प्रदूषण के बहाने पटाखों पर प्रतिबंध कहां तक जायज

Edited By Punjab Kesari,Updated: 14 Oct, 2017 01:25 AM

where the ban on firecrackers is justified by the use of pollution

परिवार हो या समाज, समय के साथ उसकी अपनी परम्पराएं बनती रहती हैं और समय-समय पर उनमें परिवर्तन भी होता रहता है। यह भी सत्य है कि वक्त की जरूरत और नजाकत को नजरंदाज कर दसियों या सैंकड़ों वर्ष पहले बना कोई रीति-रिवाज, जिसका अब कोई अर्थ या औचित्य न रहा हो...

परिवार हो या समाज, समय के साथ उसकी अपनी परम्पराएं बनती रहती हैं और समय-समय पर उनमें परिवर्तन भी होता रहता है। यह भी सत्य है कि वक्त की जरूरत और नजाकत को नजरंदाज कर दसियों या सैंकड़ों वर्ष पहले बना कोई रीति-रिवाज, जिसका अब कोई अर्थ या औचित्य न रहा हो और उसे न बदलते हुए हम उससे चिपके रहें तो या तो वर्तमान पीढ़ी उस पर चलने से इंकार कर देती है या फिर सरकार उसे बदलने की कोशिश करती है और अगर इससे भी कुछ न हो तो कानून के जरिए उसे बदलने का काम किया जाता है। 

पिछले दिनों उच्चतम न्यायालय ने दीवाली पर पटाखे बेचने पर रोक लगा दी क्योंकि उससे प्रदूषण बढऩे की आशंका थी, जो पहले ही खतरनाक स्तर पर जा पहुंचा है और नागरिकों की सेहत खराब करने में कसर नहीं छोड़ रहा। हालांकि, कहा जा सकता है कि पटाखों से उतना नुक्सान नहीं होता जितना ट्रक और बस से लगातार निकलने वाले धुएं से होता है या फिर बिल्डिंग बनाते समय नियमों का पालन न करते हुए धूल-मिट्टी से होता है या कल कारखानों में नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए सबसे ज्यादा वायु से लेकर जल तक में प्रदूषण का जहर घुलता है। फसल काटने के बाद खेतों में बचा कचरा जलाने से हवा में जो प्राणघातक विष मिल जाता है उसे काबू करने में न तो सरकार और न ही न्याय व्यवस्था सफल हो पाई है। 

हैरान करने वाली बात है कि दीवाली पर एक दिन पटाखे चलाने से होने वाले प्रदूषण का बहाना बनाकर उन हजारों छोटे दुकानदारों की रोजी पर लात लगने का ध्यान नहीं आया जिन्होंने पटाखों का लाइसैंस लेकर अपनी जमा पूंजी लगा दी ताकि त्यौहार पर उनकी कुछ आमदनी हो जाए। जिन तथाकथित एक्टिविस्टों ने दुधमुंहे बच्चों की आड़ लेकर यह फैसला कराने में कामयाबी पा ली अगर इसकी बजाय वे अपनी ऊर्जा का प्रयोग बड़े पैमाने पर प्रदूषण के जिम्मेदार लोगों पर नकेल कसे जाने में करते तो समाज का कहीं अधिक भला होता। इसी तरह खेती के लिए जंगल जलाने की परम्परा समाप्त करने की कवायद की जाती तो अधिक बेहतर होता। नदियों को गंदा करने की धार्मिक आधार पर की जाने वाली परम्पराओं पर रोक लगाने की बात की होती तो कुछ समझ में आता कि सही जगह पर निशाना लगा है। 

ऐसा नहीं है कि हमारे पूर्वजों को पर्यावरण की ङ्क्षचता नहीं थी। मिसाल के तौर पर जहां खेती की जमीन तैयार करने के लिए जंगल जलाने की परम्परा बनी तो वहां पवित्र गुफा भी बनती थी जिसके अंतर्गत एक विशाल भू-भाग में न कोई पेड़ काट सकता था और न वहां से एक पत्ता तक ले जा सकता था। जंगल अपने मूल रूप में सुरक्षित रहता था और खेती के लिए काटे जाने वाले जंगल की भरपाई होने का प्रबंध हो जाता था। 

