Edited By ,Updated: 01 Dec, 2015 12:47 AM
दिल्ली के राजनीतिक मौसम में पिछले सप्ताह 2 घटनाएं हुईं। एक प्रधानमंत्री मोदी और कांग्रेस नेता सोनिया गांधी के बीच वस्तु और सेवा कर के बारे में चाय पर चर्चा हुई
(पूनम आई. कौशिश): दिल्ली के राजनीतिक मौसम में पिछले सप्ताह 2 घटनाएं हुईं। एक प्रधानमंत्री मोदी और कांग्रेस नेता सोनिया गांधी के बीच वस्तु और सेवा कर के बारे में चाय पर चर्चा हुई और दूसरी 26 नवम्बर को संंविधान दिवस मनाया गया। चाय पर चर्चा के संबंध में अभी विपक्ष ने गर्मजोशी नहीं दिखाई है किन्तु संविधान दिवस के अवसर पर आयोजित विशेष चर्चा में हमारे नेताओं ने एक-दूसरे के विरुद्ध विष वमन किया और हर किसी के बीच ‘मेरा अम्बेदकर बनाम तेरा अम्बेदकर’ पर तू-तू, मैं-मैं हुई। हालांकि इस तू-तू, मैं-मैं में उनका दोगलापन, पाखंड और धोखा स्पष्टत: दिखाई दे रहा है।
संसद के शीतकालीन सत्र की शुरूआत दोनों सदनों में संविधान पर चर्चा से हुई। गृह मंत्री राजनाथ सिंह की इस टिप्पणी से इस गर्मागर्म बहस की शुरूआत हुई कि समसामयिक राजनीतिक चर्चा में धर्मनिरपेक्षता शब्द का सर्वाधिक दुरुपयोग हुआ है और विपक्ष ने इस पर आपत्ति जताई किन्तु किसी ने उनकी इस बात को स्वीकार नहीं किया कि सैकुलर का तात्पर्य पंथनिरपेक्ष है, धर्मनिरपेक्ष नहीं और दोनों पक्षों के बीच खाई और बढ़ी।
सोनिया ने लगभग ललकारते हुए कहा, ‘‘जिन लोगों की संविधान में आस्था नहीं है, जिन्होंने इसके निर्माण में कोई योगदान नहीं दिया है, वे बार-बार इसकी बातें कर रहे हैं और वे इसकी विरासत को हड़पने का प्रयास कर रहे हैं। इससे बड़ा मजाक क्या हो सकता है?’’ हैरानी की बात यह है कि नमो ने सुलह का राग अलापते हुए कहा कि संविधान को मेरे-तेरे के झगड़े में नहीं बदला जाना चाहिए क्योंकि भारत का धर्म केवल इंडिया फस्र्ट है और संविधान ही इसका एकमात्र धर्मग्रंथ है।
हम सभी जानते हैं कि संविधान को सर्वोच्च माना जाता है किन्तु विचारणीय प्रश्न यह है कि संविधान तब तस्वीर में आता है जब कोई न्याय प्राप्त करने के लिए न्यायालय में जाता है। क्या हमारे राजनेता जो जाति, धर्म, राजनीतिक और वैचारिक मतभेदों में बंटे हुए हैं और जहां पर दूरदर्शिता और भविष्य की ङ्क्षचता करने वाले राजनेताओं का अभाव है, वहां वास्तव में ये नेता अम्बेदकर की विचारधारा पर विश्वास करते हैं? अर्थात ‘‘मैं ऐसे धर्म को पसंद करता हूं जो स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व की शिक्षा देता है।’’ क्या हमारे नेता उस संविधान की थोड़ी-सी भी परवाह करते हैं जिसके बारे में अम्बेदकर ने कहा था, ‘‘यदि यह कामचलाऊ है तो यह बहुत ही सुंदर कामचलाऊ कार्य है।’’ यह हमें एक संप्रभु समाजवादी, पंथनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में एकजुट करता है तथा सभी नागरिकों के लिए न्याय, स्वतंत्रता और समानता प्राप्त करने का प्रयास करता है। प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करता है।
