कोयला आबंटन मामला: मनमोहन सिंह का फैसला ‘देश हित’ में

Edited By ,Updated: 01 Apr, 2015 03:55 AM

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पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कोयला ब्लाक आबंटन मामले में भारतीय दंड विधान तथा भ्रष्टाचार विरोधी अधिनियम की धाराओं के अंतर्गत ...

(अश्विनी कुमार) पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कोयला ब्लाक आबंटन मामले में भारतीय दंड विधान तथा भ्रष्टाचार विरोधी अधिनियम की धाराओं के अंतर्गत गंभीर आपराधिक कारगुजारी के आरोप में मुकद्दमे का सामना करने के लिए तलब किया गया है। यह मुकद्दमा और इसकी नतीजा दोनों ही व्यापक दिलचस्पी का मुद्दा बने हुए हैं। 

मनमोहन सिंह को भेजे गए सम्मन जहां हमारे संविधान के मूल सिद्धांतों तथा आपराधिक न्याय प्रक्रिया की कसौटी पर परखे जाएंगे, वहीं इस आदेश को जारी करने के पीछे मौजूद प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दलीलों की वैधता भी परखी जाएगी। इस बात को अवश्य ही परखा जाना चाहिए कि एक पूर्व प्रधानमंत्री जो कोयला मंत्री भी था एवं मूल रूप में उन आरोपियों में शामिल नहीं था जिनके विरुद्ध सी.बी.आई. जांच कर रही थी तथा  जिसके बारे में वह स्पष्ट रूप में दो बार इस नतीजे पर पहुंची थी कि उनके विरुद्ध अभियोजनीय साक्ष्य नहीं हैं, क्या ट्रायल कोर्ट के जज के पास उन्हें तलब करने के लिए संभावित अपराधिकता के नतीजे पर पहुंचना और सम्मन जारी करना वैध था। 

इससे भी अधिक मूलभूत आधार पर हमें इस मुद्दे पर ङ्क्षचतन करने की जरूरत है कि क्या न्यायालय द्वारा स्वयं ही गुनाहों के बारे में निकाले गए अंतर्मुखी निष्कर्षों के आधार पर किसी नागरिक के विरुद्ध हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली की दमनकारी अभियोजनीय प्रक्रिया की रस्सी खुली नहीं छोड़ी जा सकती? ऐसा दृष्टिकोण क्या निष्पक्ष मुकद्दमे के आधारभूत सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं है, जबकि यह आधारभूत सिद्धांत ही हमारे सिद्धांत की मूल संंरचना और कानून  के शासन का अटूट अंग हैं। वास्तव में दंडात्मक नतीजों वाली गंभीर अपराधों में संभावित आपराधिक भागीदारी के समर्थन में जिस प्रकार दलीलों को खींचा गया है वह नागरिकों की आजादी, प्रतिष्ठा और मान-सम्मान पर आघात है। 

डा. मनमोहन सिंह को भेजा गया सम्मन बेशक कानूनी रूप से पायदार नहीं और इसमें मूलभूत त्रुटियां हैं, फिर भी इसके हर पहलू की चीर-फाड़ करना इस आलेख में संभव नहीं। पहली बात तो यह है कि जब कोयला आबंटन से संबंधित प्रशासकीय विभाग के प्रमुख (इस मामले में कोयला सचिव पी.सी. पारेख) द्वारा दलीलों पर आधारित प्रस्ताव पर मोहर लगाई जाती है तथा पी.एम.ओ. के 2 संयुक्त सचिवों द्वारा प्रस्तुत प्रस्तावों पर प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव द्वारा मोहर लगाई जाती है तो कोयला मंत्री के रूप में जिम्मेदारियां अदा कर रहे तत्कालीन प्रधानमंत्री द्वारा लिए गए निर्णय को दोषपूर्ण नहीं ठहराया जा सकता और उन्हें ‘‘सार्वजनिक हितों को जानबूझ कर खतरे में डालने’’ का उलाहना नहीं दिया जा सकता। 

दूसरी बात यह है कि यदि सम्मन के सम्पूर्ण आदेश को बारीकी से पढ़ा जाए तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि हिन्दालको कम्पनी को किया गया आबंटन किसी जल्दबाजी का परिणाम नहीं था और विभिन्न स्तरों पर इस पर काफी मंथन हुआ था। इन्हीं दलीलों के आधार पर ओडिशा सरकार ने तालाबीरा-2 कोयला ब्लाक का आबंटन करने में नेवेली लिग्नाइट कार्पोरेशन (एन.एल.सी.) की बजाय हिन्दालको को प्राथमिकता दी थी। 

पी.सी. पारेख द्वारा 12.09.2005 को लिखा गया नोट सम्मन आदेश के  संबंध में बहुत ही प्रासंगिक है। इसमें  सम्मन भेजने वाली अदालत के दृष्टिकोण के एक-एक पहलू की धज्जियां उड़ाने वाले साक्ष्य मौजूद हैं। इस आबंटन में हर प्रक्रिया पर विभिन्न तथ्यों और विकल्पों पर पर्याप्त मंथन हुआ था और डा. मनमोहन सिंह ने  अंतिम रूप में इस निर्णय प्रक्रिया को प्रमाणित किया था। इसलिए किसी भी प्रकार यह निजी तौर पर या गोपनीयता से लिया गया निर्णय नहीं था और इसके पीछे कोई साजिश कार्यरत नहीं थी। सम्मन के आदेश को सरसरी नजर से पढऩे पर यह स्पष्ट हो जाता है कि तत्कालीन कोयला मंत्री के रूप में डा. मनमोहन सिंह ने विशिष्ट और दलीलयुक्त सिफारिशों के आधार पर ही फैसला लिया था जोकि सरकारी निर्णय प्रक्रिया की नीति की सामान्य पद्धति है। 

प्रशासकीय स्तर पर तत्कालीन कोयला मंत्री के रूप में डा. मनमोहन सिंह ने जो फैसला लिया है वह देश के हित में था तथा आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के लिए जरूरी था।

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