अफजल गुरू को ‘बेगुनाही साबित करने के’ पर्याप्त अवसर दिए गए

Edited By ,Updated: 06 Mar, 2015 01:41 AM

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कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मणि शंकर अय्यर जैसे सैकुलरिस्टों की मन:स्थिति को क्या संज्ञा दी जाए? संसद पर हमले के मास्टर माइंड अफजल गुरु को दी गई फांसी को अन्याय बताते हुए अय्यर ने ...

(बलबीर पुंज) कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मणि शंकर अय्यर जैसे सैकुलरिस्टों की मन:स्थिति को क्या संज्ञा दी जाए? संसद पर हमले के मास्टर माइंड अफजल गुरु को दी गई फांसी को अन्याय बताते हुए अय्यर ने इस गलती को सुधारने के लिए अफजल के अवशेष उसके परिजनों को सौंपने की बात की है। जम्मू-कश्मीर के पी.डी.पी. विधायकों के सुर में सुर मिलाते हुए अय्यर का भी मानना है कि अफजल के साथ ‘नाइंसाफी’ हुई है। उनके अनुसार अफजल के खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं होने के बावजूद उसे फांसी दे दी गई। अय्यर से पूर्व कांग्रेस के एक अन्य वरिष्ठ नेता शशि थरूर ने भी अफजल को दी गई फांसी पर सवाल खड़ा किया था। यह कैसी मानसिकता है? सन् 2001 के संसद पर आक्रमण से लेकर 2008 में 26/11 के मुम्बई के रक्तरंजित आतंकी हमलों तक क्या सैकुलरिस्टों ने कोई शिक्षा नहीं ली है?

अफजल गुरु को लेकर हो रही राजनीति नई नहीं है। अफजल को फांसी दिए जाने से पूर्व जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद ने पत्र लिखकर केन्द्र सरकार से अफजल की सजा माफ करने की अपील की थी। उनके बाद मुख्यमंत्री बने उमर अब्दुल्ला ने यह भय जताया था कि अफजल की फांसी से जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद एक बार फिर जिंदा हो जाएगा और राज्य व केन्द्र दोनों के लिए संकट खड़ा करेगा। पी.डी.पी. के विधायकों ने कोई नई मांग नहीं की है। अफजल को फांसी दिए जाने के दिन से ही पी.डी.पी. इसे गलत ठहराते हुए उसके अवशेष अफजल के परिजनों को सौंपने की मांग करती आई है।

अफजल को दी गई फांसी को अन्याय बताने वाले क्या इस देश की न्यायपालिका पर प्रश्न खड़ा नहीं कर रहे? पुख्ता सबूतों के आधार पर जांच में यह खुलासा हुआ कि संसद पर हमले की साजिश पाकिस्तान पोषित लश्कर-ए-तोएबा और जैश-ए-मोहम्मद द्वारा रची गई थी।

जांच में जम्मू-कश्मीर के बारामूला में रहने वाले एम.बी.बी.एस. के छात्र अफजल गुरु का नाम स्थानीय साजिशकत्र्ता के रूप में सामने आया। अपना बचाव करने के लिए अफजल को पर्याप्त अवसर देने के बाद सन् 2002 में विशेष अदालत ने ठोस साक्ष्यों के आधार पर उसे फांसी की सजा सुनाई थी, जिस पर सन् 2004 में सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपनी मोहर लगा दी थी। किन्तु जिस राजनीतिक अवसरवाद और कुत्सित तुष्टीकरण नीति के कारण अदालत के निर्णय के बावजूद अफजल को सजा देने में 8 साल विलंब किया  गया, यह उसी की ताॢकक परिणतिहै कि आज भी इसकी आड़ में देश को लहूलुहान करने वाली ताकतों का परोक्ष मानवद्र्धन किया जा रहा है।

अफजल को फांसी देने में की गई देरी क्या तत्कालीन कांग्रेस सरकार की ओर से यह आत्मस्वीकृति नहीं थी कि देश में एक ऐसा वर्ग है, जिसकी निष्ठा देश के प्रति संदिग्ध है और दोषी को दंडित करने पर वे ङ्क्षहसा के बल पर कानून व व्यवस्था के लिए खतरा खड़ा कर सकते हैं? यदि आतंकियों और अपराधियों के समर्थन में धरना-प्रदर्शन व ङ्क्षहसा होने लगे तो क्या उनकी सजा लंबित कर दी जाए या उन्हें सजा से मुक्त कर दिया जाए? इस आधार पर तो जिस गुनहगार का जितना सामथ्र्य होगा, वह उतना ही ङ्क्षहसा और उपद्रव मचाकर सरकार को झुकने को मजबूर कर सकता है। ऐसे अराजक माहौल में ‘कानून का राज,’ ‘साम्प्रदायिक सद्भाव’ और ‘देश की सुरक्षा’ कैसे संभव है?