किन्तु यदि चर्चा के दौरान संसद में नेताओं के भाषण पर गौर करें तो ऐसा नहीं दिखाई देता है। हर कोई अवसरवादिता और अपने वोट बैंक की राजनीति के अनुसार अपने विरोधियों पर बढ़त बनाने के लिए भाषण देता हुआ दिखाई दिया।
जरा सोचिए। जो लोग पंथनिरपेक्षता और डा. अम्बेदकर की कसमें खाते हुए नहीं थकते हैं क्या वे पंथनिरपेक्ष अनुच्छेद 44 को लागू करना चाहते हैं जिसमें कहा गया है ‘‘राज्य भारत के संपूर्ण भू-भाग पर सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता लागू करने का प्रयास करेगा।’’
इस शब्द को नजरअंदाज कर दिया गया है। सभी पाॢटयों में मूलत: हिन्दुओं का बोलबाला है और सभी मुस्लिम वोट बैंक को भुनाना चाहते हैं इसीलिए तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पाॢटयां इस अनुच्छेद के बारे में गूंगी, बहरी, अंधी बनी रहती हैं क्योंकि उनको लगता है कि इसको लागू करने से धार्मिक समूहों की धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार और व्यक्तिगत कानूनों में हस्तक्षेप होगा और जब तक ये धार्मिक समूह बदलाव के लिए तैयार न हों, ऐसा नहीं किया जा सकता है। उनका मानना है कि मोदी राज में धर्मनिरपेक्षता खतरे में है जबकि भाजपा का मानना है कि यह वैचारिक विरोधाभासों को दूर कर राष्ट्रीय अखंडता को मजबूत करने में सहायता करेगा।
डा. अम्बेदकर एक समान नागरिक संहिता के प्रबल पक्षधर थे। उनका मानना था कि एक सभ्य समाज में धार्मिक और व्यक्तिगत कानूनों के बीच कोई संबंध नहीं है। इसलिए इसे धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का अतिक्रमण क्यों माना जाए या इसे अल्पसंख्यक विरोधी क्यों माना जाए? इसीलिए संविधान सभा में अनुच्छेद 35 (अब अनुच्छेद 44) पर चर्चा के दौरान उन्होंने 2 टिप्पणियां की थीं।
पहली, मुस्लिम पर्सनल लॉ सम्पूर्ण देश में एक समान नहीं है। दूसरी, उन्होंने वैकल्पिक और स्वैच्छिक एक समान नागरिक संहिता का पक्ष लिया था। किन्तु आज के राजनीतिक वातावरण में संकीर्ण राजनीतिक और व्यक्तिगत उद्देश्यों के लिए धर्म का दुरुपयोग किया जा रहा है और इसके चलते राम और रहीम आज चुनावी कटआऊट बन गए हैं। इसका तात्पर्य है कि क्या अम्बेदकर की इन बातों से आप उन्हें साम्प्रदायिक या हिन्दू कट्टरवादी कहेंगे? इसके अलावा अम्बेदकर ने आरक्षण की व्यवस्था 10 वर्षों के लिए की थी। उनका कहना था, ‘‘मेरे विचार से समय आ गया है कि हम जाति शब्द के प्रयोग पर प्रतिबंध लगा दें। आरक्षण को भी समाप्त किया जाना चाहिए क्योंकि यह विकास में बाधक बनता है।’’
किन्तु गत वर्षों में हमारे नेतागणों ने आरक्षण और कोटा को एक दुधारू राजनीतिक गाय बनाया और उन्होंने इस सकारात्मक कदम को वोट बैंक में बदला जिसके चलते सामाजिक और आॢथक उत्थान को वोट बैंक की राजनीति के तराजू में तोला जाता है और योग्यता एक गंदा शब्द बन गया है। हमारे राजनेता आरक्षण के लिए उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित 50 प्रतिशत की सीमा से भी सहमत नहीं हुए और उन्होंने इस प्रतिशत को बढ़ाया जिसके चलते आज तमिलनाडु में यह 69 प्रतिशत तक और बिहार, कर्नाटक में 80 प्रतिशत तक है।
