शशि कपूर को ‘दादा साहेब फाल्के अवार्ड’ क्यों मिला

Edited By ,Updated: 02 Apr, 2015 12:32 AM

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शशिकपूर को दादा साहेब फाल्के अवार्ड मिलने से कइयों को यह तसल्ली हुई कि अंतत: देश के इस अति हैंडसम अभिनेता की फिल्म इंडस्ट्री के लिए की गई सेवाओं की सराहना तो हुई।

(ईश्वर डावरा): शशिकपूर को दादा साहेब फाल्के अवार्ड मिलने से कइयों को यह तसल्ली हुई कि अंतत: देश के इस अति हैंडसम अभिनेता की फिल्म इंडस्ट्री के लिए की गई सेवाओं की सराहना तो हुई। तो फिर क्या थीं शशि कपूर की ऐसी स्मरणीय प्राप्तियां जिनसे प्रभावित हो केन्द्र सरकार ने उन्हें इस लाइफ टाइम अचीवमैंट अवार्ड के लिए चुना? 

अगर हम सोचें कि शशि की सबसे बड़ी खूबी यही रही कि वह एक प्रसिद्ध व लोकप्रिय फिल्मी परिवार का वंशज  था तो यही एक प्राप्ति इतने बड़े पुरस्कार के लिए नाकाफी थी। सच्चाई तो यह है कि इतने बड़े फिल्मी घराने में जन्म लेने से ही फिल्मी दुनिया ने उसे हाथों-हाथ नहीं लिया। 1960 के आसपास जब 20 ही वर्ष की आयु में प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय मंच अभिनेत्री जैनिफर कैंडल से उसने विवाह करडाला और नतीजतन अल्पायु में ही बेटे कुणाल का भीजन्म हो गया तो घर-गृहस्थी का बोझ उठाने के लिएउसने आर्थिक स्रोतों की खोज में कमर्शियल सिनेमा में काम करने की सोची तो देखा संघर्ष तो अनिवार्यथा। 
 
पापा पृथ्वीराज कपूर किसी प्रोड्यूसर-डायरैक्टर को उसकी सिफारिश करने के मूड में न थे-बड़े भाई राज कपूर और शम्मी कपूर भी अपनी-अपनी फिल्मी उपलब्धियों और रोमांटिक लफड़ों में उलझे हुए थे। तब शशि के पास छोटे कस्बों और शहरों से आए बॉम्बे (तब इस शहर का यही नाम था) फिल्म उद्योग में संघर्ष कर रहे युवाओं की तरह स्टूडियोज के चक्कर लगाने के अलावा कोई चारा न था। खैर, वह सब कुछ उसने अपने दम पर किया। 
 
चर्च गेट स्टेशन के सामने स्थित प्रसिद्ध रैस्टोरैंट ‘गेलार्ड’ बेकार अभिनेताओं का अड्डा था जहां कई बार कुछ पारखी फिल्म निर्माता आकर उन्हें फिल्मों के लिए चुन लेते थे। ‘गेलार्ड’ उन दिनों कुछ-कुछ चंडीगढ़ के ‘लेबर चौक’ जैसा था जहां से जरूरतमंद बेकार युवाओं को काम पर वे ले जाते थे। शशि कपूर का आकर्षक व्यक्तित्व जब ‘गेलार्ड’ में चाय पीने आए यश चोपड़ा को भा गया तो उन्होंने उसे अपनी फिल्म ‘धर्मपुत्र’ के लिए  बतौर हीरो लेलिया। 
 
इन्हीं दिनों किस्मत कुछ ज्यादा ही मेहरबान हुई तो बिमल राय जैसे ख्याति प्राप्त फिल्मकार ने भी शशि को अपनी फिल्म ‘प्रेमपत्र’ के लिए हीरो चुन लिया। फिल्में दोनों ही देश के जाने-माने निर्देशकों की कृति थीं-कहानी अच्छी थी, निर्देशन व संगीत भी बुरा नहीं था पर दोनों फिल्में बुरी तरह पिट गईं-और पिटीं भी ऐसी कि बेचारे शशि पर एक ‘अनलक्की’ हीरो का ठप्पा लग गया। ‘प्रेमपत्र’ में शशि की हीरोइन साधना थी। बड़ी साफ-सुथरी और रोमांटिक फिल्म होने के बावजूद बिमल राय का जाना-माना ‘टच’ इसमें था ही नहीं। शायद दर्शकों को फिल्म के हीरो शशि को एक अंधे नायक का रोल देना पसंद नहीं आया। 
 
साधना उन दिनों टॉप की स्टार  बन चुकी थी-शशि के खिलाफ अपनी नाकाम फिल्म का ठीकरा उसने इतनी शिद्दत से फोड़ा कि आईंदा उसके साथ किसी फिल्म में निकट का भी रोल नहीं किया-‘मेरे महबूब’ फिल्म जो शशि को साइड हीरो के तौर पर मिल चुकी थी, उसमें शशि का काम लेकर अशोक कुमार को दे दिया गया। फिल्म ‘वक्त’ में साधना ने सुनील दत्त को अपना साथी चुना-शशि की जोड़ी शर्मिला टैगोर के साथ बनी और अच्छी रही सौभाग्य से। ‘हाऊस होल्डर’ 1963 में  बनी-इसमें हीरो का रोल शशि को अपनी अंग्रेज पत्नी जैनिफर कैंडल के कारण मिला। हीरोइन लीला नायडू के सौम्य व शांत सौंदर्य का भी जादू न चला। फिल्म भारत में तो बिल्कुल नहीं चली।
 
