गुरदासपुर का आतंकी हमला खुफिया तंत्र की मजबूती के लिए ‘वेक-अप काल’

Edited By ,Updated: 30 Jul, 2015 11:35 PM

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गुरदासपुर में सोमवार को हुए आतंकवादी हमले ने एक बार फिर से भारत की आंतरिक सुरक्षा के साथ-साथ बाहरी खतरे को भी केन्द्र बिन्दु में ला दिया है।

(कल्याणी शंकर): गुरदासपुर में सोमवार को हुए आतंकवादी हमले ने एक बार फिर से भारत की आंतरिक सुरक्षा के साथ-साथ बाहरी खतरे को भी केन्द्र बिन्दु में ला दिया है। यह तथ्य कि आतंकवादी सीमा पार से दिन-दिहाड़ेदेश में दाखिल हुए और निर्दोष नागरिकों तथा पुलिसकर्मियों को मार दिया, एक वेक-अप कॉल है कि खुफियातंत्र के साथ-साथ पुलिस बल को भी मजबूत किया जाए। 

चिन्ता की बात यह है कि पंजाब, जिसने 80 के दशक में आतंकवाद का सामना किया, आतंकवाद के प्रति अभेद्य  नहीं है। सोमवार की घटना अत्यंत चिन्ता का विषय बन गई है क्योंकि ऐसा आतंकवादी हमला राज्य में लगभग 8 वर्षों बाद हुआ है। दूसरे, आतंकवादियों का निशाना अभी तक केवल जम्मू-कश्मीर था। सुरक्षा बलों तथा भारतीय खुफिया एजैंसियों को आतंकवाद के इस विस्तार से तुरन्त निपटना होगा। 
 
आतंकवादी हमले की अपनी विदेश नीति तथा घरेलू गूंज है। विदेश नीति के पहलू से यह वर्तमान में भारत तथा पाकिस्तान के बीच जारी सामान्य स्थिति बहाल करने के प्रयासों के लिए चुनौती पेश करता है। जब से नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री के तौर पर पदभार संभाला है, पाकिस्तान के प्रति उनके विदेश नीति प्रयास डगमगाहट भरे रहे हैं। एक वर्ष पूर्व पड़ोसी देशों के राष्ट्राध्यक्षों को अपने शपथ ग्रहण समारोह में हैरानीजनक रूप से आमंत्रण, जहां पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को शांति की तरफ पहले कदम के तौर पर आमंत्रित किया गया था, से लेकर गुरदासपुर में आतंकवादी हमले तक उनका सफर उतार-चढ़ाव भरा रहा है। 
 
क्या इस आतंकवाद से भारत की पाकिस्तान नीति पटरी से उतर जाएगी? इस बात के संकेत हैं कि उकसाहट के बावजूद पाकिस्तान के साथ वार्ता बहाली पर कदम आगे बढ़ेंगे। इसके साथ ही सरकार ने आतंकवादी हमले के बदले का विकल्प नहीं छोड़ा है क्योंकि जब भारतीय सुरक्षा बलों ने 16 जुलाई को जम्मू सैक्टर में पाकिस्तानी गोलीबारी का करारा जवाब दिया था, विदेश सचिव एस. जयशंकर ने इसे ‘ताॢकक मगर कड़ा’ बताया था। 
 
ज्यादा से ज्यादा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्तर की वार्ता संभवत: कुछ सप्ताहों के लिए टल सकती है क्योंकि अभी तक इसकी तारीख निश्चित नहीं हुई। स्थिति से निपटने के लिए सरकार काफी सतर्कता बरत रही है और इस पर कोई सख्त प्रतिक्रिया नहीं हुई। हालांकि कुछ टी.वी. चैनल चीख रहे हैं कि पाकिस्तान को सबक सिखाना चाहिए, ऐसा दिखाई देता है कि सरकार अभी भी सबूत इकठ्ठे कर रही है इसलिए हड़बड़ाहट में कोई वक्तव्य देने की जल्दी में नहीं है। 
 
दूसरे, वार्ता के प्रयास अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा की नई दिल्ली में ‘चाय  पर चर्चा’ के बाद शुरू हुए जब जनवरी में वह गणतंत्र दिवस समारोह के लिए मुख्य मेहमान के तौर पर नई दिल्ली आए। उसके बाद से कुछ हरकत हुई और हाल ही में रूस में उफा की बैठक भी इस प्रयास का एक हिस्सा बनी। इसलिए यह कहना अत्यंत जल्दबाजी होगी कि पाकिस्तान के साथ सम्पर्क संभवत: त्याग दिया जाएगा।
 