यह सच है कि सरकार का मूल उद्देश्य गरीबों का उत्थान करना, उन्हें शिक्षा के अवसर प्रदान करना तथा समान अवसर प्रदान करना है किन्तु जब शिक्षा और रोजगार में आरक्षण को किसी जाति के आधार पर आकलित किया जाता है तो यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 15 (1) के विपरीत जाता है। इससे न केवल लोगों में मतभेद बढ़ते हैं अपितु राष्ट्रीय एकता और भाईचारे को भी नुक्सान पहुंचता है। अत: प्रश्न उठता है कि क्या हमारे राजनेता इस बात को भूल गए हैं कि संविधान का निर्माण हमारे महान नेताओं द्वारा किया गया था और इसके प्रत्येक अनुच्छेद पर उत्कृष्ट कानूनविदों ने चर्चा की थी ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि देश का धर्मनिरपेक्ष ताना-बाना बना रहे।
क्या हमारे राजनेता और राजनीतिक दल उस स्थिति में धर्मनिरपेक्ष होने का दावा कर सकते हैं जब सभी तथाकथित साम्प्रदायिक मित्र और धर्मनिरपेक्ष दुश्मन अपनी सुविधानुसार एक बन जाते हैं और समय के साथ उनके द्वारा पैदा किया गया मंडल रूपी दानव उन्हें ही नष्ट कर देगा क्योंकि जाति आधारित आरक्षण की प्रणाली विभाजनकारी बनती जा रही है और आरक्षण लोगों के जीवन स्तर में सुधार का उपाय नहीं है और यह देश के दीर्घकालीन विकास के लिए हानिकारक है।
खेद इस बात का है कि आज की सामाजिक राजनीतिक वास्तविकता में अम्बेदकर की इस सलाह को नजरअंदाज किया जा रहा है। अनुच्छेद 44 आज तक लागू नहीं किया गया है और आरक्षण जारी है और लगातार बढ़ता जा रहा है। प्रत्येक सरकार राजनीति, जाति और धर्म के बीच अंतर करने में विफल रही है। वे भूल जाते हैं कि राज्य के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप में कोई रहस्य नहीं छिपा है। राज्य न तो भगवान विरोधी है और न ही भगवान समर्थक। राज्य से अपेक्षा की जाती है कि यह सभी धर्मों और सभी लोगों के साथ एक समान व्यवहार करे। चाहे वह किसी भी जाति या धर्म का हो और यह सुनिश्चित करता है कि धर्म के आधार पर किसी के साथ भेदभाव न किया जाए।
फिर आगे की राह क्या है? यह इस बात पर निर्भर करता है कि क्या सरकार विभिन्न वायदों के अतिरिक्त बोझ से मुक्त होना चाहती है और इसकी बजाय वास्तविक पंथनिरपेक्षता पर निर्भर करती है और आरक्षण की सर्कस पर रोक लगाती है? क्या हमारे राजनेता अम्बेदकर की विरासत को आगे ले जाने के लिए तैयार हैं? भारत को वास्तविक धर्मनिरपेक्षता और वास्तविक राष्ट्रीय अखंडता की ओर बढ़ाने की आवश्यकता है।
इसलिए समय आ गया है कि संविधान के जनक की विरासत के बारे में पाखंडी बातें न की जाएं और उनकी बातों को लागू करने के लिए ठोस कदम उठाए जाएं। संविधान सच्चे अर्थों में सर्वोच्च होना चाहिए अन्यथा अम्बेदकर के ये वाक्य सही सिद्ध होंगे, ‘‘यदि कोई बात गलत होती है तो इसका कारण यह नहीं होगा कि हमारा संविधान बुरा है। हमें यह कहना होगा कि व्यक्ति बुरा था।’’ अब गेंद हमारे राजनेताओं के पाले में है। आपकी क्या राय है?