‘भूमि अधिग्रहण कानून’ में उलझ बहुत कुछ ‘खो’ सकती है मोदी सरकार

Edited By ,Updated: 28 Mar, 2015 11:27 PM

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यदि मोदी सरकार दोबारा भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाने की जिद नहीं छोड़ती तो इससे हासिल तो कुछ नहीं होगा लेकिन बहुत कुछ खोना पड़ेगा।

(वीरेन्द्र कपूर): यदि मोदी सरकार दोबारा भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाने की जिद नहीं छोड़ती तो इससे हासिल तो कुछ नहीं होगा लेकिन बहुत कुछ खोना पड़ेगा। मंत्रिमंडल के हठ के आगे राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को तो संवैधानिक कत्र्तव्यपरायणता के कारण अध्यादेश दोबारा जारी करना ही पड़ेगा लेकिन टकराव और दादागिरी का रास्ता अपनाने की बजाय क्या सरकार को समझदारी और सज्जनता का रास्ता नहीं अपनाना चाहिए? यदि 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून में संसद में प्रतिनिधित्व रखने वाली सभी पाॢटयां और अन्य न्यायोचित मुद्दइयों के साथ नए सिरे से परामर्श करने के बाद बदलाव किए जाते हैं तो इससे प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा पर कोई आंच नहीं आने वाली।

इस चर्चा का यह अर्थ बिल्कुल नहीं कि फटाफट तैयार किए गए मूल मसौदे में प्रस्तावित बदलाव अवांछित थे। उनकी सचमुच ही आवश्यकता है। यू.पी.ए. ने 2014 के लोकसभा चुनाव को मद्देनजर रखते हुए भूमि अधिग्रहण बिल को आगे बढ़ाने में जल्दबाजी दिखाई। इसका यह मानना था कि जिस प्रकार ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना ने पूर्व संसदीय चुनाव में इसे जीत दिलाई थी, अब की बार भी वह किसानों को भूमि अधिग्रहण कानून का हवाला देकर बुद्धू बना लेगी। यू.पी.ए. सरकार को खास तौर पर यह भ्रम था कि अधिगृहीत भूमि के लिए बाजार भाव से चार गुणा अधिक मुआवजा देने का प्रावधान अवश्य ही उन्हें चुनाव में जीत दिलाएगा।
 
यू.पी.ए. की गणनाएं कुछ भी रही हों, कोई बात भी इसके हित में नहीं गई। उलटा चुनाव में इसका सफाया ही हो गया। इसके बाद मोदी के कंधों पर यह जिम्मेदारी आ गई कि बहुत घटिया तरीके से कलमबद्ध किए हुए इस कानून की खामियां दूर करें। उनसे भी गलती यह हुई कि उन्होंने अध्यादेश के माध्यम से इसे संशोधित करने का पंगे भरा रास्ता अपना लिया जबकि समझदारी यह थी कि वह संसद में खुली चर्चा के माध्यम से वांछित संशोधन होने का इंतजार करते ताकि प्रस्तावित बदलाव के मुद्दे पर व्यापक आम सहमति बन पाती। शायद अप्रत्याशित रूप में प्राप्त हुई भारी जीत के शुरूआती उन्माद में मोदी को लगा कि विपक्ष की अब बुक्कत ही क्या है।
 
अब उन्हें सत्तासीन हुए 10 माह से ज्यादा हो चुके हैं और इस जीत से जुड़ा ढेर सारा उन्माद अब ठंडा पड़ चुका है। पीड़ादायक हद तक सुस्त गति से चलने वाला सरकारी तंत्र प्रधानमंत्री को भी अपने शिकंजे में कसने में सफल रहा, बेशक वह बिल्कुल वर्तमान में ही सचमुच में हाथों पर सरसों जमाकर दिखाना चाहते हैं। दुर्भाग्यवश दुनिया भर की सरकारें सदा घोर शुस्त रफ्तार से ही आगे बढ़ती हैं। मोदी के नेक इरादों के बावजूद यदि अधिक से अधिक भारतीय यह सोच कर हैरान हो रहे हैं कि गत 26 मई को बहुत धूमधाम से शपथ ग्रहण करने के बावजूद अब तक वह कोई बदलाव नहीं ला पाए हैं तो इसमें हैरानी की कोई बात नहीं।
 
इसी दौरान भूमि अधिग्रहण अध्यादेश में छिन्न-विछिन्न विपक्ष को सरकार के विरुद्ध एकजुट होने का आधार उपलब्ध करवा दिया है। सबसे बुरी बात तो यह है कि राजग के प्रति अच्छा झुकाव रखने वाले समाज के कई वर्गों पर इस प्रोपेगंडे का बहुत प्रभाव पड़ा है कि भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन किसान विरोधी हैं एवं पूंजीपतियों के समर्थन में हैं। इसी कारण उन्होंने अध्यादेश पर प्रश्नचिन्ह लगाने की जरूरत महसूस की है। यदि यह मान भी लिया जाए कि विपक्ष का अभियान भ्रामक है तो भी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता  कि अध्यादेश के कारण जनमानस में सरकार की छवि दागदार हुई है और वह बचाव की मुद्रा में आ गई है।
 
