वक्त के साथ कदम मिलाकर चलना होगा

Edited By ,Updated: 06 Jul, 2019 04:33 AM

have to walk along with time

अक्सर  हर किसी को इस दुविधा का सामना करना पड़ता है कि वह स्थापित या परिवार और घर के मुखिया द्वारा बनाई परम्पराओं और रीति-रिवाजों का पालन करे या फिर वह करे जो उसकी अपनी परिस्थितियां कहती हैं या उसका मन करता है जिसमें उसे परिवार से लेकर समाज तक के...

अक्सर  हर किसी को इस दुविधा का सामना करना पड़ता है कि वह स्थापित या परिवार और घर के मुखिया द्वारा बनाई परम्पराओं और रीति-रिवाजों का पालन करे या फिर वह करे जो उसकी अपनी परिस्थितियां कहती हैं या उसका मन करता है जिसमें उसे परिवार से लेकर समाज तक के विरोध का सामना करना पड़ सकता है। इस तरह वह एक ऐसे तनाव में जीने लगता है जिसमें अपने को असहाय समझने का दर्द तो होता ही है, बेबसी इतनी बढ़ जाती है कि डिप्रैशन में जीने लगता है।

एक उदाहरण से बात समझी जा सकती है। हमारे समाज में विभिन्न कानून होने के बावजूद एक बहुत बड़ी आबादी के बीच, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में यह परम्परा रही है और आज भी डंके की चोट पर चल रही है कि लड़का और लड़की के 5 या आसपास की उम्र का हो जाने पर उनकी शादी तय कर दी जाए, 13 से 18 साल तक के होने पर उनकी शादी कर दी जाए, लेन-देन अर्थात दहेज की रस्म निभा दी जाए और लड़की पर घर की सारी जिम्मेदारी और लड़के पर कुछ भी, कैसे भी और कहीं से भी कमा कर लाने का हुक्म सुना दिया जाए और ऐसा न हो तो उनका चूल्हा-चौका अलग करने की धमकी दे दी जाए।

यह कहा जा सकता है कि बाल विवाह, दहेज प्रथा रोकने के लिए कानून हैं, जिनके जवाब में यह सुनने को मिलता है कि यह तो हमारे यहां की परम्परा है, घूंघट करना हमारा रिवाज है और लड़का हो या लड़की हमारी इजाजत के बिना न तो कोई फैसला ले सकते हैं और न ही हमारा हुक्म टाल सकते हैं। अब मुस्लिम समाज में तलाक को लेकर बने कानून की मुखालफत और मुस्लिम महिलाओं को खेलकूद, अभिनय जैसे करियर अपनाने में रुकावट डालने से लेकर उनकी व्यक्तिगत जिंदगी के अहम फैसलों को भी परम्परा के नाम पर पुरुषों द्वारा तय करना यही बताता है कि कानून कुछ भी हो, वही होगा जो ये तय करेंगे और अगर किसी ने चूं-चपड़ की तो उसका हुक्का-पानी बंद। 

आधुनिक युग में कोई महत्व नहीं
आज के तकनीक और टैक्नोलॉजी पर आधारित तथा इंटरनैट द्वारा संचालित युग में इस तरह की बातों का कोई महत्व नहीं है। अब होता यह है कि जो युवा इनके चंगुल में फंस जाते हैं उनमें न तो  इतना साहस होता है कि विरोध कर सकें और न ही इतने समर्थ होते हैं कि अपने पैरों पर खड़े हो सकें तो उनके सामने डिप्रैशन या तनाव को अपने ऊपर हावी होने देने के अलावा कोई चारा नहीं होता। कम पढ़े-लिखे, ग्रामीण समाज और समाज के वंचित तबके की हालत तो दयनीय होती ही है पर यह उन समूहों में भी कम नहीं है जो अपने को शिक्षित, प्रोफैशनल और आधुनिक होने का दम भरते हैं। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि एक पूरी पीढ़ी गली-सड़ी परम्पराओं और निरर्थक रीति-रिवाजों के फेरे में पड़ी रहकर घुटन भरी जिंदगी जीने, नशे जैसी घातक आदतों से जकड़े जाने, हिंसा का शिकार बनने और आत्महत्या करने का रास्ता अपनाने के लिए मजबूर हो जाती है। 