तीसरे, मोदी की विदेश नीति के व्यापार तथा वाणिज्य के माध्यम से भी चलने की संभावना है। जब वह गुजरात के मुख्यमंत्री थे, उन्होंने चीन सहित कई देशों का दौरा किया। उन्होंने कराची से आए व्यावसायिक शिष्टमंडलों के साथ भी बात की। पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल एक परिपक्व राजनीतिज्ञ हैं और पंजाब के साथ-साथ केन्द्र में भी भाजपा के सहयोगी हैं। बादल पंजाब तथा पाकिस्तान के बीच अधिक व्यापारिक रास्ते खोलने पर जोर दे रहे हैं और ऐसा ही उनके पूर्ववर्ती कांग्रेस के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह ने किया था। 
 
पंजाब सरकार तथा चैम्बर आफ कॉमर्स व्यापार के लिए वाघा-अटारी सीमा के अतिरिक्त हुसैनीवाला-कसूर भूमि मार्ग को खोलने के लिए लॉबिग कर रहे हैं। अत: पाकिस्तान के साथ आॢथक संबंधों कोलेकर एक द्विपक्षीय एप्रोच है। इस आतंकवादी हमले से संभवत: इस बर्ताव में कोई परिवर्तन नहीं आया। 
 
इसी तरह जम्मू-कश्मीर में भी मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद पाकिस्तान के साथ और अधिक मार्ग खोलना तथा व्यापारिक संबंध चाहते हैं। राजस्थान व्यापार के लिए मुनाबाओ-खोखरापार भूमि मार्ग खोलने की मांग कर रहा है जबकि गुजरात केन्द्र पर सिंध के साथ भूमि मार्ग खोलने पर दबाव डाल रहा है। 
 
मोदी के भाग्य से जम्मू-कश्मीर, पंजाब, गुजरात तथा राजस्थान में राजग मुख्यमंत्रियों का शासन है, इसलिए केन्द्र को कोई नीति लागू करने में मुश्किल का सामना नहीं करना पड़ेगा। मोदी ‘पड़ोसी पहले’ नीति की बात करते हैं और पड़ोस से संबंधित एक नीति जुड़ाव, सम्पर्क तथा सहयोग पर दबाव डालती है। 
 
सबसे बढ़कर, जैसा कि कुछ समय पूर्व अमरीका आधारित कौंसिल आन फॉरेन रिलेशन्स (सी.एफ.आर.) द्वारा आयोजित एक कांफ्रैंस के दौरान भारत में पूर्व अमरीकी राजदूत ब्लैकविल ने कहा था, ‘‘15 वर्ष पूर्व दिल्ली में संसद पर आतंकवादी हमले से लेकर प्रत्येक भारतीय प्रधानमंत्री ने ऐसी घटनाओं पर एक सैन्य प्रतिक्रिया पर गंभीरतापूर्वक विचार किया मगर बाद में अपने कदम वापस खींच लिए।’’ गत एक वर्ष के  दौरान मोदी यह प्रदॢशत करने का प्रयास कर रहे हैं कि वह न तो धक्केशाही करते हैं, जैसा कि कुछ आलोचकों का मानना है और न ही विदेश नीति के मामले में कमजोर हैं।
 
घरेलू मोर्चे पर, पहला संकेत पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल की ओर से आया, जिन्होंने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की कि सीमा की बाड़बंदी केन्द्र का काम है। उन्होंने कहा, ‘‘आतंकवादी पंजाब से नहीं आए, वे सीमा पार से आए। यदि इस बारे कोई सूचना थी तो यह उनका (गृह मंत्रालय) काम था कि सीमा को सील कर दे। यदि सूचना थी तो सीमा को सील क्यों नहीं किया गया?’’
 
एक अन्य राजग सहयोगी शिवसेना हमेशा से ही पाकिस्तान विरोधी रही है और पड़ोसी के साथ वार्ता के विरुद्ध है। शिवसेना भाजपा की कुछ नीतियों का खुलकर विरोध करने से संकोच नहीं करती, इसलिए एक परेशानीजनक स्थिति पैदा हो जाती है। गुरदासपुर में सोमवार को हुए आतंकवादी हमले के बाद शिवसेना के कई कार्यकत्र्ताओं ने ‘पाक प्रायोजित’ आतंकी हमले के विरोध में फगवाड़ा में पाकिस्तानी झंडों को जलाया। 
 
पाकिस्तान पर नजर रखने वाले बहुत से लोगों का मानना है कि वार्ता बहाली को छोडऩा नहीं चाहिए और पाकिस्तान से निपटने के लिए सम्पर्क बेहतरीन रास्ता है। ऐसा केवल तभी हो सकता है जब वहां एक नागरिक सरकार हो और साऊथ ब्लाक को सावधानीपूर्वक आगे कदम बढ़ाना चाहिए। इसके साथ ही नई दिल्ली को यह संकेत भेजना चाहिए कि आतंकवादी हमलों से बराबर की ताकत के साथ निपटा जाएगा।  

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