Edited By ,Updated: 28 Sep, 2016 01:24 PM
आषाढ़ माह की गर्म दोपहर थी। भगवान बुद्ध अपने शिष्यों के साथ भ्रमण पर जा रहे थे। उस रास्ते में कहीं पेड़ भी नहीं थे। चारों तरफ बिखरी थी तो बस रेत ही रेत। रेत पर चलने के कारण तथागत् के पैरों के निशान बनते जा रहे थे। ये निशान सुन्दर थे। तभी अचानक...
आषाढ़ माह की गर्म दोपहर थी। भगवान बुद्ध अपने शिष्यों के साथ भ्रमण पर जा रहे थे। उस रास्ते में कहीं पेड़ भी नहीं थे। चारों तरफ बिखरी थी तो बस रेत ही रेत। रेत पर चलने के कारण तथागत् के पैरों के निशान बनते जा रहे थे। ये निशान सुन्दर थे। तभी अचानक शिष्यों को दूर एक पेड़ दिखाई दिया। सभी ने वहां विश्राम किया। तथागत् और सभी शिष्य उस पेड़ की छांव के नीचे आराम करने लगे। तभी वहां एक ज्योतिषी आए वह उसी रास्ते से अपने घर जा रहे थे। उन्होंने रेत पर बुद्ध के पैरों के निशान देखे। वह उन्हें देख रहे थे और उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था।
उन्होंने अपने जीवन में ऐसे पदचिन्ह नहीं देखे थे। ज्योतिषी ने सोचा शायद यह पदचिन्ह किसी चक्रवर्ती सम्राट के हो सकते हैं लेकिन सामने जब उन्होंने बुद्ध को देखा तो उन्हें यकीन नहीं हुआ। क्योंकि यह पदचिन्ह एक संन्यासी व्यक्ति के थे।
बुद्ध के चेहरे पर एक चमकती कांति थी। ज्योतिषी ने हाथ जोड़कर निवेदन किया कि आपके पैरों में जो पद्म है, वह अति दुर्लभ है, हजारों सालों में कभी किसी भाग्यशाली में देखने को मिलता है। हमारी ज्योतिष विद्या कहती है कि आपको चक्रवर्ती सम्राट होना चाहिए परन्तु आप तो?
भगवान बुद्ध हंसे और कहा, ‘आपका यह ज्योतिष काम करता था। अब मैं सब बंधनों से मुक्त हो गया हूं।’
जब आप सारे बंधनों से मुक्त हो जाते हैं तो न कोई ज्योतिष और न कोई और विद्या काम करती है। बस रहता है तो ईश्वर का परमतत्व ज्ञान और मोक्ष प्राप्ति का रास्ता। बुद्ध का यह प्रसंग इसी बात को इंगित करता है।