हम और ‘हमारे बुजुर्ग’

Edited By ,Updated: 01 Sep, 2016 01:21 AM

we and our veterans

एक ‘क्यूट’ वृद्ध दम्पति को मैं उस समय मिली जब वे एक पार्टी में एक ओर बैठे भीड़ को देख कर भावविभोर हो रहे थे। वे जालंधर से संबंधित ...

(देवी चेरियन): एक ‘क्यूट’ वृद्ध दम्पति को मैं उस समय मिली जब वे एक पार्टी में एक ओर बैठे भीड़ को देख कर भावविभोर हो रहे थे। वे जालंधर से संबंधित सभ्य और शिक्षित पंजाबी थे। वे सरकारी नौकरी करते रहे और अब रिटायर हो चुके थे। उनके दोनों बच्चे विदेशों में सैटल हैं। अब ये वृद्ध दम्पति दिल्ली के एक वरिष्ठ नागरिक आश्रम में रहते हैं। उन्होंने नम आंखों से बताया कि उनका बेटा अमरीका में डाक्टर है और उसके दो बच्चे हैं।

 
उन्होंने अपने बेटे को पढ़ाने के लिए अपनी सम्पति पर ऋण लिया था क्योंकि वे ऋण अदा नहीं कर पाए थे इसलिए उन्हें सम्पति बेचनी पड़ी थी। मैंने उन दोनों को वरिष्ठ नागरिक आश्रम (सीनियर सिटीजन्स) तक अपनी कार में ले जाने का फैसला लिया। जब मैं वहां पहुंची तो मेरे मन में आया कि क्यों न अंदर जाकर देखूं।
 
आश्रम के अन्दर काफी संख्या में दंतहीन मुस्कुराते हुए चेहरे दिखाई दिए। वे पहले ही दाल-सब्जी और रोटी से डिनर कर चुके थे। वहां मैंने चुपचाप बैठे हुए एक सिख जैंटलमैन को देखा। उसका एक ही बेटा है और वह लंदन में टैक्सी चलाता है। गुरदीप सिंह नामक इस वृद्ध सरदार ने अपने बेटे को लंदन भेजने के लिए भूमि का एक हिस्सा बेच दिया था। जब वह अपने बेटे को लंदन में मिलने गया तो दिन के समयवह बहुत तनहाई महसूस करता था और उसे अंग्रेजी भाषा भी समझ नहीं आती थी। आखिर वह अपने गांव लौट आया ताकि अपने दोस्तों व रिश्तेदारों के बीच रह सके।
 
इसके बाद सम्पत्ति को लेकर परिवारों में झगड़े शुरू हो गए और गुरदीप सिंह ने सभी झमेलों को छोड़ कर वृद्धाश्रम में आने का फैसला ले लिया। उसे अपने पोते की याद बहुत सताती है लेकिन फिर भी वह विदेश में अवांछित मेहमान बनने की बजाय भारत में अकेला रहना बेहतर समझता है। उसका बेटा उसे हर माह 50 पौंड भेजता है। वह इन पैसों को बैंक में जमा करवा देता है और खर्च नहीं करता ताकि कल को यदि उसके बेटे को अचानक पैसों की जरूरत पड़ जाए तो वह उसकी सहायता कर सके।
 
वृद्धाश्रम में मैंने मात्र 4 फुट कद की एक बनी-ठनी महिला भी देखी, जिसने मुझे बताया कि उसके बच्चे मुम्बई में रहते हैं लेकिन उनके फ्लैट बहुत छोटे-छोटे हैं इसलिए उन पर बोझ बनने की बजाय इस विधवा वृद्धा ने इस आश्रम में आने का फैसला लिया।
 
एक अन्य गोल-मटोल दादी अम्मा ने मुझे बताया कि उसकी बेटी सिंगापुर में रहती है। जब उसे इस बेटी के गर्भवती होने पर उसकी तथा उसके बच्चों की देखभाल करने के लिए सिंगापुर जाने का मौका मिला तो वह खुशी से बावरी हो गई थी। लेकिन जल्दी ही उसे महसूस हो गया कि वह परिवार की एक सम्मानित बुजुर्ग की बजाय काफी हद तक एक नौकरानी बन कर रह गई। उसके सिंगापुर जाने के बाद बेटी ने अपनी अंशकालिक नौकरानी को काम से जवाब दे दिया था। आखिर वह वृद्धा रिश्तेदारों को मिलने के बहाने भारत लौट आई और फिर कभी सिंगापुर जाने का नाम नहीं लिया।
 
