चुनाव जीतने के लिए मोदी कुछ भी कह सकते हैं

Edited By Punjab Kesari,Updated: 14 Dec, 2017 03:07 AM

modi can say anything to win elections

क्या चुनाव जीतने के लिए नरेन्द्र मोदी कुछ भी कर सकते हैं? क्या एक राज्य का चुनाव जीतने का व्यक्तिगत और पार्टी हित राष्ट्रहित से भी बड़ा है? गुजरात चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चुनाव प्रचार में जिस तरह की बयानबाजी की वह हर भारतीय को...

क्या चुनाव जीतने के लिए नरेन्द्र मोदी कुछ भी कर सकते हैं? क्या एक राज्य का चुनाव जीतने का व्यक्तिगत और पार्टी हित राष्ट्रहित से भी बड़ा है? गुजरात चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चुनाव प्रचार में जिस तरह की बयानबाजी की वह हर भारतीय को यह सवाल पूछने पर मजबूर करती है। 

नरेन्द्र मोदी हर चुनाव में अपने आप को पूरी तरह झोंक देते हैं। यह उनकी राजनीति की खासियत है। 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने जिस तरह देश के कोने-कोने में 300 से अधिक सभाएं कीं, वह काबिले तारीफ था। पिछले प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह तो अपनी ही पार्टी के चुनाव प्रचार में मेहमान जैसे दिखाई देते थे। अटल बिहारी वाजपेयी भाजपा के स्टार प्रचारक जरूर थे लेकिन वह भी हर राज्य के चुनाव में अपने आप को पूरी तरह झोंक नहीं पाते थे। 
नरेन्द्र मोदी हर छोटे-बड़े चुनाव में पूरी ऊर्जा लगाते हैं। 

आप कह सकते हैं कि इससे प्रधानमंत्री का कद छोटा होता है लेकिन यह भी कहा जा सकता है कि एक सच्चा लीडर जमीन पर उतरकर लडऩे को तैयार रहता है। आप कह सकते हैं कि चुनाव पर इतना समय लगाने से सरकारी काम का हर्ज होता होगा लेकिन अभी तक इसका प्रमाण सामने नहीं आया। गुजरात चुनाव के लिए संसद का सत्र टाला जाना गलत जरूर था लेकिन उसे राजनीति की मजबूरी भी समझा जा सकता है। चुनावी दंगल में ताल ठोंक के उतरना एक राजनेता का गुण माना जाएगा, उसकी कमजोरी नहीं। 

लेकिन राजनीति सिर्फ  अखाड़ा नहीं है। राजनीति में नीति अनिवार्य है, मर्यादा इसका अभिन्न अंग है। वैसे अखाड़े की भी अपनी मर्यादा होती है। कोई नेता सिर्फ इसलिए बड़ा नहीं हो जाता कि वह चुनाव के बाद चुनाव जीत सकता है। बड़ा नेता वह होता है जो अपने साथ देश और समाज को ऊपर उठाए। 4 साल पहले जब करोड़ों भारतीय वोटरों ने नरेन्द्र मोदी में आस्था जताई थी, सिर्फ  इसलिए नहीं कि दमदार थे या अच्छे भाषण दे सकते थे, कांग्रेस को पटखनी दे सकते थे। करोड़ों हिंदुस्तानियों को भरोसा हुआ तो क्या नरेन्द्र मोदी राष्ट्रहित को अपने और अपनी पार्टी के स्वार्थ से ऊपर रखकर सोचते हैं। गुजरात चुनाव का परिणाम जो भी हो, इस चुनाव ने करोड़ों लोगों के मन में नरेन्द्र मोदी के प्रति इस विश्वास को डिगा दिया है। 

सवाल सिर्फ  शालीनता का नहीं है। नरेन्द्र मोदी ने कुलीन वर्गीय शालीनता का कभी भी लिहाज नहीं किया है। अपने विरोधियों के बारे में हल्की बातें कहना, उनका सार्वजनिक मजाक बनाना नरेन्द्र मोदी के अंदाज में शुरू से शामिल रहा है। एक जमाने में तो उन्होंने मुख्य चुनाव आयुक्त लिंगदोह का भी सार्वजनिक मजाक उड़ाया था। प्रधानमंत्री बनने के बाद पहले 1-2 साल जरूर लगा था कि वह अपने ओहदे के अनुरूप बड़प्पन और अंदाज-ए-बयां अपना रहे हैं लेकिन नोटबंदी के बाद उन्होंने यह रास्ता छोड़ दिया लगता है। इस बार गुजरात चुनाव में उन्होंने अपने पद की गरिमा का लिहाज छोड़कर हर तरह की हल्की बात की लेकिन इस मामले में कांग्रेस भी कोई दूध की धुली नहीं है। मणिशंकर अय्यर द्वारा उन्हें ‘नीच’ कहना राजनीति की मर्यादा का उल्लंघन था। फर्क इतना था कि कांग्रेस ने उनकी अभद्रता पर माफी मांगी लेकिन प्रधानमंत्री ने अपनी पार्टी की बातों पर खेद तक व्यक्त नहीं किया। 

