाक्रम के लिए पैसे दे देती है और पुलिसवाले उसका अंतिम संस्कार कर देते हैं। आस-पास लोग बताते हैं कि पहले यहां धर्म अस्पताल था जहां हमेशा कोई न कोई लावारिस लाश आती थी। ऐसी एक लाश को देखकर कृष्णा माई ने उसको सम्मान के साथ अंतिम विदाई देने का बीड़ा उठाया। तब से शुरू हुआ ये सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है।

लावारिस लाशें पूछ रही हैं कानपुरवाले धनीराम का पता

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कानपुर में जब पुलिस को कोई लावारिस लाश मिलती है तो वो उसका पोस्टमार्टम कराने के बाद उसे गंगा नदी में फेंक देते हैं। धनीराम में जब कई बार इस तरह से लाशों को गंगा में फेंकते देखा तो उन्होने उन शवों के सही रीति रिवाज से विदा करने का फैसला किया। धनीराम ने अबतक करीब 5000 लावारिस शवों को उनके धर्म के अनुसार अंतिम क्रिया की है। लेकिन उनके इस नेक काम में ना तो सरकार, ना किसी संस्थान ने अबतक कोई मदद की है। धनीराम ने कई बार उत्तर प्रदेश सरकार मदद के लिए पत्र लिखा है लेकिन कहीं से कोई सहायता नहीं मिली। हां कई बार प्रदेश के राज्यपालों ने 30 हजार से लेकर 50 हजार रुपए तक की आर्थिक मदद की है। आज भी घनीराम शहर के पूंजीपतियों के पास जाकर लावारिश लाशों के लिए चंदा इकट्ठा करते हैं। कानपुर में लावारिस लाशें गंगा में यदि नहीं फेंकी जा रही हैं तो उसमें सबसे बड़ा योगदान धनीराम का और शहर में घूम रही उन गाड़ियों का जिस पर लिखा होता है ‘लावारिस लाशें पूछ रही हैं पता धनीराम का’   

      

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