इसी तरह जहां नदियों के जल में पूजा सामग्री या मूर्ति विसर्जन करने की परम्परा थी तो वहां हरेक बस्ती में तालाब बनाने की परम्परा भी थी जिसमें जरा-सी भी गंदगी डालने वाला पाप का भागी और दंड का पात्र होता था। ये तालाब कहां खो गए, सब जानते हैं। 

हम अक्सर धर्म के नाम पर चलाई गई परम्पराओं का विरोध केवल इसलिए करते हैं क्योंकि सभी धर्मों की अपनी मान्यताएं हैं और कुछ तो कट्टरता की इस हद तक हैं कि उनके लिए खून-खराबे की नौबत आ जाती है। समाज विरोधी तत्व इस हद तक हवा देते हैं कि धर्म रक्षा के नाम पर दंगे-फसाद हो जाते हैंै। अभी हाल ही में एक और फैसला आया है जो शादी के बाद पत्नी के साथ सहवास करने की उम्र तय करता है। अगर पत्नी 18 वर्ष की नहीं है तो उससे सहवास बलात्कार माना जाएगा और कानून के मुताबिक सजा मिलेगी। यह फैसला करने की नौबत इसलिए आई क्योंकि हमारे देश में बाल-विवाह की परम्परा थी और वयस्क होने से पहले ही गर्भवती हो जाने से बालिका वधू का जीवन संकट में पड़ जाता था। 

इस फैसले से बाल-विवाह की शिकार मासूम कन्या को कोई राहत मिलेगी इसमें संदेह है क्योंकि अगर उसमें हिम्मत ही होती तो वह अपना बाल-विवाह क्यों होने देती, इस बात पर ध्यान दिए बिना यह फैसला हो गया जिस पर अमल हो पाना उतना ही मुश्किल है जितना पर्यावरण को लेकर हुए फैसलों पर अमल करवा पाना सिद्ध होता रहा है ।

वास्तविकता समझना जरूरी: धर्म और संस्कृति का हवाला देकर या उसकी रक्षा के नाम पर होने वाले मतभेद से लेकर लड़ाई तक हो जाने से बचा जा सकता है, बशर्ते कि हम यह स्वीकार कर लें कि केवल आंख मूंदकर या भेड़चाल पर चलते हुए परिवर्तन का कोई मतलब नहीं होता। यह वास्तविकता को नजरंदाज करने का ही परिणाम है कि आज ढेरों कानून होने के बावजूद समाज में अराजकता है, आपाधापी है और एक-दूसरे के प्रति नफरत का विस्तार हो रहा है। वर्तमान संदर्भ में अंतर्राष्ट्रीय कवि पाब्लो नेरूदा की यह कविता सार्थक है जिस पर उन्हें नोबेल पुरस्कार भी प्राप्त हुआ है। 

नोबेल पुरस्कार विजेता स्पेनिश कवि पाब्लो नेरूदा की कविता " you start Dying slowly का हिन्दी अनुवाद... 

-आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं, अगर आप: 
- करते नहीं कोई यात्रा,
- पढ़ते नहीं कोई किताब,
- सुनते नहीं जीवन की ध्वनियां,
- करते नहीं किसी की तारीफ । 

-आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं, जब आप:
- मार डालते हैं अपना स्वाभिमान,
- नहीं करने देते मदद अपनी और न ही करते हैं मदद दूसरों की। 

-आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं, अगर आप:
- बन जाते हैं गुलाम अपनी आदतों के, 
- चलते हैं रोज उन्हीं रोज वाले रास्तों पे,
- नहीं बदलते हैं अपना दैनिक नियम व्यवहार,
- नहीं पहनते हैं अलग-अलग रंग, या
- आप नहीं बात करते उनसे, जो हैं अजनबी-अनजान। 

-आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं, अगर आप:
- नहीं महसूस करना चाहते आवेगों को, और उनसे जुड़ी अशांत भावनाओं को, वे जिनसे नम होती हों आपकी आंखें, और करती हो तेज आपकी धड़कनों को। 

आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं, अगर आप:
- नहीं बदल सकते हो अपनी जिन्दगी को, जब हो आप असंतुष्ट अपने काम और परिणाम से,
- अगर आप अनिश्चित के लिए नहीं छोड़ सकते हो निश्चित को,
- अगर आप नहीं करते हो पीछा किसी स्वप्न का,
- अगर आप नहीं देते हो इजाजत खुद को, अपने जीवन में कम से कम एक बार, किसी समझदार सलाह से दूर भाग जाने की..।
‘तब आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं..!!’’
 

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