‘सफाई सेवकों’ के ‘अच्छे दिन’ कब आएंगे

Edited By ,Updated: 24 Apr, 2015 11:44 PM

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दो दशक पूर्व 1993 में संसद ने सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा के उन्मूलन के लिए एक विधेयक पारित किया था और इसके लिए हमें विदेशों से भी काफी आर्थिक सहायता मिली

दो दशक पूर्व 1993 में संसद ने सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा के उन्मूलन के लिए एक विधेयक पारित किया था और इसके लिए हमें विदेशों से भी काफी आर्थिक सहायता मिली परंतु आज भी देश के अनेक भागों में यह कुप्रथा जारी है और लाखों दलित परिवार यह अभिशाप झेल रहे हैं।

देश में हर साल लगभग 10 हजार सफाई सेवकों की मृत्यु सिर पर मैला ढोने से होने वाली बीमारियों से होती है जबकि 22,000 से अधिक सीवरमैन सीवरेज की विषैली गैस की बलि चढ़ जाते हैं।
 
90 प्रतिशत सीवरमैन रिटायर होने से पूर्व ही सीवर की विषैली गैस या इससे होने वाली जानलेवा बीमारियों से मारे जाते हैं और लगभग 98 प्रतिशत सफाई सेवक जीवन भर किसी न किसी बीमारी से जूझते रहते हैं।
 
पाश्चात्य देशों में जो काम जितना जोखिम भरा और गंदा होता है उसके लिए उतनी ही अधिक उजरत दी जाती है परंतु भारत में स्थिति इसके बिल्कुल विपरीत है। स्वतंत्रता के 68 वर्ष बाद भी ये घरों-मोहल्लों को साफ रखने के लिए 150-200 रुपए दैनिक की बहुत कम उजरत पर काम कर रहे हैं।
 
जान हथेली पर रख कर गंदगी और खतरनाक बैक्टीरिया से भरे गटरों और मैनहोलों में सुरक्षा उपकरणों के बगैर ही उतर कर सफाई करने से वे अनगिनत किस्म के गंभीर त्वचा रोगों के अलावा दस्त, टायफाइड, हैपेटाइटिस-बी, सांस और पेट की बीमारियों का शिकार हो जाते हैं। ‘टैटनी’ नामक बैक्टीरिया इनके खुले घावों को टैटनस में बदल देता है।
 
उन्हें ऑक्सीजन सिलैंडर, फेसमास्क, गम बूट, सेफ्टी बैल्ट, नाइलोन के रस्से की सीढ़ी, दस्ताने, सुरक्षात्मक  हैलमेट और टार्चें तथा इन्सुलेटिड बॉडी सूट आदि भी उपलब्ध नहीं कराए जाते। उन्हें काम के दौरान चोट लगने की स्थिति में चिकित्सा अवकाश भी नहीं मिलता। पंजाब में सीवरों की सफाई करने वाले अधिकांश कर्मचारियों को इसी स्थिति से जूझना पड़ रहा है।
 
लगभग डेढ़ वर्ष पूर्व कपूरथला में एक सीवर लाइन की  सफाई करते हुए 3 सफाई कर्मचारियों की मृत्यु सुरक्षा उपकरण न होने से हो गई थी परंतु अभी भी सफाई कर्मचारी उन्हीं जोखिम भरे अमानवीय हालात में गंदगी व विषैली गैसों से भरे गटरों में उतर कर सफाई करने को विवश हैं। 
 
इसी कारण 23 अप्रैल को जालंधर में मकसूदां चौक के निकट सीवरेज लाइन की सफाई कर रहे नगर निगम के 2 कच्चे सीवरमैन धर्मेंद्र और विकास सीवरेज की विषैली गैस चढ़ जाने से बेहोश हो गए।
 
विकास को तो उसी समय खींच कर बाहर निकाल लिया गया परंतु धर्मेंद्र पानी और गार की चपेट में आ गया तथा लगभग 10 फुट गहरे सीवरेज में फंसा जिंदगी और मौत के बीच झूलता रहा। संयोगवश नगर निगम की कूड़ा फैंकने वाली गाड़ी के ड्राइवर श्याम लाल की नजर उस पर पड़ी तो उसने गंदे पानी में छलांग लगा कर गंदे पानी में बेहोश पड़े धर्मेंद्र को बाहर निकाला। 
 
जिस प्रकार सीमाओं पर तैनात जवान अपनी जान खतरे में डाल कर रात-दिन पहरा देते हैं ताकि हम सुख की नींद सो सकें उसी प्रकार ये सफाई मजदूर भी देशवासियों की सेहत और सफाई की खातिर दिन-रात अपनी जान को खतरे में डाल कर जूझते रहते हैं। पूरे देश में जहां कहीं भी कोई दुर्घटना या दंगा फसाद हो जाता है तो वहां बिखरी सभी हानिकारक वस्तुएं सफाई कर्मचारियों को अस्वस्थकर परिस्थितियों में उठानी पड़ती हैं।
 
कुछ वर्ष पूर्व सुप्रीमकोर्ट ने राज्य सरकारों को यह आदेश तो दिया था कि कूड़ा ढोने वाले वाहन पूरे ढंके हुए हों ताकि आम जनता को कोई बीमारी न लगे परंतु अपने हाथों से गंदगी उठाने और गटर में घुस कर गंदगी निकालने वाले सफाई सेवक और सीवरमैन उपेक्षित ही रहे।
 
जैसा कि हमेशा होता आया है, इस बार भी प्रशासन ने पीड़ित सीवरमैनों के इलाज का सारा खर्च उठाने की घोषणा कर दी है परंतु ऐसे पग उठाने संबंधी कोई घोषणा नहीं की गई जिससे भविष्य में ये दुर्घटनाएं न हों। 
 
अब जबकि केंद्र में स्वयं को ‘गरीबों की हमदर्द’ कहने वाली सरकार को सत्तारूढ़ हुए एक वर्ष हो चुका है, अन्य देशवासियों की तरह सफाई सेवकों और सीवरमैनों को अभी भी अच्छे दिनों का इंतजार है। 
 
अत: सरकार को सीवरमैनों का पूरे सुरक्षा उपकरणों के साथ ही सीवरों में उतरना सुनिश्चित बनाना चाहिए ताकि उन्हें किसी भी प्रकार की ऐसी अप्रिय स्थिति में पडऩे से बचाया जा सके जिससे उनके स्वास्थ्य एवं जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पडऩे की आशंका हो।  

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