तिहरे तलाक के मामले में सुप्रीम कोर्ट की दृढ़ता सराहनीय

Edited By ,Updated: 18 May, 2017 12:13 AM

supreme courts solidarity in triple divorce case

इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान, बंगलादेश, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात सहित....

इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान, बंगलादेश, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात सहित 20 से भी अधिक मुस्लिम बहुल देशों ने गत वर्षों दौरान तिहरे तलाक की परिपाटी को प्रतिबंधित किया  है। शादीशुदा मुस्लिम महिलाओं को नरक जैसी परिस्थितियों में धकेलने वाली यह घृणित परम्परा भारत में यथावत जारी है, हालांकि दुनिया में भारत ही सबसे अधिक मुस्लिम आबादी वाला दूसरा बड़ा देश है। 

आंशिक रूप में ऐसा शायद खुद को मुस्लिमों के प्रतिनिधि बताने का दावा करने वाले संगठनों के अलग-अलग विचारों अथवा ‘राजनीतिक दुष्प्रभावों’ के डर के मारे किसी प्रकार की विपरीत टिप्पणी करने से राजनीतिक पार्टियों की झिझक के चलते हो रहा है। वर्तमान सरकार तो मुस्लिम समाज में सुधार लाने के मामले में कम पात्रता रखती है क्योंकि इसकी सभी गतिविधियां- यहां तक कि इसके बेहतरीन कामों को भी इस समुदाय के विभिन्न वर्गों द्वारा टकराव की मुद्रा माना जा सकता है। 

ऐसी स्थिति में सुप्रीमकोर्ट ने इस कालातीत हो चुके व्यवहार के मुद्दे पर यदि दिलेरी भरा और सामयिक कदम उठाया है तो यह भरपूर प्रशंसा की हकदार है। भारत के मुख्य न्यायाधीश जे.एस. केहर की अध्यक्षता वाली 5 सदस्यीय खंडपीठ ने इस मुद्दे को बहुत गंभीरता से लिया है और घोषणा की है कि यह बहुत जल्दी ही अपना फैसला सुनाएगी। तिहरे तलाक की परम्परा सचमुच ही घृणित है और अब प्रतिबंधित हो चुकी तथा प्राचीन समय से चली आ रही सती परम्परा से किसी भी तरह कम ङ्क्षनदनीय नहीं। बहुत से इस्लामी विद्वानों का कहना है कि इस्लाम में तिहरे तलाक की व्यवस्था का कोई प्रावधान नहीं- उस रूप में तो कदापि नहीं जैसा समाज के एक वर्ग द्वारा दावा किया जा रहा है। 

कुछ अन्य लोगों का कहना है कि मात्र 3 बार ‘तलाक’ शब्द का उच्चारण करने से विवाह भंग नहीं हो जाता। उनकी दलील है कि यह शब्द तीन अलग-अलग मौकों पर बोलना होता है जिनमें एक-दूसरे से पर्याप्त अंतर हो और इसके साथ ही अनेक प्रकार की सावधानियों का भी ध्यान रखना होता है। फिर भी गरीब और अनपढ़ लोग स्थानीय मौलवियों के फतवे और बॉलीवुड फीचर फिल्मों में प्रस्तुत की गई 3 तलाक की छवि पर ही अधिक विश्वास रखते हैं। 

आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड तिहरे तलाक को समाप्त किए जाने के विरुद्ध है। इसने तो उस याचिका का विरोध किया है जिसमें तिहरे तलाक की संवैधानिक वैधता तय किए जाने के लिए सुप्रीमकोर्ट के आगे गुहार लगाई गई है। इस बोर्ड ने इस तथ्य को रेखांकित किया है कि यह परम्परा बहुत प्राचीन समय से चली आ रही है और यह मजहबी श्रद्धा का विषय है इसलिए अदालतें इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकतीं। 