बापू गांधी की कोशिश 
हालांकि हमारे देश में अनेक समाज सुधारकों ने इस हालत को बदलने के लिए आंदोलन और क्रांतिकारी कदम उठाए हैं लेकिन सबसे अधिक दूरंदेशी की बात न केवल करने, बल्कि अपने व्यक्तिगत आचरण और व्यावहारिक उपायों से इन बुराइयों का निराकरण करने की नींव बापू गांधी ने डाली। दुख की बात यह रही कि हमारी सरकारों ने समय-समय पर उनका नाम तो लिया लेकिन अमल या तो किया ही नहीं या फिर आधे-अधूरे मन से काम चलाओ की नीति अपनाई। नहीं तो सिर पर मैला ढोने, सीवर की गंदगी साफ करने, छुआछूत बरतने, झूठे आडम्बर करने से लेकर बाल विवाह, भू्रण हत्या, धर्म और जाति के आधार पर सुविधाओं का बंटवारा करने की मानसिकता कभी की समाप्त हो चुकी होती। यह कोई मुश्किल काम नहीं है। मिसाल के तौर पर यदि हमने शिक्षा को उन तक पहुंचाना है तो पहले वहां शिक्षा के साधन पहुंचाने होंगे। मान लीजिए कोई परिवार लड़के या लड़की को इसलिए स्कूल नहीं भेजता क्योंकि वह मजदूरी कर घर के खर्च चलाता है तो उतनी रकम उसके परिवार को सरकार की तरफ से मिलनी चाहिए जिससे परिवार की आमदनी की भरपाई हो सके और बच्चा मन लगाकर अपनी पढ़ाई कर सके। 

शिक्षा ही दे सकती है समझ
बच्चों का स्कूल से गैर-हाजिर रहना या मिड-डे मील के वक्त ही स्कूल जाना और स्कूल में अध्यापकों का न होना इस बात का प्रमाण है कि इमारत तो बन गई लेकिन उसमें पढऩे और पढ़ाने वाले पहुंचें, इसकी तरफ न सोचा और न कुछ किया गया।  शिक्षा ही ऐसा माध्यम है जो इस बात की समझ दे सकता है कि कौन-सी परम्पराओं और रीति-रिवाजों को मानना चाहिए और किन्हें बदलना चाहिए। 

असल में दिक्कत यह है कि इन वर्गों के कल्याण का दावा करने वाली ज्यादातर राजनीतिक पाॢटयां इन्हें अनपढ़ बनाए रखने, अपना वोट बैंक समझने और अपना पिछलग्गू बनाए रखने का ही काम करती रही हैं लेकिन अब हालत बदल रही है जो एक अच्छा लक्षण है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि समाज की मुख्यधारा में इस विशाल आबादी, जिसे गरीब कहा जाता है, को अगर शामिल करना है तो ऐसे साधन उन तक सुलभ कराने होंगे जिनकी मदद से पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार पुरानी और निर्जीव हो चुकी परम्पराओं तथा रीति-रिवाजों का होलिका दहन हो सके ताकि वे समझें कि इस देश की सम्पदा पर उनका भी हक है। 

शिक्षा के बाद है स्वास्थ्य संबंधी पुरानी परम्पराओं से मुक्ति, जैसे कि पंडित और मौलवी यह तय करें कि नवजात शिशु को मां का दूध कब पीना है, बीमारी की अवस्था में झाड़-फूंक, ताबीज हो और मां बीमार बच्चे को अस्पताल भी न ले जा सके। स्कूल, प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र, अस्पताल तक पहुंचने का इंतजाम किए बिना अपेक्षित बदलाव फिलहाल तो असम्भव है, ठीक उसी तरह जैसे कि परम्परा और रीति-रिवाज का बदलाव तब तक नहीं हो सकता जब तक उसका विकल्प न हो। वर्तमान सरकार के सामने अपनी योग्यता सिद्ध करने का यही मापदंड है।-पूरन चंद सरीन
 

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