एक भोजनालय ऐसा भी खाओ जितना मन चाहे मगर जूठन छोड़ी तो देना पड़ता है जुर्माना

Edited By ,Updated: 12 Feb, 2019 03:40 AM

eat a restaurant as much as you like but you have to pay a penalty

देश ने भले ही विभिन्न क्षेत्रों में बड़ी सफलताएं प्राप्त कर ली हों पर अब भी हमारी जनसंख्या के एक बड़े हिस्से को भूखे पेट सोना पड़ता है क्योंकि खरीदने की सामथ्र्य न होने के कारण पर्याप्त खाद्यान्न पैदा होने के बावजूद यह जरूरतमंदों तक पहुंच नहीं...

देश ने भले ही विभिन्न क्षेत्रों में बड़ी सफलताएं प्राप्त कर ली हों पर अब भी हमारी जनसंख्या के एक बड़े हिस्से को भूखे पेट सोना पड़ता है क्योंकि खरीदने की सामथ्र्य न होने के कारण पर्याप्त खाद्यान्न पैदा होने के बावजूद यह जरूरतमंदों तक पहुंच नहीं पाता। 

संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार भारतीय प्रतिदिन 244 करोड़ रुपए का भोजन बर्बाद कर देते हैं। कुल उत्पादित खाद्य सामग्री का 40 प्रतिशत प्रतिवर्ष नष्टï हो जाता है तथा भारत में प्रतिदिन 19 करोड़ 40 लाख लोग भूखे सोते हैं। अन्न की इसी बर्बादी को देखते हुए तेलंगाना के वारंगल शहर में एक भोजनालय के मालिक ‘लिंगाला केदारी’ ने अपने होटल में भोजन करने के लिए आने वाले ग्राहकों को जूठन न छोडऩे के लिए प्रोत्साहित करना शुरू कर रखा है। ‘लिंगाला केदारी’ वारंगल में ‘लिंगाला केदारी फूड कोर्ट’ के नाम से एक भोजनालय चलाते हैं। यहां वह भोजन के लिए 60 रुपए प्रति व्यक्ति के हिसाब से लेते हैं जबकि अन्य भोजनालयों वाले 200 रुपए प्रति ग्राहक लेते हैं। 

60 रुपए में ग्राहक जितना चाहे भोजन कर सकता है परंतु जूठन छोडऩा मना है। भोजनालय के अंदर एक बोर्ड लगाया गया है जिस पर भोजन करने के लिए आने वाले ग्राहकों को आगाह करते हुए लिखा है कि, ‘‘खाएं जितना मन चाहे परंतु जूठन बिल्कुल न छोड़ें और यदि जूठन छोड़ी तो इसके लिए 50 रुपए जुर्माना भरना पड़ेगा।’’ इतना ही नहीं, यदि जूठन छोडऩे वाला कोई ग्राहक ‘जुर्माना’ अदा करने में आनाकानी करे तो उसे लोहे की एक ग्रिल के पीछे ‘बंद’ कर दिया जाता है और तब तक नहीं छोड़ा जाता जब तक वह जुर्माने की अदायगी न कर दे। दूसरी ओर जूठन न छोडऩे वाले ग्राहकों को भोजनालय की ओर से धन्यवाद स्वरूप 10 रुपए की सांकेतिक छूट दी जाती है। 

श्री ‘लिंगाला केदारी’ ने यह प्रयोग डेढ़ दशक पूर्व शुरू किया था। उनका कहना है, ‘‘हमारे देश में करोड़ों लोग भूखे पेट सोते हैं, लिहाजा मैं भोजन बर्बाद करने वाले ग्राहकों को सहन नहीं कर पाता। मैं तो कागज की इस्तेमाल की हुई प्लेटों को भी नहीं फैंकता और उन्हें ईंधन के रूप में इस्तेमाल करता हूं।’’ उल्लेखनीय है कि 90 के दशक में श्री ‘लिंगाला केदारी’ फुटपाथ पर मिट्टी के बर्तन बेचा करते थे लेकिन उस स्थान को ढहा दिए जाने के कारण जब उन्हें अपना धंधा बंद करना पड़ गया तो उन्होंने एक रेहड़ी पर नमकीन बेचना शुरू किया। फिर कुछ समय बाद उन्होंने घाटे में चल रहा एक रेस्तरां खरीद कर उसे ‘लिंगाला केदारी फूड कोर्ट’ का नया नाम देकर चलाया। यहां लंच-बफे दोपहर 1 बजे शुरू होकर 3 बजे तक जारी रहता है और कूड़ेदान में फैंकने से पूर्व ग्राहकों को अपनी प्लेटें श्री ‘केदारी’ को दिखानी पड़ती हैं। उन्होंने 2 वर्षों में जूठन छोडऩे वाले 300 से अधिक ग्राहकों को ‘जुर्माना’ किया और उनके फोटो अपने मोबाइल में सेव कर रखे हैं। इनमें एक जज और एक थानेदार के अलावा कई अन्य सरकारी अधिकारी शामिल हैं। जुर्माने से प्राप्त रकम वह जरूरतमंद समाजसेवी संगठनों को दान कर देते हैं। 

श्री ‘केदारी’ की धर्मपत्नी पुष्पलता भोजन पकाने के काम में उनकी सहायता करती हैं। पुष्पलता का कहना है कि उनके पति द्वारा शुरू की गई यह ‘जूठन बचाओ योजना’ इतनी लोकप्रिय हुई है कि जहां पहले उनके भोजनालय में प्रतिदिन 300 ग्राहकों के लिए भोजन बनता था, अब इनकी संख्या बढ़ कर लगभग 800 हो गई है। श्री ‘लिंगाला केदारी’ के अनेक रिश्तेदारों और ग्राहकों ने भी इसे अपने घरों में लागू किया है। इसका एक पहलू यह भी है कि न सिर्फ जूठन लगे बर्तन साफ करने में परेशानी होती है बल्कि नालियों में जूठन फैंकने से गंदगी भी फैलती है। लिहाजा नैतिकता का तकाजा है कि हमें कहीं भी खाना खाते समय जूठन नहीं छोडऩी चाहिए। जितनी जरूरत हो उतना ही लेना चाहिए और भूख से कुछ कम ही खाना चाहिए जो स्वास्थ्य के लिए भी अच्छा है। 

वैसे भी, भारत में अन्न को भी देवता का दर्जा प्राप्त है तथा भारतीय धर्म-दर्शन में भोजन का अनादर करना या जूठन छोडऩा अनुचित माना गया है। जूठन न छोडऩे से इसके व्यर्थ में नष्टï होने से बचाव होगा, वहीं धन की बचत होने के साथ-साथ यह सेहत के लिए भी उतना ही अच्छा होगा। लोगों को जूठन न छोडऩे के लिए प्रेरित करने वाला यह प्रयोग अपने आप में अनूठा, अनुकरणीय और साहसिक है जिसके लिए श्री ‘‘लिंगाला केदारी’ को सरकार द्वारा सम्मानित किया जाना चाहिए ताकि दूसरों को भी ऐसी पहल करने का प्रोत्साहन मिले।—विजय कुमार 

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