Edited By ,Updated: 28 Jul, 2015 09:44 AM
एक दिन राजा ने सोचा कि उसकी र्कीत दूर-दूर तक फैली है। प्रजा और राज दरबारी उसकी प्रशंसा करते हैं। क्या वह सचमुच श्रेष्ठ है, इसका पता लगाना चाहिए।
एक दिन राजा ने सोचा कि उसकी र्कीत दूर-दूर तक फैली है। प्रजा और राज दरबारी उसकी प्रशंसा करते हैं। क्या वह सचमुच श्रेष्ठ है, इसका पता लगाना चाहिए। इस संदर्भ में राजा ने विद्वानों, मंत्रियों और सेनापति से पूछा। उन्होंने कहा, ‘‘महाराज, आपका चरित्र तो चंद्रमा के समान धवल है।’’
राजा ने सोचा, जब तक मेरी प्रशंसा प्रजा नहीं करती, मैं प्रशंसनीय नहीं हो सकता। उन्होंने प्रजा से पूछा। कइयों ने कहा, ‘‘आप में कोई त्रुटि नहीं है।’’
राजा ने सोचा, ‘‘शायद भय के कारण प्रजा ने प्रशंसा की हो। अत: सच जानने हेतु मुझे बाहर निकलना चाहिए।’’
राजा रथ पर बैठकर बाहर निकल गए। वह गांव-गांव जाकर पूछने लगे। सभी जगह से यही उत्तर मिला कि राजा में कोई अवगुण नहीं है। राजा का रथ आगे बढ़ रहा था, उधर दूसरी ओर से वाराणसी के राजा का रथ आ रहा था। राजा ने उनके सारथी से कहा, ‘‘अपने रथ को सामने से हटा लो।’’
सारथी ने उत्तर दिया, ‘‘मेरे रथ पर सभी गुणों के भंडार काशी के राजा बैठे हुए हैं। मेरे रथ को पहले निकल जाने दीजिए।’’
राजा बोले, ‘‘सभी गुणों का भंडार तो मैं हूं। तुम अपने रथ को बगल में कर लो।’’
काशी के राजा अभी तक मौन थे। राजा की बात सुनकर उन्होंने पूछा, ‘‘क्या मैं जान सकता हूं कि आप अपने को श्रेष्ठ क्यों समझते हैं?’’
राजा ने कहा, ‘‘क्योंकि मैं बुराई करने वालों के साथ बुराई और भलाई करने वालों के साथ भलाई करता हूं।’’
काशी के राजा बोले, ‘‘श्रेष्ठ मनुष्य वह है जो बुराई करने वालों के साथ भी भलाई करे।’’
यह सुन कर राजा के ज्ञान चक्षु खुल गए। उन्होंने काशी के राजा को मार्ग दे दिया।