स्वयंभू मानवाधिकारियों का आरोप है कि अफजल को न्याय नहीं मिला, उसके साथ जांच एजैंसियों ने नाइंसाफी की। जहां तक सुरक्षा बलों के द्वारा अल्पसंख्यक समुदाय के युवाओं की गिरफ्तारी और उनके कथित उत्पीडऩ का प्रश्न है, ऐसे कई मामले भी हैं, जहां दोष सिद्ध नहीं होने पर उन्हें रिहा कर दिया गयाहै।

वहीं दूसरी ओर बहुसंख्यक समुदाय के आरोपियों को वर्षों जमानत तक नहीं मिलती। सद्भावना एक्सपै्रस में बम धमाका करने के आरोप में पुलिस ने पहले इंडियन मुजाहिदीन के आतंकियों को गिरफ्तार किया था। बाद में पुलिस की कहानी बदल गई और उसने भारतीय सेना के कर्नल विजय पुरोहित और साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को जेल में बंद कर दिया। राष्ट्रीय जांच एजैंसी उनकी जमानत का निरंतर विरोध कर रही है। वहीं सैकुलरिस्ट कोयंबटूर और बेंगलूर धमाकों के आरोपी आतंकी अब्दुल नासेर मदनी को बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए लामबंद होते हैं। क्यों इसी आधार पर गंभीर रोगों से ग्रस्त साध्वी के मानवाधिकारों की चिंता नहीं होती?

सैकुलरिस्टों का यह भी आरोप है कि अफजल गुरु निरपराध था, किन्तु मुसलमान होने के कारण उसके साथ अन्याय हुआ। क्या मानवाधिकार की व्याख्या सम्प्रदाय के आधार पर होगी? इस कुतर्क के बल पर ही सन् 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में समाजवादी पार्टी ने मुस्लिम मतदाताओं को लुभाने की कोशिश भी की। समाजवादी पार्टी ने विधानसभा चुनाव के दौरान ऐसे बंदियों को रिहा करने का वायदा भी किया था। सत्ता मिलने पर सपा ने ऐसे आरोपियों को रिहा करने की कवायद भी शुरू कर दी थी, किन्तु न्यायपालिका के हस्तक्षेप के कारण वे अपने मकसद में कामयाब नहीं हो सके। क्या इस तरह के कुत्सित मंसूबों को नाकाम करने वाली न्यायपालिका को केवल इसलिए कलंकित किया जाए कि उसने मजहब के आधार पर सभ्य समाज को रक्तरंजित करने के आरोपियों को रिहा करने से मना कर दिया?

भारत पर मुसलमानों के साथ भेदभाव व उनके शोषण का आरोप समझ से परे है। पुख्ता सबूतों और जीती-जागती तस्वीरों में कैद अजमल कसाब को मुंबई में निरपराधों की लाशें बिछाता पकड़ा गया। किन्तु उसे भी पूरी निष्पक्ष न्यायिक प्रक्रिया के बाद ही फांसी की सजा दी गई। इस देश में मुसलमानोंको अल्पसंख्यक होने के कारण बहुसंख्यकों से भी अधिक अधिकार और संसाधन उपलब्ध हैं। इस देश के मुसलमान यदि सामाजिक-आर्थिक क्षेत्र में पिछड़ेहैं तो इसके लिए सैकुलर मानसिकता ही जिम्मेदार है, जो वोट बैंक की राजनीति के कारण उनकी मध्यकालीन मानसिकता को संरक्षण प्रदान कर उन्हें देश की मुख्यधारा में शामिल होने से वंचित करती आई है।

यदि अफजल गुरु बेकसूर और देशभक्त नागरिक था तो उसकी रिहाई के लिए आतंकी संगठनों ने भारत को और लहूलुहान करने की धमकी क्यों दी थी? दिल्ली उच्च न्यायालय के बाहर 7 दिसम्बर, 2011 को हुए बम धमाके की जिम्मेदारी लेते हुए ‘हरकत-उल-जेहाद अल-इस्लामी’ नामक जेहादी संगठन ने तब ई-मेल भेजकर यह धमकी दी थी कि अफजल की सजा माफ नहीं की गई तो ऐसे ही कई और बम धमाके होंगे। भारत को रक्तरंजित करने में जुटे पाक पोषित जेहादियों का अफजल से क्या नाता था, अफजल से सहानुभूति रखने वालों को इसका जवाब देना चाहिए।

गहन जांच और पूरी न्यायिक प्रक्रिया से गुजरने के बाद जिस व्यक्ति को इस देश की संप्रभुता को चुनौती देने का कसूरवार पाया गया हो, उसके प्रति सैकुलरिस्टों और मानवाधिकारियों की सहानुभूति इस बात की पुष्टि करती है कि इस देश में ऐसे जेहादी तत्व और उनके समर्थक भी हैं, जिनका शरीर भारत में भले हो, किन्तु उनका मन और आत्मा पाकिस्तान की जेहादी संस्कृति के साथ है। ऐसे ही लोगों के सहयोग से पाकिस्तान भारत को रक्तरंजित करने के अपने एजैंडे में कामयाब हो रहा है। इसमें अब संदेह की क्या कोई गुंजाइश रह गई है?

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