आज का दिन शुभ संकल्पों का

Edited By ,Updated: 26 Jan, 2015 02:14 AM

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पिछले कई दिनों से भारतीय समाचारपत्रों और उनके इलैक्ट्रॉनिक मीडिया में अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा के 26 जनवरी को भारत के गणतंत्र दिवस समारोह ...

पिछले कई दिनों से भारतीय समाचारपत्रों और उनके इलैक्ट्रॉनिक मीडिया में अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा के 26 जनवरी को भारत के गणतंत्र दिवस समारोह में भाग लेने तथा उनके साथ आने वाले गण्यमान्य लोगों, दोनों देशों में पारस्परिक हित के मुद्दों, समझौतों और दोनों पक्षों द्वारा की जाने वाली घोषणाओं के समाचार भरे पड़े थे। दूसरी ओर नई दिल्ली स्थित आई.टी.सी.-मौर्या होटल में उनके प्रवास, उनके भोजन संबंधी नियमों, उनकी पसंद और इसके साथ ही उन्हें दिए जाने वाले बनारसी बुनकरों के बुने उपहारों की चर्चा भी जोरों पर है। 

राजधानी में गणतंत्र दिवस समारोह वैसे भी बहुत बड़े उल्लास का पर्व होता है। इसकी शुरूआत गणतंत्र दिवस परेड से और समापन दो दिन बाद बीटिंग द रिट्रीट समारोह में अमर जवान ज्योति पर शहीदों को श्रद्धांजलि से होता है। 
 
इस सारी तैयारी, धूमधाम और तड़क-भड़क के बीच हम इस दिन को मनाने का वास्तविक उद्देश्य-अपने स्वतंत्रता सेनानियों और नायकों के बलिदानों को श्रद्धांजलि अर्पित करना ही भूल गए हैं, जिन्होंने स्वतंत्रता के बाद देश के भीतर या सीमाओं पर स्वतंत्रता की ज्योति को प्रज्ज्वलित रखने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। इसके साथ ही यह समय अपने आपको उन बुनियादी सिद्धांतों के प्रति पुन: प्रतिबद्ध करने का भी है, जिन सिद्धांतों के आधार पर हमने अपनी स्वतंत्रता की यात्रा आरंभ की थी। 
 
ऐसी घड़ी में जबकि देश में नए आर्थिक पगों की चर्चा की जा रही है, ऐसा लगता है कि हम लोग ‘सब का विकास’  नारे के साथ सत्ता में आई सरकार के साथ धर्म-निरपेक्षता के सिद्धांतों के प्रति स्वयं को जोडऩा भूल गए हैं। आज धार्मिक विद्वेष के स्वर पहले से भी अधिक ऊंचे हो कर उभर रहे हैं और एक भी सप्ताह ऐसा नहीं गुजरता जब कोई न कोई नया धार्मिक विवाद न खड़ा होता हो। 
 
साध्वी निरंजन ज्योति के ‘हरामजादा...रामजादा’ जैसे बयानों से लेकर ‘लव जेहाद’ और ‘घर वापसी’  के आह्वानों के अलावा बीच-बीच में रुढि़वादी और अविवेकपूर्ण 4 या 10 बच्चे पैदा करने जैसे बयान भी सुनाई दे रहे हैं। धार्मिक गौरव को बहाल करने के नाम पर की जा रही राजनीति के बीच कोई भी धर्मगुरु आध्यात्मिक उत्थान अथवा मुक्ति के एक साधन के रूप में धर्म का उल्लेख नहीं करता। 
 
अक्सर तर्क दिया जाता है कि भारतीय संस्कृति और परम्पराओं में धर्म को दैनिक जीवन से अलग करना असम्भव है, इसीलिए भारतीय राजनीति से भी धर्म को अलग नहीं किया जा सकता। इसके साथ ही भारत के धर्मनिरपेक्ष होने का दावा यह तर्क देकर किया जाता है कि हिंदू धर्म सहनशील और अहिंसक है। इस सम्बन्ध में जो संदेश देने की कोशिश की जा रही है, वह यह है कि संविधान द्वारा प्रदत्त धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों से छेड़छाड़ करना भी भारत गवारा कर सकता है।
 
1976 में किए गए संविधान के 42 वें संशोधन तक भारतीय संविधान में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द नहीं होने के बावजूद धर्म निरपेक्षता की भावना इसमें स्पष्ट थी क्योंकि इसमें कहा गया था कि ‘‘धर्मनिरपेक्ष होने के नाते भारत धर्म, जाति या मान्यता के दृष्टिविगत भारतीय संघ के किसी भी वर्ग के नागरिकों या अन्य लोगों के धर्म या मान्यताओं से सम्बन्धित सभी मामलों में पूरी तटस्थता बरतेगा। राज्य किसी भी धर्म विशेष को प्रोत्साहन अथवा संरक्षण नहीं देगा।’’
 
लेकिन आज जब कोई व्यक्ति भारत में धर्मनिरपेक्षता की बात करता है  तो उसकी चिंता हमेशा उस राज्य में मुख्यत: धार्मिक दर्जा या स्थिति पैदा करने की होती है, जो केंद्र में सत्तारूढ़ सरकार के साथ उसका राजनीतिक रिश्ता तय करती है। सभी राजनीतिक दल धर्मनिरपेक्षता का दम भरते हैं, परन्तु बहुत कम ही इस कसौटी पर खरे उतरते हैं। इसके परिणामस्वरूप विभिन्न समुदायों के बीच सम्बन्ध प्रभावित होते हैं। 
 
भारत में धर्मनिरपेक्षता न तो आधुनिक या विदेशी अवधारणा है क्योंकि भारत ने तो इसे लगभग 2000 वर्ष पहले ही अपना लिया था जबकि ईसाई धर्म यूरोप में पहुंचा भी नहीं था, संत थॉमस  प्रथम ईस्वी शताब्दी में ही भारत पहुंच गए थे और भारतीयों ने यहूदियों को हजारों साल पहले स्वीकार कर लिया था तथा इस्लाम भी भारत में आए 1200 साल से ऊपर हो गए हैं। न सिर्फ हमने अनेक धर्मों का स्वागत किया बल्कि हमारा देश हिन्दू, बौद्ध, जैन  और सिख आदि धर्मों का जन्मदाता भी रहा है। 
 
चाहे हमारी सांस्कृतिक परम्पराएं हों या हमारी राजनीतिक नीतियां, धार्मिक विचारधाराओं की विभिन्नताएं, धार्मिक संस्कारों की सभी में अनुमति थी और न सिर्फ इन्हें व्यवहार में लाया जाता था बल्कि इन्हें प्रोत्साहित भी किया जाता था। यदि ऐसा न होता तो भारत सूफीवाद, भक्ति आंदोलन जैसे सुधारवादी आंदोलनों का साक्षी कैसे बन सकता था। हमारी न्यायपालिका और कार्यपालिका को धर्मनिरपेक्षता कठोरतापूर्वक लागू करने की आवश्यकता है ताकि सद्भाव और सहृदयता के स्वर असहनशीलता और संकीर्ण विचारधाराओं के शोर में डूब न जाएं। 
 
जैसा कि एक शायर ने कहा भी है- 
दरिया के तलातुम से तो बच सकती है कशती,
कशती में तलातुम हो तो साहिल न मिलेगा॥
यदि हमने आज के दिन भी अपने धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को कायम रखने की शपथ न ली तो फिर हम गरीबी के विरुद्ध आर्थिक विकास का युद्ध भी हार जाएंगे।

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