राजग सरकार ने गत वर्ष सुप्रीमकोर्ट को बताया था कि यह मुस्लिम समुदाय में प्रचलित तीन तलाक तथा बहुपत्नी परम्परा के विरुद्ध है। लैंगिक समानता को भारतीय संविधान की आधारभूत संरचना का अंग बताते हुए सरकार ने सुप्रीमकोर्ट को बताया था कि संविधान की पवित्रता पर किसी प्रकार की सौदेबाजी नहीं की जा सकती। भारतीय इतिहास में यह पहला मौका था जब सरकार ने तिहरे तलाक के रिवाज का विरोध करने के लिए आधिकारिक रूप में कोई स्टैंड लिया था, हालांकि इस तरह की मांग पहले भी व्यक्तिगत स्तर पर तथा उन महिला गुटों द्वारा होती रही है जो मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधारों और समानता की वकालत करते आ रहे हैं। 

भारत के महाधिवक्ता मुकुल रोहतगी ने सुप्रीमकोर्ट के समक्ष तर्क-वितर्क करते हुए यह प्रस्तुतिकरण किया था कि अदालतों को हर हालत में संविधान के प्रावधानों का अनुपालन करना चाहिए और यह पता लगाने के पचड़े में नहीं पडऩा चाहिए कि तीन तलाक की परम्परा क्या किसी धार्मिक आस्था का अंग है या नहीं। यह सुविदित है कि मुस्लिम समुदाय का विशाल प्रगतिशील भाग- खास तौर पर शिक्षित वर्ग व महिला समानता के लिए संघर्षरत लोग मुस्लिम व्यक्तिगत कानूनों में सुधार करने व तिहरे तलाक को समाप्त करने के पक्ष में हैं। अपनी जगह पर सरकार को अल्पसंख्यक समुदायों के विशाल वंचित वर्गों को बेहतर शिक्षा उपलब्ध करवाने व अन्य आधारभूत सुविधाओं के लिए अनिवार्य रूप में काम करना चाहिए। 

अपने एक पूर्व स्तंभ में मैंने लिखा था कि मौजूदा सरकार के लिए तिहरे तलाक को प्रतिबंधित करने के फैसले से बचना बेहतर होगा कि इस मामले में खुद मुस्लिम समुदाय को आगे आने देना चाहिए। मेरे इस तरह कहने का कारण यह था कि भाजपा नीत सरकार के इरादों एवं लक्ष्यों के संबंध में मुस्लिम समुदाय के एक वर्ग में बहुत गहरी आशंकाएं मौजूद हैं। आखिर इस पार्टी ने लोकसभा चुनाव में और उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में एक भी मुस्लिम उम्मीदवार खड़ा नहीं किया था। ऐसे में बेशक राजग सरकार के इरादे नेक भी हों तो भी ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं जो इसके किसी भी कदम को ‘इस्लाम के लिए खतरा’ करार दे सकते हैं। 

ऐसी परिस्थितियों में सरकार ने कोई कानून पारित करने और तिहरे तलाक के संबंध में सुधार का एजैंडा जबरदस्ती आगे बढ़ाने से परहेज करके बहुत अच्छा किया। सुप्रीमकोर्ट का अपना मान-सम्मान है और इसका फैसला ऐसे संदेह पैदा नहीं करेगा कि यह किसी समुदाय या पार्टी के प्रति कुंठा की भावना रखती है। जिस प्रकार की टिप्पणियां सुप्रीमकोर्ट के न्यायाधीशों ने की हैं और इस विषय से निपटने के मामले में जैसी दृढ़ता उन्होंने दिखाई है उससे यही आभास मिलता है कि इस कालबाह्य परिपाटी पर प्रतिबंध लगाना विचाराधीन है। ऐसा होता है तो केवल देश के उदारपंथी मुस्लिमों द्वारा इसका स्वागत नहीं किया जाएगा बल्कि दुनिया भर में इसको वाहवाही मिलेगी।    
 

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