शालीनता से बड़ा सवाल सच का है। यहां भी प्रधानमंत्री फिसलते हुए नजर आए। अभी तक तो अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ही दुनिया में झूठ बोलने के बादशाह बने हैं, लेकिन पिछले कुछ महीनों में हमारे प्रधानमंत्री भी इस तमगे को हासिल करने की दौड़ में नजर आए। नोटबंदी के झूठे आंकड़ों से लेकर पाकिस्तानी फौज के किसी अफसर द्वारा गुजरात चुनाव में दखल जैसी ऊल-जुलूल बातों तक पहुंचे प्रधानमंत्री की बात पर यकीन करना कठिन होता जा रहा है। लगता है अपने तात्कालिक लाभ के लिए मोदी जी कुछ भी सच-झूठ बोल सकते हैं। पता नहीं उन्हें एहसास है या नहीं कि इसका हमारे देश की छवि पर क्या असर पड़ता है। जैसे ट्रम्प के झूठ को देख-सुनकर हम अमरीका पर हंसते हैं। कहीं वैसे ही सारी दुनिया हम पर हंसने तो नहीं लगेगी? 

सच-झूठ से बड़ा मामला राजनीति के एजैंडे का है। मोदी जी जब प्रधानमंत्री बने थे तो उन्होंने देश में एक उम्मीद जगाई थी, अच्छे दिन के बहाने देश के सामने एक सकारात्मक एजैंडा रखा था। अब जब उसका हिसाब देने का वक्त आ रहा है तो प्रधानमंत्री उस एजैंडे से दूर जाते दिखाई दे रहे हैं। पूरे देश को गुजरात मॉडल जैसा विकास देने का दावा करने वाले नरेन्द्र मोदी खुद गुजरात में विकास की बात छोड़ चुके हैं। पिछले 22 साल के भाजपा राज का हिसाब देने के बजाय प्रधानमंत्री की दिलचस्पी राहुल गांधी के धर्म, पाकिस्तान और हिन्दू-मुसलमान के सवाल में ज्यादा नजर आई। इस बार आस जगाने के बजाय प्रधानमंत्री डर पैदा करने की राजनीति कर रहे थे। कुल मिलाकर खेल यही था कि कांग्रेस, मुसलमान तथा पाकिस्तान को एक-दूसरे का पर्याय बना दिया जाए। 

क्या ऐसा करते समय प्रधानमंत्री को एहसास भी था कि इसका आने वाली पीढिय़ों पर क्या असर पड़ेगा? या कि चुनाव जीतने के लिए वह कुछ भी कह सकते हैं? और सबसे बड़ा सवाल राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रद्रोह का। मणिशंकर अय्यर के घर पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री और वर्तमान उच्चायुक्त के बीच हुई भेंटवार्ता को लेकर प्रधानमंत्री ने जो आरोप लगाया वह हमारे राष्ट्रीय हित पर आघात करता है। सिर्फ  इसलिए नहीं कि सारी कहानी मनगढ़ंत और ऊल-जुलूल है। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री, देश के पूर्व उपराष्ट्रपति, देश के पूर्व थल सेना अध्यक्ष मिलकर 15 लोगों के सामने पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री और उच्चायुक्त के साथ गुजरात चुनाव को लेकर षड्यंत्र करेंगे। इससे हास्यास्पद बात हो नहीं सकती लेकिन समस्या सिर्फ  हास्यास्पद होने की नहीं है। 

गौरतलब है कि इस बयान पर प्रधानमंत्री के बचाव में कानून मंत्री, वित्त मंत्री उतरे, विदेश मंत्री नहीं। समस्या सिर्फ  जगहंसाई की भी नहीं है। अब प्रधानमंत्री द्वारा इतना संगीन आरोप लगाने के बाद अगर भारत सरकार पाकिस्तानी उच्चायुक्त के निष्कासन की मांग नहीं करती तो वह झूठी साबित होगी। भारत के प्रधानमंत्री का ओहदा छोटा होगा। सन् 1971 के युद्ध के वीर जनरल कपूर को इस ओछे आरोप के दायरे में लाकर प्रधानमंत्री ने सैन्य बलों का अपमान किया है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर पाकिस्तानियों से मिलकर साजिश करने का आरोप कितना संगीन है, क्या इसका एहसास प्रधानमंत्री को है। अगर यह आरोप सच है तो क्या सरकार डा. मनमोहन सिंह पर देशद्रोह का मुकद्दमा चलाने की हिम्मत दिखाएगी? अगर नहीं तो क्या स्वयं प्रधानमंत्री राष्ट्रहित से खिलवाड़ के दोषी नहीं हैं? गुजरात की जनता तो अपना फैसला सुनाएगी ही, अब पूरे देश को इस सवाल का उत्तर देना है।-योगेन्द्र यादव

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