इसलिए सरकार को अब अपनी पटरी ही बदलनी होगी। सरकार का यह कहना कि 13 अन्य कानूनों को भूमि अधिग्रहण कानून के दायरे में लाने के लिए इनमें संशोधन की जरूरत है, किसी भी तरह कोई सनसनीखेज बात नहीं। सरकार इसे भारी बहुमत से पास करवा लेगी क्योंकि यह प्रावधान 2013 के कानून में भी मौजूद था। फिर भी विवाद का असली मुद्दा वह है जो कुछ विशिष्ट कार्य-श्रेणियों के लिए विशेष रूप में वरीयता के आधार पर किए जाने वाले भूमि अधिग्रहण के सामाजिक प्रभाव तथा भू-स्वामियों की पूर्व सहमति से संबंधित है। सरकार को इसे अपनी प्रतिष्ठा का सवाल नहीं बनाना चाहिए।
 
यह सर्वविदित है कि स्थानीय पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी सभी कानूनी प्रावधानों को ताक पर रखकर अपनी मर्जी चलाते हैं। ऐसे में उन कठिनाइयों की पूर्व कल्पना करना भी असंभव है जो भूमि अधिग्रहण (खास तौर पर रक्षा, विद्युत संयंत्र, आधारभूत ढांचा परियोजना इत्यादि के वरीयता वाले क्षेत्रों के संबंध में) के मामले में दरपेश आ सकती हैं।
 
इसके अलावा सरकार को यह आलोचना भी झेलनी पड़ रही है कि  किसी कानून को इसकी वास्तविक अमलदारी के संबंध में बिना किसी व्यावहारिक साक्ष्यों के संशोधित करना एक कुंठाग्रस्त मानसिकता को प्रतिबबित करता है। जैसा कि हम पहले भी कह चुके हैं, यदि सरकार अधिग्रहण करने का निर्णय ले लेती है तो  जनमानस में इसके बारे में  गहराई तक व्याप्त ‘माई-बाप संस्कृति’ की अवधारणा बिना किसी खास परेशानी भूमि अधिग्रहण का मार्ग प्रशस्त करेगी। स्मरण रहे कि 60 वर्ष से भी अधिक समय से जारी लोकतांत्रिक शासन के बावजूद आज भी पुलिस का एक सिपाही अधिकतर भारतीयों को कंपकंपी छेड़ सकता है क्योंकि आम आदमी के साथ सरकार का पाला उसी के माध्यम से पड़ता है।
 
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि मूल भूमि अधिग्रहण कानून बेशक कितना भी त्रुटिपूर्ण क्यों न हो, मोदी  सरकार को 2013 के बे-परखे कानून में बदलाव लाने के विवाद में उलझने की बजाय गवर्नैंस और विकास के अतिवांछित कार्य पर ही ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। 
 
राहुल का अज्ञातवास
मलेशियाई एयरलाइंस की फ्लाइट संख्या एम.एच. 370 को दुर्घटना का शिकार हुए एक वर्ष से अधिक हो गया है लेकिन अभी तक इसका कोई अता-पता नहीं चला है। बिल्कुल ऐसा ही हाल ‘कांग्रेस के युवराज’ राहुल का है। नेहरू-गांधी परिवार का यह  44 वर्षीय बरखुरदार प्रारम्भ में तो 15 दिन के लिए किसी अज्ञात स्थान पर चला गया था लेकिन अब अपने आप को खोजने की उसकी यात्रा एक माह से अधिक बीत जाने के बाद भी समाप्त नहीं हुई। राजनीतिक मंच से उसके गायब होने के बारे में यदि किसी को सबसे अधिक चिंता होनी चाहिए तो वह हैं उनकी मां सोनिया गांधी, क्योंकि वह किसी भी कीमत पर उन्हीं को कांग्रेस पार्टी की कमान सौंपना चाहती हैं। 
 
यदि कोई व्यक्ति यह बहाना बनाता है कि वह राहुल के बिना उदास है, तो वह झूठ बोल रहा है क्योंकि राहुल ने मन और मस्तिष्ककी ऐसी कोई खूूबी अभी तक प्रदर्शित नहीं की जिसकी बदौलत पार्टी के अंदर या बाहर वह किसी के चहेते बन पाते। वास्तव में तो अधिकतर कांग्रेसी इस बात से चैन की सांस ले रहे हैं कि राहुल अज्ञातवास में ही रहें क्योंकि यदि ऐसा होता है तो वे किसी अधिक करिश्माई और प्रभावी नेता की तलाश करने की उम्मीद करते हैं जो पार्टी में नई जान फूंक दे।
 
लापता मलेशियाई विमान की तरह राहुल की गुमशुदगी भी अंतर्राष्ट्रीय अखबारों की सुर्खी बनी। विश्व के सबसे प्रख्यात साप्ताहिक पत्र ‘द इक्नोमिस्ट’ ने तो राहुल की गुमशुदगी को ‘कांग्रेस के निर्बाध पतन’ की संज्ञा दी है और कहा है कि राहुल ही कांग्रेस के लिए इससे बड़ी बदनसीबी है। उसे जिम्मेदारी से भागने की आदत है। अब की बार तो वह ऐसे समय में कांग्रेस को भाग्य के सहारे छोड़ कर गायब हुआ है जब इसे किसी तारणहार की सबसे अधिक जरूरत है। उसके अज्ञातवास की ‘टाइमिंग’ सचमुच ही भयावह है। 

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