इसके बाद शशि 1965 तक छोटी-मोटी रोमांटिक फिल्मों में चलते रहे-1965 में शशि ने जब नंदा के साथ ‘जब-जब फूल खिले’ में आशातीत सफलता पाई तो वह रातों-रात राजेन्द्र कुमार और धर्मेंद्र की तरह ‘लक्की’ स्टार बन गया। फिर तो नंदा के साथ शशि ने कई फिल्में कीं। ‘मेहंदी लगी मेरे हाथ’, ‘मोहब्बत इसको कहते हैं’ वगैरह। बाद में 1970 के दशक तक शशि की और भी लोकप्रिय फिल्में आईं-‘आ गले लग जा’, ‘हसीना मान जाएगी’, ‘कन्यादान’, ‘दीवार’, ‘काला पत्थर’, ‘रोटी कपड़ा और मकान’, ‘त्रिशूल’, ‘सत्यम शिवम सुन्दरम’-सूची लम्बी है। पर शशि व उनकी प्रतिभाशाली पत्नी इन फिल्मों से कमाई के लिहाज से चाहे खुश रहे हों पर उनकी कलात्मक व श्रेष्ठ फिल्मों से शशि को जोडऩे की इच्छा पूरी न हुई। उछलकूद व नाच-गानों वाली रोमांटिक कामेडियों के स्तर से शशि बहुत ऊपर उठना चाह रहे थे-तब उन्होंने खुद ही फिल्में बनाकर इस कमी को पूरा करने की सोची और इस तरह देश को कुछ यादगारी फिल्में बना कर दीं। इसी चिरस्मरणीय योगदान के कारण उन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार के काबिल समझागया।
 
शशि के बारे में किसी ने कहा कि उसने हर किस्म की ऊटपटांग कमर्शियल फिल्म में काम करके जो पैसा कमाया वह सारे का सारा अपनी बढिय़ा फिल्में बनाने के अपने चिर संजोए सपनों पर खर्च कर डाला। इस योजना को उसने 1979 में अपनी निजी फिल्म कम्पनी ‘फिल्म वाला’ बना कर पूरा किया। उसकी पत्नी जैनिफर की भी यही इच्छा थी और शशि को उसका पूर्ण बौद्धिक व आर्थिक सहयोग मिला। 1979 से चल कर 1990 तक कुल 7 फिल्में बनीं-इन फिल्मों को बनाने में शशि ने फिल्म उद्योग और साहित्य जगत के जाने-माने लोगों की सेवाएं लीं और श्रेष्ठता के मामले में कोई समझौता नहीं किया। फिल्में थीं ‘जुनून’, ‘कलयुग’, ‘उत्सव’, ‘36 चौरंगी लेन’, ‘विजेता’, ‘अजूबा’ वगैरह। इन फिल्मों को श्याम बेनेगल व अपर्णा सेन जैसे मंजे हुए फिल्म निर्देशकों ने डायरैक्ट किया। ‘36 चौरंगी लेन’ में जैनिफर खुद केन्द्रीय किरदार में थी। फिल्म को बहुत अच्छे रिव्यूज मिले। दुर्भाग्यवश जैनिफर का 1984 में कैंसर से देहांत हो गया। 
 
शशि ने अपनी फिल्म कम्पनी के बैनर में बनी इन फिल्मों की श्रेष्ठता के लिए प्रशंसा तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पाई पर कमाई कुछ न हुई। इस तरह शशि ने देश को स्वस्थ व उत्कर्ष सिनेमा देकर अपना तो दीवाला पीट दिया पर अपने पिता पृथ्वीराज कपूर के चरण चिन्हों पर चल कर देश को यादगारी फिल्मी धरोहर जरूर उपहार के रूप में दी। शशि दादा साहेब फाल्के अवार्ड पाने के पूरे हकदार हैं। 
 
सासू मां
एक पड़ोसी दूसरे से, ‘‘हमारे कुत्ते ने आज सुबह मेरी सास को काटा-मुझे कुत्ते को पशु चिकित्सक (वैट) के पास ले जाना पड़ा।’’
‘‘तो क्या वैट ने कुत्ते को शांत करने की कोई दवाई दी?’’
‘‘नहीं यार, मुझे तो कुत्ते के दांत और तीखे करवाने थे।’’
बुरा न सोचो-न कहो
‘‘क्या हुआ जीजा जी को -इतनी शाम हो गई अभी तक दफ्तर से नहीं लौटे-कहीं अपनी सैक्रेटरी के चक्कर में तो नहीं पड़ गए?’’
बड़ी बहन ने डांटा, बोली, ‘‘तुम तो हमेशा ही अपने जीजा जी के बारे में उल्टा-सीधा सोचती हो। हो सकता है उनकी कार का एक्सीडैंट हो गया हो।’’
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