मैं अपने एक विधुर पड़ोसी की कहानी सुन कर सकते में आ गई। अपना महलनुमा घर बेचने के बाद उसने एक छोटी-सी कालोनी में दो बैडरूम का फ्लैट ले लिया था। अपने मकान की बिक्री से हासिल हुआ पैसा उसने विदेशों में रहते अपने बच्चों के बैंक खातों में जमा करवा दिया क्योंकि उन्हें पैसों की जरूरत थी लेकिन उसे खुद आयु के इस पड़ाव पर क्या हासिल हुआ? चाहिए तो यह था कि घर में अपनी सेवा कर रहे व्यक्ति को यह पैसा देता।
 
झुर्रियों से भरे 60 चेहरों को डायनिंग टेबल के गिर्द बैठकर बतियाते, खाना खाते, हंसते तथा एक-दूसरे का मजाक उड़ाते देखना बहुत विस्मयकारी था। वे एक-दूसरे की स्वास्थ्य समस्याओं का ख्याल रखते हैं। वे योगासन करते, टी.वी. और फिल्में देखते, किताबें पढ़ते और अस्पताल में एक-दूसरे को देखने जाते हैं। दिल्ली की डिफैंस कालोनी में अपनी एक सहेली के माता-पिता को जानती  हूं जो 6 बैडरूम वाले फ्लैट में रहते हैं और जिन्होंने अपने घर में 3 वृद्ध दम्पतियों को भी रखा हुआ है। 
 
उन्होंने उनकी देखभाल करने के लिए एक रसोइया और दो नौकरानियां रखी हुई हैं और वे हर प्रकार से प्रसन्न दिखाई देते हैं। उनमें परस्पर तारतम्य तथा एक-दूसरे के प्रति हमदर्दी, दया एवं करुणा की भावना है।
 
आज के विदेशों में जाने वाले बच्चे वहां से प्रतिमाह अपने माता-पिता को 50 या 100 डालर भेज देते हैं लेकिन इस प्रकार की खैरात पर पलने की बजाय मैं सूखी रोटी खाना पसंद करूंगी। कहीं न कहीं पर हमसे कोई चूक अवश्य हुई है जो हम अपने बच्चों में बुजुर्गों के प्रति सम्मान और हमदर्दी की भावना नहीं भर पाए। यह पीढ़ी जब स्वयं बुजुर्ग होगी तो अपने बच्चों को क्या सिखाएगी? आखिर जैसा हम बोते हैं वही काटते हैं और यह चक्कर इसी प्रकार चलता रहता है। पुरानी कहावत है कि घर में किसी बुजुर्ग की मौजूदगी दिव्य वरदान जैसी होती है। मैं पूरे निश्चय से कह सकती हूं कि एक न एक दिन ये बच्चे अपनी गलती महसूस करेंगे परन्तु इस काम में पहले ही काफी देर हो चुकी है। 
 
इसलिए आज के सभी अभिभावकों के लिए अनमोल सबक है कि अपनी बचत कृपया अपने हाथ में रखें क्योंकि आप कभी भी नहीं जान सकते कि आपको कब इसकी जरूरत पड़ जाए। माता-पिता तो हर हालत में अपने बच्चों के लिए वह सब कुछ करेंगे जो वे कर सकते हैं। शायद अब हमें पश्चिमी संस्कृति का वह रिवाज अपनाना पड़ेगा कि 16-18 वर्ष की आयु का होने पर वे बच्चों को घर से बाहर कर देते हैं। बड़े बुजुर्गों को बाद में पछताने की बजाय अपनी व्यवस्था कर लेनी चाहिए। यह बात दुखद तो है लेकिन जीवन की सच्चाई यही है। पंजाब और हरियाणा के अधिकतर गांवों में पहले ही ऐसे उदाहरणों की भरमार है।
 
मैं तो यह सोच कर ही सिहर उठती हूं कि हमारे स्वाभिमानी बुजुर्ग किस प्रकार की भावनात्मक यातना में से गुजरते होंगे। फिर भी यह सत्य है कि माता-पिता और बच्चों के बीच के पवित्र रिश्ते को आज की पीढ़ी के स्वार्थी व्यवहार के कारण अपमानित किया जा रहा है। बुजुर्ग लोग अपने घरों में नितांत अकेले, भयभीत और असुरक्षित जीवन व्यतीत करते हैं और अपने बच्चों के ख्यालों में खोए हुए वे भावनात्मक रूप में टूट चुके हैं। ऐसे भावनात्मक रूप में परिवार बहुत तेजी से हमारे युग की वास्तविकता बनते जा रहे हैं।           
 

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